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खुद का बोया बबूल खुद ही काटना पड़ता है

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शरद सिंगी

अंततः पिछले माह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मध्य-पूर्व में सक्रिय आतंकवादी संगठन ईसिस के सफाए होने की घोषणा कर दी। इस संगठन के आतंकियों ने अपने ही समाज के लोगों की हत्या जिस निर्दयता और निर्ममता से करके एक समानांतर राष्ट्र स्थापित करने की कोशिश की थी, उससे दुनिया कांप गई थी। इन्होंने धर्म का अपनी समझ और अपने हितों के अनुसार अनुवाद किया तथा सोलहवीं शताब्दी की तरह एक क्रूर तथा अत्याचारी ख़लीफ़ा राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया।
 
चूंकि जिस क्षेत्र को उन्होंने चुना था वह खनिज तेल बहुल क्षेत्र था, अतः वहां धन की कमी नहीं थी। उन्हें सफलता मिलने में देर भी नहीं लगी, क्योंकि इस आतंकी संगठन ने सीरिया व इराक की फौजों की कमजोरी का लाभ उठाया और अपने आधिपत्य के क्षेत्र का तेजी से विस्तार किया।
 
जैसा कि हम सब अब भलीभांति जानते हैं, आतंकी संगठन तब तक कामयाब नहीं हो सकते जब तक कि उनके सिर पर किसी राज्य, धनाढ्य वर्ग और बड़े ओहदों पर बैठे लोगों की सरपरस्ती न हो। प्रारंभ में जैसा होता है, कुछ राष्ट्रों ने कुछ अन्य राष्ट्रों को सबक सिखाने के उद्देश्य से इस संगठन को पोषित और इस्तेमाल किया, यह सोचकर कि आंतकियों द्वारा छद्म-युद्ध एक सुगम और सस्ता मार्ग है, जहां बिना शासन का सीधा हाथ दिखाए दूसरे राष्ट्र के जान-माल और सामरिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा सकता है। जैसे कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालीबान को हथियारों से लैस करके किया था, रूस के विरुद्ध।
 
बाद में यही आतंकी संगठन अमेरिका के लिए ही सिरदर्द बन गया और आज तक अमेरिका इस समस्या का ठीक से हल नहीं खोज पाया है। पाकिस्तान ने भी भारत के विरुद्ध कितने ही ऐसे आतंकी संगठनों को पोषित किया और आज वे सभी उसके लिए सिरदर्द बन चुके हैं। इसी तरह कुछ राष्ट्रों द्वारा पोषित इसिस भी कुछ ही वर्षों से मध्य पूर्व के देशों के लिए नासूर बन गया था, तब इसे पोषित करने वाले लोगों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही थी।
 
समझ में नहीं आ रहा था कि अब इस नासूर से छुटकारा कैसा मिलेगा। वह तो समय पर विश्व की सभी महाशक्तियों को सद्बुद्धि आई और उन सब ने मिलकर इसिस का मुकाबला किया और इस नासूर की सर्जरी की। यदि यह सद्बुद्धि कुछ वर्षों पहले आ जाती तो सीरिया में जिन लाखों लोगों ने अपनी जान से हाथ धोया है उनकी जान सलामत रहती। यूरोप भी आज शरणार्थी समस्या से जूझ नहीं रहा होता।
 
तो सबक इससे विश्व को यही मिलता है कि गलत प्रवृत्तियों को जब भी पोषित किया जाता है (भले ही कुछ समय के लिए हो अथवा किसी भी मकसद के लिए), इनका परिणाम कभी इच्छित नहीं हो सकता। फिर विकसित हो जाने के बाद इन पोषित कुप्रवृत्तियों को छोड़ देना भी असंभव हो जाता है क्योकि ये शनैः शनैः जीवन का एक हिस्सा बन जाती हैं चाहे फिर वह व्यक्तिगत जिंदगी हो या राष्ट्र की। इसलिए भारतीय सांस्कृतिक साहित्य में कहा जाता है- साध्य के साथ साथ साधन भी पवित्र होना चाहिए।
 
भले ही लक्ष्य आपका कितना ही पवित्र क्यों न हो, यदि उसको पाने के लिए अनुचित मार्ग का इस्तेमाल किया गया तो स्वयं अपना ही अनिष्ट होना अवश्यम्भावी है। क्षणिक सफलता उस मरीचिका की तरह है जिसको पाने की आस में यात्री खिंचा तो चला जाता है किन्तु अंत में अपने आपको ऐसी विकट स्थिति में पाता है कि जहाँ से निकलना असंभव हो जाता है।
 
इन दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने का अर्थ है जैसे अपने ही शरीर के किसी भाग की स्वयं सर्जरी करना। अमेरिका सहित महाशक्तियों ने तो यह रास्ता चुना और बिना अपने हितों को देखे इसिस की सर्जरी कर डाली। पाकिस्तान जैसे राष्ट्र को समझने में अभी शायद और समय चाहिए, किंतु बेहतर है कि वह स्वयं अपने आप अपनी सर्जरी करले अन्यथा भारत द्वारा की गई सर्जरी उसे विश्व के सामने और भी शर्मिंदा ही करेगी।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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