'सुख' शब्द सुनते ही मन एक मखमली आनंद से भर उठता है। इस जगत् में सभी सुख चाहते हैं। हममें से हर एक सुख का अभिलाषी है।
यह बात अलग है कि सभी की 'सुख' की परिभाषा पृथक- पृथक है। अन्य शब्दों में कहें तो यह कि भिन्न-भिन्न रुचि, शौक व इच्छाओं के चलते सुख का स्वरूप हर एक का अपना निजी होता है।
आवश्यक नहीं कि मेरा सुख आपके सुख जैसा हो और आपके सुख में मेरी तृप्ति बसती हो।
लेकिन यह सार्वभौमिक सत्य है कि हम सभी का सुख एक-दूसरे से जुड़ा हुआ अवश्य है --इंटरकनेक्ट-अन्तर्सम्बन्धित। इसे ऐसे समझें कि जब एक मां अपने भूखे बच्चे को दूध पिलाती है तो बच्चे का सुख उस दूध को पाने में है और मां का सुख अपने बच्चे की तृप्ति में है। इसी प्रकार संतान जब योग्य होकर माता पिता की सेवा करे, तो संतान का सुख सेवा में और अभिभावकों का सुख उस सेवा से प्राप्त हर्ष और गर्व महसूसने में निहित है।
पति की उन्नति में पत्नी का सुख,तो पत्नी की इच्छा-पूर्ति में पति का सुख बसता है।
इसी प्रकार परिवार के विस्तृत होते दायरों में एक की उपलब्धि दूसरे का सुख बनती है और एक का सुकून दूसरे के दिल का चैन होता है। मित्रों का सुख भी परस्पर संगुम्फित होता है।
तो इतना तो तय है कि हम अपने पारिवारिक और निजी दायरों में एक दूसरे के सुख में सुखी होते हैं। तो फिर क्यों ना इस सुख को और व्यापक कर लिया जाए। यदि हम इसे समाज, राष्ट्र और विश्व तक फैला दें,तो सुख मात्र हमारे घर-आंगन तक सीमित न रहकर हर राह-बाट पर खिलखिलाता नज़र आएगा।
देखिए, इतना तो हम सभी मानते हैं कि यह दुनिया ईश्वर की बनाई हुई है अर्थात् हम सब उस एक का ही निर्माण हैं और उसने हम मनुष्यों में कोई भेद न रखकर सभी के समान स्तर, अधिकार और कर्तव्य की ओर इंगित किया है। इसलिए यदि हम सुखी हों तो हमारे परिजन और उनके साथ समग्र समाज को भी सुखी होने का हक है और इसके लिए प्रयास करना भी हम सभी का नैतिक दायित्व है। वैसे भी इस कार्य के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता नहीं है।
निर्धन को शक्ति भर दान, जरूरतमंद को सहयोग का एक हाथ ,संकटग्रस्त की यथासंभव मदद, अनाथ को स्नेह का स्पर्श और अभागे को अपनी हार्दिक संवेदना देकर सुख को न सिर्फ निजत्व में बल्कि सामूहिक रूप में भी उपलब्ध किया जा सकता है। सुख की यही सामूहिकता उस आनंद का सृजन करेगी जो इस सृष्टि के निर्माण का मूल उद्देश्य है और जिसे जयशंकर प्रसाद में अपनी 'कामायनी' में बखूबी अभिव्यक्त किया है।
वस्तुतः सुख की पूर्णता ही आनंद में है और आनंद तभी अपनी समग्रता में उपजता है जब 'एक' के सुख में 'अनेक' सुख एकाकार हो जाएं।
सरल शब्दों में कहें तो यही कि तेरा-मेरा छोड़ कर यदि 'हम' का उदात्त भाव अपना लें,तो सुख का सतयुग आरंभ हो जाएगा और तभी हम उस सुख को उपलब्ध होंगे,जो शरीर से आगे बढ़कर आत्मा को सुकून देता है।