शायद! हम एक ऐसे समय में आ गए हैं,जहां मनुष्यत्व के ऊपर हर पल खतरा मंडरा रहा है। तथाकथित आधुनिक विकास की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते अब मनुष्य मनुष्य नहीं रह गया है।
अनेकानेक सामाजिक विसंगतियों एवं समस्याओं से हमारा देश एवं समाज जूझ रहा है, आज का परिवेश इतना भयावह बनता चला जा रहा है कि हमारी अस्मिता बहन-बेटियां अब सुरक्षित नहीं रह गईं हैं। बेटियों के माता-पिता, परिजन घबराए हुए हैं क्योंकि मानवता के द्रोही इंसानी वेश में चारो ओर घूम रहे हैं।
प्रत्येक व्यक्ति यह सोचता है कि हमने देश को चलाने के लिए सरकारों को चुन लिया और कानून हमारी रखवाली करेगा किन्तु वर्तमान में यदि देखा जाए तो जनमानस का सरकार एवं संवैधानिक व्यवस्थाओं से विश्वास ही खत्म होता चला जा रहा है। इसके पीछे का कारण हमारी व्यवस्था ही है जो समाज की सुरक्षा नहीं कर पाती तथा कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल व लचर है कि अपराधियों को उनके कुकृत्यों के लिए कठोर सजा नहीं दी जा रही यदि सजा भी हुई तो प्रक्रिया में लेटलतीफी अपराधियों के हौसलों को बुलंद कर रही है।
शायद! ऐसा कोई पल नहीं बीतता होगा कि जब देश के किसी न किसी कोने से बलात्कार, बर्बरता, हत्या की खबर दहला कर न रख देती हो। सरकारें, पक्ष-विपक्ष, नेता सब चिंघाड़ते हैं लेकिन इन अपराधों के समूलनाश की ओर सार्थक कदम नहीं बढ़ा पाते हैं। सत्तापक्ष-विपक्ष तू-तू मैं-मैं और अपने को पाक साफ बतलाते हुए यह सफाई देने में जुटे रहते हैं कि तेरे कार्यकाल में इतने बलात्कार हुए तो मेरे कार्यकाल में इतने।
राजनीति इतनी स्तरहीन हो चुकी है कि बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य में भी न्याय की पैरवी करने की बजाय पक्ष-विपक्ष, एजेडा, जात-पात, धर्म इत्यादि का खेल खेलने पर जुट जाते हैं। नेताओं के बयानों और उनके घड़ियाली आंसुओं को देखकर ऐसा लगता है कि इनके अंदर कहीं भी इंसानियत बची ही नहीं है। पीड़ित परिवार को राजनीति अपना निवाला बनाने पर जुट जाती है और न्याय चीत्कार करता हुआ दम तोड़ता है।
देश में बलात्कार के मामलों में भी विभिन्न फैक्टर को देखकर एजेंडा सेट करने वालों की बड़ी लम्बी फौज है जो भेड़ियों जैसे अपने खूनी मंसूबों को पूरा करने के लिए लगे रहते हैं, इनके एकपक्षीय अलापों में आखिर! कितनी क्रूरता एवं मानवीयता के विरुद्ध विष भरा हुआ है जो कि ये इस तरह के मामलों में भी अपने स्वार्थों को सिध्द करने का जरिया बना लेते हैं। असल में ये भी उतने ही बड़े बलात्कारी हैं जितने कि दरिन्दे हैं, क्योंकि ये ऐसे जघन्य कृत्यों में भी अपनी संकीर्णता के चलते एजेंडा चलाने के लिए दानव बन जाते हैं।
आखिर! हम कैसे समय में प्रवेश कर चुके हैं, जहां इन अपराधों के अपराधियों को भी किसी खास चश्मे से देखा जा रहा है? क्या हम अपने को मानव कहलाने के योग्य पाते हैं? नारी शक्ति हमारे राष्ट्र की अस्मिता है, यदि उस पर आंच भी आती है तो वह हमारी अस्मिता के विरुद्ध आंच है। लेकिन जिस तरह से राजनैतिक निकृष्टता, बौध्दिक नक्सलियों की जाहिलियत का नंगा नाच हो रहा है।
क्या वह यह बतलाने के लिए पर्याप्त नहीं है कि राजनीति दरिंदों का सुरक्षा कवच और बौध्दिक नक्सलियों की आर्थिक उन्नति का साधन बन चुकी है जिसके लिए वे किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं।
आजकल जैसी उच्छृंखलता एवं स्तरहीनता दृष्टव्य हो रही है, उससे तो यह साफ-साफ समझ आ रहा है कि इंसानियत खत्म हो चुकी है। यह उसी की परिणति है कि जिस प्रकार का वातावरण निर्मित होता चला जा रहा है, लेकिन उस पर किसी भी प्रकार का कोई भी नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। बल्कि इसी वातावरण में राजनीति; पेट्रोल डालकर विध्वंस को आमंत्रित कर रही क्योंकि "न्याय" की आड़ में सत्ता पर स्थापित होना ही अन्तिम उद्देश्य बन चुका है।
फिल्मी जगत के लोग जब बलात्कार जैसे कृत्यों पर अपने एजेंडे के अनुसार घड़ियाली आंसू बहाते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई कसाई पशुओं का वध करने के उपरांत अपनी सहानुभूति दिखलाते हुए आंसू बहा रहा हो। सरकार द्वारा स्थापित सेंसर बोर्ड केवल काली कमाई का जरिया बनकर रह चुका है, क्योंकि फिल्मों में अभिव्यक्ति के नाम पर फिल्म जगत वर्षों से अश्लीलता, फूहड़ता तथा चारित्रिक निकृष्टता का माध्यम बना हुआ है।
नारी को उपभोग की वस्तु बनाकर पेश करना, अश्लील नृत्य, अंग प्रदर्शन, नग्नता,गानों में नारी को गालियां देने का काम वर्षों से यही फिल्म जगत ही तो कर रहा है। फिर दूसरी और नारीवाद का प्रदर्शन करना एवं इन अपराधों पर सलेक्टिव विष वमन करना इनके दोहरे चरित्र का परिचायक ही है। यह स्थिति अब और ज्यादा गंभीर होती चली जा रही है, जब से वेबसीरीज के चलन हुआ है तब से अश्लीलता, फूहड़ता, गाली-गलौज, अपराध, नशे के सेवन, एजेंडापूर्ण जातीय वैमनस्य, इत्यादि को धड़ल्ले से परोसा जा रहा है। इनमें न कोई सेंशरसिप न कोई नियंत्रण।
फिल्म जगत अश्लील दृश्यों के माध्यम से केवल रुपया कमाना चाहता है, उसका समाज पर क्या घातक प्रभाव पड़ेगा उससे किसी को कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। नैतिकता तो केवल शाब्दिक परिभाषा बनकर सिमट गई है। हमारी सरकारें भी इस ओर कभी ध्यान ही नहीं देती क्योंकि वे भी कहीं न कहीं इन फिल्मी अपराधियों को अपने चुनावी लाभ के लिए उपयोग करने में जुटी रहती हैं।
सेंसर बोर्ड तो केवल और खानापूर्ति का माध्यम बनकर रह गया है। अश्लील वेबसाइटों को सरकार क्यों बन्द नहीं कर रही है? देश में चाहे फिल्मों/वेबसीरीज के माध्यम से हो याकि कोई भी माध्यम हो अश्लीलता, अंगप्रदर्शन,नारी को उपभोग की वस्तु की तरह प्रस्तुत करने वाली किसी भी सामग्री को जब तक प्रसारित एवं प्रचारित करने से रोका नहीं जाएगा तब तक समाज में विकृतियों का समूल नाश संभव नहीं है। सरकारों को हर हाल में चाहिए कि इन सभी कारकों को बन्द करें, क्योंकि समाज की नसों में जहर घोलकर अच्छे परिणामों की कल्पना कभी नहीं की जा सकती।
वहीं दूसरी ओर जब बात इन अपराधों के विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई एवं कानूनी प्रक्रियाओं की आती है, तब देश के भाग्य विधाताओं की निष्क्रियता एवं कठोर न्याय-नियमन का न होना भारत के माथे पर कलंक है।
ऐसी न्यायिक प्रक्रिया एवं दण्डविधान का क्या अर्थ है ?जब कागजी फाइलों में न्याय चीत्कार लगाता हुआ तड़पकर दम तोड़ देता हो। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते-करते जिस तरह से देश का सांस्कृतिक,चारित्रिक ताना-बाना क्षत-विक्षत हो रहा है उससे हमारी मानवीय संवेदनाओं पर कालिख पुत रही है। ऐसे मामलों में अपराधियों के विरुद्ध मामले दर्ज कर कार्यवाही करने में प्रशासन एवं न्यायिक ढाँचे की जितनी संवेदनहीनता देखने को मिलती है। वह सरकार एवं कानून के उन बड़े-बड़े महिला सुरक्षा एवं सशक्तिकरण का दावा करने एवं इसका ढोल बजाने वालों के मुंह पर करारा तमाचा है।देश के नीति नियंता,संसद एवं विधानसभाओं में विराजमान "धनप्रतिनिधि" कब जागेंगे?
कब पक्ष-विपक्ष का खेल खेलना बन्द कर इन अपराधों के समूलनाश के लिए अपने कर्तव्यों को निभाएंगे? हे! संसद के हुक्मरानों जागो और इन अपराधों के विरुद्ध कठोरतम कानूनों का निर्माण, पृथक न्यायिक प्रकोष्ठ, तीव्र जांच पूर्ण करने की व्यवस्था का निर्माण कर अल्पकाल में अपराधियों को मृत्युदंड देने तथा उसका प्रसारण करने की पध्दति लागू करवाओ जिससे अपराधियों की रुह भी कांप जाए।साथ ही ऐसा कोई भी कारक जो अश्लीलता,फूहड़ता, नारी को उपभोग की वस्तु की तरह पेश करता हो उन पर सख्त प्रतिबंध लगाने का कार्य तत्परता के साथ करें।
सरकारों के इतर यदि इन दुष्कृत्यों के खात्मे के लिए जमीनी लड़ाई नहीं लड़ी जाएगी तो अपराधियों के हौसले और बुलंद होंगे, इसलिए जनमानस को इन घटनाओं के उबाल को बनाएं रखें एवं सरकारों को जमीन पर उतरकर विवश कर दें कि वे बलात्कार जैसे कुकृत्यों के समूलनाश के लिए विस्तृत एवं व्यापक स्तर पर कानून निर्माण एवं त्वरित न्यायिक प्रक्रिया लागू करने के लिए विवश हों, क्योंकि जब तक जमीनी लड़ाई नहीं लड़ी जाएगी सत्ता अपने कानों में तेल डालकर अनसुना ही करती रहेगी।
इन सभी बातों के साथ वर्तमान में आधुनिकता की अंधी दौड़ के इतर समाज में संस्कारों नैतिक शिक्षा,चारित्रिक मूल्यों की जनजागृति लाने के बहुआयामी प्रयास करने पड़ेंगे, इसके लिए भारतीय सनातन हिन्दू धर्म दर्शन की पुरानी सीख को हमें अपने घर-परिवार से ही शुरू करनी होगी जिससे स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके। इससे देश से दुराचार एवं दुर्व्यवहार जैसी अमानवीय घटनाएं स्वमेव ही खत्म हो जाएंगी और हमारा राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक विरासत के गौरव को पुनः प्राप्त कर सकेगा।
देश व समाज में सौहार्दपूर्ण खुशहाली एवं समन्वय का माहौल निर्मित हो जिससे बहन-बेटियां स्वयं को सुरक्षित एवं सम्मानित महसूस करें जिससे देश उन्नति के कीर्तिमान स्थापित करने के साथ-साथ वैश्विक पटल पर बेदाग स्वच्छ छवि का निर्माण हो।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)