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क्या हम महिला होने से आज़ाद हो सकते हैं ?

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प्रज्ञा मिश्रा

प्रज्ञा मिश्रा
8 मार्च फिर हाजिर है और हमसे उम्मीद है कि इस इंटरनेशनल महिला दिवस पर महिलाओं के लिए उनके भले के लिए या उनके हक़ के लिए कुछ कहा जाए कुछ लिखा जाए। जिधर नज़र डालो उधर इस दिन की धूम है। दुनिया जहान की उन महिलाओं के नाम फिर सामने आ रहे हैं जिन्होंने पुरूषों के इस समाज में अपनी एक जगह बनाई है। वो लेडी गागा हों या एंजेलिना जोली या मेनका गांधी या दीपा मेहता या अंजलि इला मेनन या शोभा डे  .... 
 
इनके साहस और हिम्मत की दाद दी जाएगी और फिर उम्मीद भी की जाएगी कि दुनिया की सारी महिलाओं (उम्र का ही फर्क है वर्ना इसमें लडकियां भी शामिल हैं) को इन उपलब्धियों को सुन कर ख़ुशी ही होना चाहिए और तो और इन सारे ढोंग और दिखावों में महिला संगठन ही सबसे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। 
 
यह महिला दिवस की शुरुआत न्यूयॉर्क में फैक्ट्री में काम करने वाली महिलाओं की हड़ताल को ख़तम करने से लेकर जो शुरू हुई तो इसका रूप बदलते-बदलते यहां तक पहुंच गया है कि यह भी वैलेंटाइन डे की तरह मनाया जाने लगा है।  कार्ड छपने लगे हैं और तो और राह चलते लोग महिला /लड़की को देख बधाई देने लगे हैं लेकिन क्या सिर्फ यही वजह है इस दिन को मनाने की ? 
 
क्या हमें अपने आप का इस तरह से समारोह करने की जरूरत है? क्या एक महिला होने को या उसके अधिकारों के लिए एक दिन ही काफी है? क्या यह बात रोज़ाना की जिंदगी में नहीं होना चाहिए? आखिर क्यों किसी महिला/लड़की को यह याद दिलाने की जरूरत पड़ती है कि वाह तुम्हारे अंदर कितनी ताकत है। तुम भी सबके बराबर हो। तुम्हारे अंदर भी प्रतिभा है और तुम भी कुछ कर सकती हो। 
 
क्या यह सभी बातें इंसान के जन्म से ही उसे दिखाई और समझाई नहीं जानी चाहिए ताकि बड़े और समझदार होने पर वो दूसरे इंसानों से बराबरी का बर्ताव कर सके ??? 
 
नहीं चाहिए हमें यह एक दिन का एहसान। यह दिखावा ज्यादा तकलीफ देता है बजाय साल भर के उस दोयम दर्जे के जीवन से..... अगर कुछ बदलना ही है तो वह भेदभाव बंद होना चाहिए जो यह दिन मनाने के लिए कारण है क्योंकि इस महिला दिवस समारोह से ही मुक्ति की जरूरत है लेकिन सही मायनों में क्या कभी कोई महिला होने से आज़ाद हो सकता है ???? 

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