इस समय सोशल मीडिया पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का एक ट्वीट वायरल है। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर के नाम से कुछ पंक्तियां लिखी हुईं हैं। 'मैं सारी जिंदगी अंग्रेजों की गुलामी करने के लिए तैयार हूं लेकिन जो दलित, पिछड़ों और मुसलमानों को बराबरी का अधिकार देती हो ऐसी आजादी मुझे नहीं चाहिए।' इसमें कहा गया है कि गुरु गोलवलकर ने 1940 में यह बात कही थी।
इसी तरह एक पंक्ति और है- 'जब भी सत्ता हाथ लगे तो सबसे पहले सरकार की धन संपत्ति, राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने दो-तीन विश्वसनीय धनी लोगों को सौंप दें, 95 प्रतिशत जनता को भिखारी बना दें, उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी।' यह भी कहा गया है कि गुरु गोलवलकर की पुस्तक वी एंड आवर नेशनहुड आईडेंटिफाइड में ये पंक्तियां लिखी हुई है। वैसे उस पुस्तक का नाम वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड है, आईडेंटिफाइड नहीं।
सार्वजनिक जीवन में किसी संगठन से या दो संगठनों व व्यक्तियों के बीच वैचारिक मतभेद, असहमति बिलकुल स्वाभाविक है। एक लोकतांत्रिक, खुले और उन्नत समाज का यही लक्षण है। किंतु मतभेद या असहमति तो उसी पर होगी जो वास्तविक रूप में है। जो है ही नहीं उसे किसी व्यक्ति का कथन बताना क्या माना जाना चाहिए? दिग्विजय सिंह बंच ऑफ थॉट की बात करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से दिग्विजय सिंह या किसी का भी मतभेद अस्वाभाविक नहीं है।
किसी को इस संगठन का विरोध करने का पूरा अधिकार है। किंतु जिन पंक्तियों को उनके नाम से उद्धृत किया गया है, वैसा गुरु गोलवलकर ने कभी कहा ही नहीं। बंच ऑफ थॉट या हिंदी में विचार नवनीत गुरु गोलवलकर के सारे भाषणों या वक्तव्यों का संक्षिप्त रूप है। आपको यह आसानी से मिल जाएगा। आप स्वयं उस पुस्तक को पढ़िए और उसमें इन पंक्तियों की तलाश करिए। आपको कहीं नहीं मिलेगा क्योंकि ये गुरु गोलवलकर के विचारों के बिल्कुल विपरीत हैं।
वी आवर नेशनहुड डिफाइंड पुस्तक की बार-बार चर्चा होती है। वैसे गुरु गोलवलकर ने वह पुस्तक बाद में वापस भी ले ली थी, लेकिन उनमें भी ये पंक्तियां नहीं थी। राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने दो-तीन विश्वसनीय धनी लोगों को अधिकार देकर, 95 प्रतिशत लोगों को भिखारी बना देने की बातें तो कोई पागल, सिरफिरा या उन्मादी व्यक्ति ही कर सकता है। किसी भी संगठन के बारे में बनी-बनाई धारणा से बाहर निकल कर उसकी सच्चाई को उसके अनुसार देखने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार की उन्मादी और पागलपन वाली विचारधारा का संगठन 100 वर्षों तक लगातार अपनी शक्ति बढ़ाते हुए केवल भारत में ही दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में सक्रिय नहीं रह सकता। विरोधियों की आलोचनाओं के बावजूद संघ लगातार इसी कारण बढ़ता है, क्योंकि जो आरोप होते हैं वह बिल्कुल तथ्यों से परे और झूठ।
गुरु गोलवलकर ने अपने जीवन काल में संघ के कई अनुषांगिक संगठनों को जन्म दिया जिनमें विश्व हिंदू परिषद तथा वनवासी कल्याण केंद्र है। एक बड़ा वर्ग तो इन संगठनों को भी हमेशा आरोपित करता रहा है। इन दोनों का उद्देश्य क्या था? विश्व हिंदू परिषद के उद्देश्यों में जाति भेद के विरुद्ध संपूर्ण हिंदू समाज को जागृत कर उन्हें साथ लाना यानी समरस समाज का निर्माण शामिल है।
गुरु गोलवलकर के मार्गदर्शन में ही विहिप ने देश के धर्माचार्यों को एक समय अस्पृश्य माने जाने वाले समुदायों की बस्तियों में ले जाने, उनके साथ भोजन कराने के अनेक कार्यक्रम किए और आज भी कर रहा है। संघ के स्वयंसेवकों को भी लगातार आप ऐसी बस्तियों में जाते, उनके साथ काम करते देख सकते हैं। संघ की शाखाओं और कार्यक्रमों का अवलोकन करने के बाद विरोधियों ने भी माना कि यहां जाति भेद का अवशेष नहीं दिखता।
इसी तरह वनवासी कल्याण केंद्र, जिन्हें हम आदिवासी कहते हैं, उनके बीच काम करते हुए उनको शिक्षित करने से लेकर समाज की मुख्यधारा में लाने तथा यहां तक कि यथासंभव उनके जीविकोपार्जन के लिए अपनी सीमाओं में जितना संभव है लगातार करता आ रहा है। सच यह है कि इसके अलावा भारत में किसी संगठन ने आदिवासियों के बीच उन्हें हिंदू समाज के साथ एकाकार करने के लिए काम किया ही नहीं है।
ईसाई मिशनरियों ने अवश्य काम किया किंतु उनका लक्ष्य आदिवासियों का धर्मांतरण रहा है। दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के हैं। वहां आदिवासियों के बीच वनवासी कल्याण केंद्र व एकल विश्वविद्यालय ने कितनी बड़ी भूमिका अदा की है इसका उन्हें पता है, क्योंकि वो मुख्यमंत्री रहे हैं। गुरु गोलवलकर के 1940 से 1973 तक के कार्यकाल में दिए गए सारे भाषणों और वक्तव्य को देख लीजिए उनमें हिंदू समाज में जाति भेद जैसी कुरीतियों को खत्म करने के लिए स्वयंसेवक काम करें, इसके लाखों उद्धरण मिलेंगे। इनकी संख्या इतनी ज्यादा है कि इन्हें यहां उद्धृत करने की आवश्यकता भी नहीं। अस्पृश्य माने जाने वाली जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए गुरु गोलवलकर के जीवन काल में लगातार कार्यक्रम हुए। मैंने संघ का एक नारा सुना है- हिंदव: सोदरा सर्वे न हिंदू्र्पतितो भवेत्। यानी सभी हिंदू सहोदर भाई हैं इनमें कोई हिंदू पतित या अछूत नहीं हो सकता। उस काल में अनेक ऐसे गीत संघ के स्वयंसेवकों के लिए लिखे गए और आज तक गाए जाते हैं जो छुआछूत, जाति भेद, ऊंच-नीच को दूर कर सबको समान मानने का व्यवहार पैदा करता है।
जिस पुस्तक की चर्चा दिग्विजय सिंह करते हैं उसी के अनेक पन्नों पर गुरु गोलवलकर की संपत्ति के बारे में मत अंकित है। वे बार-बार हिंदू धर्म ग्रंथों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि जो कुछ भी धन संपदा हमारे लिए उपलब्ध है हम उसके न्यूनतम उपभोग करने के अधिकारी हैं। राजकीय सत्ता को लेकर तो वे अपने संगठन में वितृष्णा पैदा करते हैं। गुरु गोलवलकर के हजारों उद्धरण हैं जिनमें वे केवल सत्ता के माध्यम से समाज और राष्ट्र को संचालित करने के विरुद्ध आगाह करते हैं। समाज के प्रकाश से सत्ता संचालित हो, न कि सत्ता से समाज- जैसे सिद्धांत को वे अलग-अलग तरीके से लगातार अपने जीवन काल में समझाते रहे हैं। वे राजनीति की भूमिका अत्यंत सीमित बताते हैं।
एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि जिस प्रकार हम आप किसी भवन के निर्माण में शौचालय बनाते हैं वही स्थान राजनीति का है। यानी जिसकी अपरिहार्यता तो है किंतु वह सर्वस्व नहीं है। राजनीति और सत्ता के प्रति उनकी इस सोच का ही परिणाम था कि गांधीजी की हत्या के आरोप से बरी होने और प्रतिबंध हटने के बाद अनेक लोगों के प्रयत्न के बावजूद जल्दी वे राजनीतिक दल के निर्माण के लिए तैयार नहीं हुए। इनमें काफी लंबा समय लगा। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनसे कई मुलाकातें करनी पड़ी। तब भी वे उस समय अपनी ओर से कुछ कार्यकर्ता देने को ही तैयार हुए।
गुरु गोलवलकर जब सत्ता और राजनीति को राष्ट्र और समाज की प्रगति का एकमात्र साधन नहीं मानते वो सत्ता पर वर्षों नियंत्रण बनाए रखने की बात करेंगे यह सोचा भी नहीं जा सकता। वो कहते हैं कि समाज की दिशा से सत्ता संचालित होनी चाहिए तो सत्ता को इतना महत्व देंगे ऐसे प्रचार वालों की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है? जो व्यक्ति संपदा पर सबके अधिकार को भारतीय संस्कृति का मूल तत्व मानता हो वह कुछ हाथों में सारी संपत्ति समिटाने का सिद्धांत देगा इससे बड़ा मजाक और कुछ नहीं हो सकता। ऐसा करने वाले राजनीतिक हित के लिए कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं यह शायद उन्हें पता नहीं हो लेकिन देश अवश्य पहचानेगा।
वास्तविक फासिस्ट प्रवृत्ति यही है जो दुर्भाग्य से हमारी राजनीति से लेकर एक्टिविज्म, एनजीओ, मीडिया सबमें घातक रूप में प्रवेश कर गया है। इसी कारण दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेता के द्वारा ऐसा ट्वीट जाता है एवं हजारों लोग उसे रीट्वीट कर फैलाने में लग जाते हैं। देश के हित में यही है कि बात तथ्यों पर हो न कि झूठ फैला कर लोगों को भ्रमित करने का अपराध किया जाए। उम्मीद करनी चाहिए कि हमारे देश के नेता, एक्टिविस्ट, एनजीओ, मीडिया के बड़े नाम अपने मतभेदों, विरोधों और असहमतियों को तथ्य और सत्य तक सीमित रखकर देश में सकारात्मक-सार्थक संवाद व विमर्श का माहौल बनाने की कोशिश करेंगे।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)