जिसने अपने पढ़ने की शुरुआत निर्मल वर्मा की किताबों से की हो, उसके लिए भीतर का और बाहर दोनों जगह का संसार खुल जाता है. निर्मल भीतर ले जाते हैं, लेकिन अपने रेफरेंस (संदर्भ) में बाहर की दुनिया का दरवाज़ा भी खोल देते हैं-- जब हम उस दरवाज़े से बाहर निकलते हैं तो वहां मिलान कुंदेरा, कारेल चापेक, यान ओत्वेनाशेक जैसे लेखक मिलते हैं, चेक साहित्य को रचते और समृद्ध करते हुए. वहीं, अल्बैयर कामू भी हैं. और फ्रांज काफ्का तक भी रास्ता जाता है.
मैं ख़ुद को उन कुछ सुखी लोगों में शामिल कर सकता हूं जो निर्मल के सहारे विश्व साहित्य (विशेष रूप से चेक साहित्य) की कुछ थोड़ी- बहुत तफ़री कर लेते हैं. इसी चहल-कदमी में मिलान कुंदेरा जैसे लेखक नसीब हो जाते हैं और उनकी The Unbearable Lightness of Being भी. अभी बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा है, लेकिन निर्मल जी के संदर्भ पर प्राण भी दिए जा सकते हैं. यह महसूस होने लगा है कि निर्मल वर्मा का लेखन और उनके संदर्भ हमारे इस एक जीवन के लिए पर्याप्त हैं.
एक जीवन में एक लेखक काफ़ी होता है- और अगर हम ईमानदारी से अपने पुरखे लेखकों को पढ़ने लगें तो क़िताब के लिए कभी किसी की सलाह की जरूरत न पड़े. हम जान जाते हैं की हमे अपने जीवन में क्या चाहिए. बहुत ईमानदारी से कहता हूं कि मैंने अब तक वो क़िताब नहीं खरीदी जिसे किसी दूसरे मुझे सुझाई होगी. मैं ख़ुद ही चुनता हूं और खुद ही ख़ारिज भी करता हूं.
अब तक मैं इतना सुखी हो चुका हूं कि दुनिया के सबसे ज़रूरी लेखक, किताबें और सबसे अच्छी धुनें मेरे पास चले आते हैं. कलाएं अपने मनुष्यों (कद्रदानों) को ख़ुद चुन लेती हैं. किताबें और संगीत भी. लोग भी और प्यार भी.
बहरहाल, यह एक अलग दिलचस्प बात हो सकती है, अगर हम इसे दिलचस्प माने तो. निर्मल जी का जन्म 3 अप्रैल 1929 को हुआ था और इसके ठीक दो दिन पहले 1 अप्रैल 1929 को मिलान कुंदेरा का. दोनों में समानताएं भी हैं, दोनों बहुत प्राइवेट थे. दोनों ने शायद ही कोई साक्षात्कार दिया हो. कुछेक बातचीत अगर होगी भी तो सिर्फ लेखन के बारे में होगी. मिलान कुंदेरा ने तो कहा भी है-- 'जो मनुष्य अपनी गोपनीयता खो देता है, वो सबकुछ खो देता है'
यह प्राइवेसी गुण है, जाहिर हो जाना खो जाना है. जेहनी तौर पर नष्ट हो जाना है. इसलिए लेखकों को ज्यादा नज़र नहीं आना चाहिए. दिखना कम, और लिखना ज्यादा चाहिए और पढ़ना उससे भी ज्यादा. हालांकि यह एक बहुत आधारभूत बात है.
एक दूसरी बात जो मैं जान पाया हूं वो यह है की लेखक सिर्फ अपनी बात/अपने बारे में कहता है, (जब वो लिखता है) और लोग उसके लेखन को अपनी बात समझते हैं. लेखक की कहानी सबकी कहानी होती है या हो सकती है, अगर वो सच में लिखने के कर्म में आस्था रखता है. शायद इसीलिए मिलान कुंदेरा ने यह भी कहा था-- 'क्या यह सच नहीं है कि लेखक केवल अपने बारे में लिखता है?
बहरहाल, अलविदा मिलान कुंदेरा, बावजूद इसके कि अलविदा हकीकत में कुछ होता नहीं.