जब हम घूंघट, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा और बुर्का या, हिजाब या, नकाब या फलां या फलां या फलां के समर्थन की बात करते हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ होता है हम अब तक चले आ रहे सभी तरह के सोशल रिफॉर्म को सिरे से खारिज कर रहे हैं।
इसमें हम फिर चाहे जो तर्क दे लें, उसका सीधा यही अर्थ होता है कि हम किसी तरह का सोशल रिफॉर्म नहीं चाहते।
किसी भी सोशल रिफॉर्म को एक्जिक्यूट करना सुविधाजनक नहीं होता, ये आपकी सहूलियत के लिए नहीं होता। जाहिर है, सदियों से चली आ रही गुलामी, मानसिक जड़ता को त्यागने में कुछ असहजता तो होगी ही। जंग साफ करने के लिए लोहे को घिसना ही पड़ता है।
अब इसमें आपको तकलीफ हो, दर्द हो या आप इसे अपनी परंपरा के विरुद्ध मान लें, धार्मिक मान्यताओं से जोड़ लें या कोई भी तर्क दें, इन यत्नों से कुरीतियों को पसरने की स्वीकृति नहीं मिल जाती। वो कुरीतियां हैं तो हैं।
अगर हिजाब और बुर्का आपकी धार्मिक प्रतिबद्धता है तो फिर आपको तीन तलाक से भी परेशान नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसका पालन करना भी आपके ही लोगों ने सिखाया है।
धार्मिक कुरीतियों को तो जितना जल्दी हो सके त्यागने के यत्न करना चाहिए, यहां तो फिर उस बुर्के और हिजाब की बात है, जो प्रेक्टिकली सहूलियतभरे भी नहीं हैं।
फर्ज कीजिए, अगर कोई मुस्लिम बालिका खेल के क्षेत्र में अपना भविष्य बनाना चाह रही है तो क्या उसके लिए ये सुविधाजनक परिधान होगा। अगर ये धार्मिक परिधान उसकी डिग्निटी से जुड़ा मसला है, उसके जीवन का हिस्सा है तो इसका मतलब है कि मुस्लिम युवतियों ने फिल्म, मॉडलिंग और खेल के क्षेत्र में नहीं जाने की एक तरह से सार्वजनिक घोषणा कर दी है।
अगर नहीं, तो क्या टेनिस स्टार सानिया मिर्जा गैर-इस्लामिक हैं और उनकी कोई डिग्निटी नहीं है।
ऐसा नहीं लगता कि मुस्लिम महिलाएं जाने-अनजाने मुस्लिम मर्दों की नीयत का शिकार हो रही हैं। चाहे जानकर या अनजाने में, दोनों में ही स्थिति में उनकी हानि है।
40 के दशक में लिखी अपनी किताब पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन में डॉ भीमराव अंबेडर ने लिखा था, पर्दा प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाएं अन्य जातियों की महिलाओं से पिछड़ जाती हैं। वो किसी भी तरह की बाहरी गतिविधियों में भाग नहीं ले पातीं हैं, जिसके चलते उनमें एक प्रकार की दासता और हीनता की मनोवृत्ति बनी रहती है। उनमें ज्ञान प्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहती, क्योंकि उन्हें यही सिखाया जाता है कि वो घर की चारदीवारी के बाहर वे अन्य किसी बात में रुचि न लें
ये 40 के दशक की बात है, अब तो जब फ्रांस, नीदरलैंड्स, इटली, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे और भी दुनिया के देशों में चेहरा ढंकने पर प्रतिबंध है तो क्या भारत की मुस्लिम महिलाओं और बालिकाओं को इसे अपने लिए किसी अवसर के तौर पर नहीं देखना चाहिए?
क्या कोई समाज अपनी आइडेंटिटी सिर्फ अपने धार्मिक प्रतीकों के आधार पर ही स्थापित कर सकता है। उसके पास कोई दूसरा जरिया नहीं है, क्या मुस्लिम बालिकाएं यही चाहती हैं कि उन्हें सिर्फ एक हिजाब से ही पहचाना जाए, एक डॉक्टर या साइंटिस्ट और एक इन्डिविज्युअल शख्सियत के तौर पर नहीं पहचाना जाए?
एक वक्त में हिंदू स्त्रियों के लिए घूंघट अभिशाप रहा है, लेकिन इसे कुरीति के तौर पर देखा गया और धीमे- धीमे यह हुआ कि हिंदू महिलाओं ने स्वेच्छा से इसे हटाकर फेंक दिया।
हिंदू समाज में स्त्रियों का ऐसा वर्ग भी है जो साड़ी को नियमित परिधान के तौर पर इस्तेमाल नहीं करता, नियमित तौर पर अब वे सलवार कुर्ती पहनती हैं, क्योंकि साड़ी में भी पेट और पीठ जाहिर होते हैं, इसलिए उन्होंने गरिमामय परिधान चुने, लेकिन दूसरी तरफ उन्होंने घूंघट को भी त्यागा।
मेरी स्मृति में बहुत अच्छे से ये बात है कि महिलाएं जितना लंबा घूंघट करती थीं, मर्द उन्हें उतनी तीखी नजरों से देखने के यत्न करते थे।
उनके लिए स्त्री का चेहरा चमत्कार था, एक ऐसा रहस्य था, जिसे वे अनावृत करना चाहते थे, लेकिन अब मर्दों के लिए स्त्री का चेहरा कोई चमत्कार नहीं है। वो उसे बेहद सामान्य दृष्टि से देखते हैं। इसलिए इस नए दौर में एक स्त्री को कोई चमत्कार नहीं होना चाहिए, जिसे सब आजमाना चाहे, देखना चाहे, उसे बस एक स्त्री होना चाहिए, अपनी तय गरिमा के साथ। एक सहज समाज में सहज स्त्री।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)