विपक्षी दलों की पटना बैठक खत्म होने को बाद राजनीति में अभिरुचि रखने वाले सभी का ध्यान बेंगलुरु बैठक की ओर था। हालांकि तब यह अनुमान नहीं था कि भाजपा भी एनडीए यानी राजग की बैठक उसी दिन आयोजित कर देगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीति का अपना तरीका है। विपक्ष की कवायद के परिणामों की प्रतीक्षा करने की जगह उसके समानांतर ऐसे आयोजन कर सीधा सामना किया जाए।
पटना बैठक में भाजपा केवल विपक्ष की आलोचना तक सीमित थी और अपनी ओर से क्या करने जा रहे हैं यह बात सामने नहीं रख पाई थी। बेंगलुरु के समानांतर राजधानी दिल्ली की बैठक के पहले और बाद भाजपा के पास दोनों स्तर पर प्रतिउत्तर और प्रत्याक्रमण था। एक ओर विपक्ष की आलोचना तथा दूसरी ओर उनके समानांतर ज्यादा दलों और इन सबके बीच पूर्ण एकजुटता का संदेश। विपक्ष ने 26 दलों का जमावड़ा किया तो भाजपा ने प्रत्युत्तर में 38 दलों को इकट्ठा कर यह संदेश दिया कि अभी भी देश में ज्यादा दल उनके साथ हैं। यह बात ठीक है कि इनमें से अनेक दलों की हैसियत बड़ी नहीं है तथा संसद में उनके प्रतिनिधि भी नहीं। किंतु यही स्थिति दूसरी और भी है।
विपक्ष द्वारा बेंगलुरु से अपने गठजोड़ का इंडिया नाम देना सामान्य तौर पर गले उतरने वाला नहीं था। भाजपा एवं मोदी विरोधियों ने तर्क दिया कि अब भाजपा के पास न इंडिया बोलने के लिए रहेगा और न इसके नाम पर राष्ट्रवाद का भाव उभार पाएंगे। कोई व्यक्ति अपना नाम भारत, इंडिया, हिंदुस्तान या कुछ भी रख सकता है। राजनीतिक दल या दलों का कोई गठजोड़ जिसके स्थाई और स्थिर होने की संभावना नहीं हो सकती वह स्वयं को इंडिया कहे यह सहसा स्वीकार्य नहीं हो सकता। क्या इस नाम पर तालियां पीटने वालों ने सोचा कि लोकसभा चुनाव में यदि गठबंधन हारा तो क्या कहा जाएगा कि इंडिया हार गई या इंडिया पीछे रह गई या एनडीए ने इंडिया को पछाड़ दिया। इसी कारण विपक्ष के अंदर भी कई नेताओं का इसे लेकर मतभेद था।
वैसे नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के अध्यक्ष ललन सिंह ने बयान दे दिया है कि नाम को लेकर कोई मतभेद नहीं था किंतु जो सूचनाएं हैं नीतीश इस नाम से आरंभ में सहमत नहीं थे। कुछ लोग यह मान रहे थे कि इंडिया में भी एनडीए है। आरंभ में इसका नाम था इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंक्लूसिव अलायंस। बाद में इंडिया के नेशनल डेमोक्रेटिक का ध्यान रखते हुए डी से डेवलपमेंटल कर दिया गया। इसका मतलब यह है कि बैठक के पूर्व गठबंधन के नाम को लेकर सभी के बीच चर्चा नहीं हुई थी। विरोधी सोशल मीडिया पर इंडिया बनाम भारत की लड़ाई बताकर प्रचारित कर रहे हैं। हम इंडिया भारत में नहीं पढ़ना चाहेंगे। निस्संदेह ,इंडिया अंग्रेजों का दिया नाम है और यह भारत का पर्याय किसी तरह नहीं हो सकता।बावजूद हर पार्टी और सरकार इंडिया शब्द का प्रयोग करती है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंडिया फर्स्ट शब्द प्रयोग करते रहे हैं।
यह बात अलग है कि इस तरफ के इंडिया की वह सोच नहीं हो सकती जो अंग्रेजों या वामपंथी एवं लिबरल विचारधारा मानने वालों का होता है। भारत में अभी भी ऐसे लोग हैं जो इंडिया नाम को उपयुक्त मानते हैं तथा राष्ट्र के रूप में अपनी शुरुआत 15 अगस्त, 1947 से ही स्वीकार करते हैं। चूंकी 27 राजनीतिक दलों में ऐसे लोग हैं तथा इनके पीछे सक्रिय रहने वाले बुद्धिजीवी, पत्रकार, एनजीओ, एक्टिविस्ट, बड़ी-बड़ी संस्थाएं, सेफोलॉजिस्ट आदि इस विचारधारा के पोषक हैं। इसका ध्यान रखें तो इंडिया नाम में हैरत का कारण नहीं दिखेगा।
बावजूद यह कहना होगा कि इंडिया की जगह कुछ और नाम देना चाहिए था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनडीए का भावार्थ अपने दृष्टि से समझाया पर नाम पुराना ही रहेगा। प्रश्न है कि इन बैठकों से 2024 लोक सभा चुनाव की तस्वीर कैसी नजर आती है ? यह सही है कि 2019 से थोड़ा अलग राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का एक गठबंधन हो गया है, इनकी दो बैठकें हुई और आगे भी बैठकें होते रहने की संभावना है। यही नहीं संयोजक से लेकर समन्वय व संचालन समिति एवं अलग-अलग विषयों के लिए भी समिति के गठन की घोषणा कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बेंगलुरु में की। इन पर आरंभिक टिप्पणी तभी की जाएगी जब समितियों की भूमिका और उनमें शामिल नामों की घोषणा होगी। पर इतने लंबे समय से भाजपा विरोधी मोर्चाबंदी की कवायद तथा दो बड़ी बैठकों के बाद एक संयोजक पर सहमति न बनना क्या बताता है?
यहां तक कि समन्वय या संचालन समिति के सदस्यों के नामों का भी एलान संभव नहीं हुआ। इससे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी, भाजपा तथा संघ के विरोध करने में एकजुटता हो लेकिन न एक दूसरे के प्रति पूर्ण आपसी विश्वास पैदा हुआ न सम्मान भाव और न मिलजुल कर एक रणनीति के साथ चुनाव लड़ने की मानसिकता पैदा हुई। अंतिम प्रेस वार्ता में विपक्षी मोर्चाबंदी के लिए सबसे ज्यादा कोशिश करने वाले नीतीश कुमार का अनुपस्थित होना ही कई प्रश्न खड़ा करता है। उनके साथ लालू प्रसाद यादव एवं सोनिया गांधी तक नहीं थे। हालांकि इनलोगों ने हवाई जहाज के समय की बात कही है। जानते हैं कि ऐसी बैठकों के लिए कर्नाटक में कांग्रेस की हैसियत चार्टर प्लेन से गंतव्य तक पहुंचा देने की है।
दूसरी ओर राजधानी दिल्ली में आयोजित एनडीए की बैठक को देखिए। इस बात पर बहस हो सकती है कि विपक्ष के समानांतर भाजपा को गठबंधन के लिए इस तरह आगे आना चाहिए या नहीं चाहिए। कारण, बहुमतविहीन के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकारों के दौरान कायम अनिश्चितता और अस्थिरता, नीतियों को लेकर ठहराव आदि के विरुद्ध लोगों ने केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को बहुमत प्रदान किया। देश कभी नहीं चाहेगा कि यह स्थिति बदले। बावजूद अगर विपक्ष मोर्चाबंदी कर रहा है तो अपने साथ आने वाले संभावित दलों को छोड़कर उनके साथ जाने का अवसर देना वास्तव में विरोधियों को शक्तिशाली बनाना ही होता। इस नाते भाजपा की रणनीति समझ में आती है। तो भाजपा ने अपनी इस रणनीति से अब विपक्षी गठबंधन के विस्तार की संभावनाएं खत्म कर दी है।
दोनों बैठकों की तुलना करिए तो एनडीए में प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में सरकार, पार्टी और गठबंधन का पूरा लक्ष्य सामने रखा। इसमें सामाजिक न्याय से लेकर गरीबों की भलाई, महिलाओं के सम्मान और उत्थान आदि पर किए जा रहे कार्यक्रमों एवं भविष्य के सपने की रूपरेखा थी। रक्षा एवं विदेश नीति के स्तर पर स्पष्ट दिशा के साथ यह विश्वास भाव था कि उस पर ठीक काम हुआ है एवं भारत की प्रतिष्ठा दुनिया भर में बढ़ी है। दूसरी ओर विपक्ष में केवल घोषणाएं तथा भाजपा व संघ की आलोचना व सत्ता से हटाने की बात।
अगर आप निष्पक्ष होकर विचार करेंगे तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि विपक्षी मोर्चाबंदी से नकारात्मक ध्वनि ज्यादा रही जबकि राजग से सकारात्मक। कम से कम नेताओं को देश, विकास, नीतियों आदि के संदर्भ में मोटा-मोटी रूपरेखा रखनी चाहिए थी। विपक्ष कहता है कि उसका विरोध व्यक्ति से नहीं विचारों और मुद्दों से है तो उसे अपने विचार और मुद्दे सामने रखने चाहिए। अगर इसके लिए इतना समय लगेगा कि कुछ लोगों की समिति बनेगी और वह इसकी रूपरेखा बनाएंगे तो लोग इसका अर्थ यही लगाएंगे कि आपके पास विजन नहीं है। यानी केवल विरोध के लिए विरोध। किसी गठबंधन का आधार तो मुद्दे और विचारधारा ही होना चाहिए। केवल यह कहना कि लोकतंत्र सेकुलरिज्म बचाने के लिए हम इकट्ठे हो रहे हैं लोगों को आपसे सहमत नहीं करा पाएगा।
वैसे नेताओं के इकट्ठे बैठने का अर्थ यह भी नहीं लगाया जा सकता कि राज्यों में सबके बीच सीटों का ऐसा समझौता हो जाएगा जिसमें भाजपा के विरुद्ध हर सीट पर विपक्ष का एक संयुक्त उम्मीदवार होगा। माकपा के सीताराम येचुरी ने तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ लड़ाई जारी रहने की घोषणा कर दी। महाराष्ट्र में पहले ही विपक्षी मोर्चाबंदी के सबसे वरिष्ठ नेता शरद पवार की पार्टी का बहुमत ही उन्हें छोड़कर इंडिया में चला गया। तेलंगाना में सत्तारूढ़ बीआरएस, आंध्र में सत्तारूढ़ वाईएसआरसीपी तथा विपक्षी तेलुगू देशम एवं उड़ीसा में नवीन पटनायक का बीजद दोनों गठजोड़ो से अलग है।
बसपा ने अलग राह चलने की घोषणा बैठकों के दूसरे दिन ही कर दी। वस्तुतः अपनी -अपनी राजनीति के कारण मोदी और भाजपा विरोधी विपक्षी एकता की बात अवश्य हो, भारतीय राजनीति की ऐसी स्थिति नहीं कि सारा विपक्ष एक होकर सरकार के विरुद्ध खड़ा हो जाए। सबकी अपनी विचारधारा, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तथा अलग-अलग राज्यों में राजनीतिक हित हैं। इस कारण आसानी से किसी एक व्यक्ति को ये अपना नेता मान भी नहीं सकते। कम से कम इतना तो मानना पड़ेगा कि एनडीए के बीच नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर मतभेद नहीं है। दूसरे, अभी तक किसी दल ने भी ऐसी बात नहीं की है जिससे लगे इनके बीच 2024 को लेकर तत्काल किसी बिंदु पर असहमति है। इस दृष्टि से देखें तो कहना होगा एनडीए की शुरुआत विपक्ष से ज्यादा प्रभावी है।