Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

23 की हिंसा 24 में कितना बड़ा रिकॉर्ड क़ायम करेगी?

हमें फॉलो करें 23 की हिंसा 24 में कितना बड़ा रिकॉर्ड क़ायम करेगी?

श्रवण गर्ग

violence in film in 2023: बीते साल को किस एक ख़ास बात के लिए याद रखा जाना चाहिए? राजनीतिक चेतना के प्रति जानबूझकर उदासीन होते जा रहे मीडिया ने एक ख़ास ख़बर के तौर पर सूचित किया है कि 2023 का साल बॉलीवुड के लिए ज़बरदस्त तरीक़े से भाग्यशाली साबित हुआ है! एक के बाद एक फ़िल्म ने धुआंधार कमाई के रिकॉर्ड क़ायम किए हैं!

बॉक्स ऑफिस के इतिहास में पहली बार फ़िल्म उद्योग ने किसी एक साल में 11 हज़ार करोड़ से ज़्यादा की कमाई की है। इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि हिंसा के दृश्यों से भरपूर फ़िल्मों को सबसे ज़्यादा पसंद किया गया है! उपसंहार यह कि 2023 को देश में हिंसा के प्रति बढ़ती मोहब्बत के लिए याद किया जा सकता है। फ़िल्म उद्योग को इसके लिए असली ‘आभार’ किसका मानना चाहिए?
 
राज्यसभा में पिछले दिनों चर्चा के दौरान कांग्रेस की एक सदस्य रंजीत रंजन ने अत्यंत भावुक होते हुए कहा था': आजकल कुछ अलग तरह की फ़िल्में आ रहीं हैं। 'कबीर सिंह’ हो या ‘पुष्पा’ हो! एक ‘एनिमल’ पिक्चर चल रही है। मैं आपको बता नहीं सकती…….मेरी बेटी के साथ बहुत सारी बच्चियां थीं जो कॉलेज में पढ़ती हैं। …आधी पिक्चर में उठाकर रोते हुए चली गईं। इतनी हिंसा है उसमें। महिलाओं के प्रति असम्मान को फ़िल्मों के ज़रिए सही ठहराया जा रहा है। …हिंसा के ज़रिए हीरो को ग़लत और नकारात्मक तरीक़े से पेश किया जा रहा है। 11वीं और 12वीं के बच्चे उन्हें अपना आदर्श मानने लगे हैं!’
 
महिला सांसद ने आगे जो बात कही या सवाल किया वह ज़्यादा महत्व का है। सांसद ने कहा : यही कारण है इस तरह की हिंसा आज समाज में देखने को मिलती है। उन्होंने सवाल यह किया कि : सेंसर बोर्ड ऐसी फ़िल्मों को कैसे बढ़ावा दे सकता है? किस तरह ऐसी फ़िल्में (सेंसर बोर्ड से) पास हो कर आ रही हैं, जो समाज के लिए बीमारी हैं?
 
सांसद द्वारा किए गए सवाल में ही जवाब भी तलाश किया जा सकता है कि जब सरकार को ही फ़िल्मों में दिखाई जा रही हिंसा से कोई शिकायत नहीं है तो सेंसर बोर्ड को आपत्ति क्यों होना चाहिए! इसे इस तरह भी पेश किया जा सकता है कि बॉक्स ऑफिस पर फ़िल्मों के लगातार फ्लॉप होने के संताप से जूझ रहे फ़िल्म उद्योग को सत्ता की राजनीति ने सफलता का गुर सिखा दिया है। 
 
जो लोग हुकूमत में हैं वे समाज में बढ़ती हिंसा को लेकर किसी भी सांसद या उसकी बेटी की पीड़ा को सुनने-समझने की क्षमता और क़ाबिलियत खो चुके हैं। वैचारिक अथवा धार्मिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर सेंसर बोर्ड में भर्ती होने वाली प्रतिभाओं से फ़िल्मों में हिंसा के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ फ़ैसले लेकर ताकतवर फ़िल्म उद्योग को नाराज़ करने के साहस की उम्मीद नहीं की जा सकती।
 
सच्चाई यही है कि वीएफ़एक्स प्रभावों के ज़रिए बॉक्स ऑफिस पर सफलता के लिए प्रदर्शित की जाने वाली नक़ली हिंसा सत्ता की राजनीति में कामयाबी के लिए असली स्वरूप में इस्तेमाल के लिए ज़रूरी हथियार बन चुकी है। इसीलिए फ़िल्मों में प्रदर्शन अथवा राजनीतिक कार्रवाई के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंसा का शासकों की ओर से आमतौर पर विरोध नहीं किया जाता! विशेष परिस्थितियों में विरोध उस समय ज़रूर प्रकट होता है जब फ़िल्मी-प्रदर्शन वीइफ़एक्स वाला कृत्रिम नहीं बल्कि सत्य के क़रीब हो; राजनीतिक हिंसा को ‘परज़ानिया’ जैसी किसी साहसिक फ़िल्म अथवा बीबीसी की डॉक्युमेंट्री के माध्यम से नंगा किया जा रहा हो!

फ़िल्मों में प्रदर्शित की जानी वाली अतिरंजित हिंसा और सड़कों पर व्यक्त होने वाली असली सांप्रदायिक हिंसा से फ़िल्म उद्योग, सेंसर बोर्ड, राजनीति, धर्म और समाज किसी को कोई परेशानी नहीं है। सत्ताधीशों के लिए जिस तरह से धर्म पैंतीस पार की आबादी को व्यस्त रखने का अचूक मंत्र बन गया है, फ़िल्मों में हिंसा का प्रदर्शन युवाओं को बेरोज़गारी की चिंता से मुक्त रखने का तिलस्मी औज़ार साबित हो रहा है।

संसद जैसे मंच पर भी सिर्फ़ फ़िल्मों में दिखाई जा रही हिंसा का ही मुद्दा उठाकर महिला सांसद शायद समस्या की असली जड़ पर प्रहार करने से चूक रही हैं! फ़िल्मों में बढ़ती हिंसा और दर्शकों के बीच उसकी बढ़ती स्वीकार्यता को कथित ‘धर्म संसदों’ में एक क़ौम विशेष के ख़िलाफ़ शस्त्र उठाने के आह्वान, सुरक्षा के लिए तैनात किए गए जवान द्वारा चलती ट्रेन में एक वर्ग विशेष के यात्रियों की ढूंढ-ढूंढकर हत्या करने और सड़कों पर मॉब लिंचिंग की घटनाओं के साथ जोड़कर नहीं देखा जा रहा है। सवाल यह है कि इन तमाम असली घटनाओं के क़िस्से सुन-पढ़कर जब बच्चे-बच्चियां विचलित होते हैं कितने सांसद उसे मुद्दा बनाकर हुकूमत को कठघरे में खड़ा करते हैं?

सत्ता के निहित स्वार्थों द्वारा जब नागरिकों को योजनाबद्ध तरीक़े से हिंसक बनाया जा रहा हो, हिंसा को महिमामंडित करने वाले फ़िल्म उद्योग को भी राजनीतिक दलों का ही एक आनुषंगिक संगठन मानकर चलना पड़ेगा। साल 1944 में रचित महान अंग्रेज उपन्यासकार जॉर्ज ओर्वेल की कालजयी कृति ‘एनिमल फ़ार्म’ का ब्रह्म-सारांश यही है कि ‘सभी जानवर आपस में बराबर हैं पर कुछ जानवर दूसरों से ज़्यादा बराबर हैं!’ वर्तमान की राजनीति शायद इसी मंत्र को संविधान की मूल आत्मा मानती है।

हिंसा के समर्थन से अगर सत्ता में बने रहने के प्रयोग को राजनीति के क्षेत्र में सफलतापूर्वक आज़माया जा सकता है तो उसके इस्तेमालसे बॉक्स ऑफिस पर कामयाब होने वाली फ़िल्मों की क़तारें भी खड़ी की जा सकतीं हैं! हो सकता है हिंसा के प्रति बढ़ती मोहब्बत की दृष्टि से राजनीति और फ़िल्म दोनों उद्योगों के लिए 2024 का साल ‘कामयाबी’ के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाला साबित हो! (यह लेखक के अपने विचार हैं। वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है) 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

कोरोना के नए वेरिएंट JN1 के कारण लॉकडाउन लगेगा या नहीं? जानिए डॉक्टर की राय