‘लताजी’ किसी परिचय से परे है। संगीत अपनी पहचान ‘लताजी’ के रूप में दे तो भी कम है। सारी उपमाएं, उपाधियां, सम्मान ‘लताजी’ को सम्मानित कर स्वयं सम्मानित होते हैं। अपने क्षेत्र में शिखर तक कैसे पहुंचा जा सकता है इसका जीवंत उदाहरण है लताजी।
साधारण से साधारण इंसान भी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए लताजी के गाए गीतों पर ही आश्रित रहता है मानव मन की भावनाओं, विचारों का प्रतिबिंब है लताजी का गायन। जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं होगा जिसे लताजी ने अपनें गीतों से न छुआ हो, कोई भी गीत देख लीजिए, उसमें स्वरित शब्द, धुन सुन कर हर शख्स यही कह उठेगा कि हां ‘यही तो मैं कहना चाहता था, इसी सुकून की तो मुझे तलाश थी। इन सबसे ऊपर अपने ज्ञान का अभिमान न होना उनकी महानता की निशानी है।
‘आशाजी’ उन्हें ‘न भूतो न भविष्यति’ तो बलराम जाखड़ ने उन्हें एक संस्था कहा ‘फ़ालके पुरस्कार, भारत रत्न, स्वर कोकिला आदि अनगिनत पुरस्कार से सम्मान स्वयं सम्मानित हुए हैं। तो कोई कहता है कि ‘लता के सुरों के साम्राज्य का कभी अंत नहीं होता, तो कभी उन्हें जीवित किंवदंती कहा जाता है ऐसे में आम जनमानस की तरह मेरे जेहन में भी कई प्रश्न उठने लगे, जैसे नारी जो आधी मानवता का हिस्सा है उस नारी ने अपने समय में नारी के संघर्ष को कैसे जिया होगा? संसार में त्याग, समर्पण, साधना की मूर्ति ‘लताजी’ क्या बचपन से ही ऐसी थी? इन सवालों के जवाब, लताजी के जीवन के बारे में जानने की उत्कंठा ने उनके बारे में लिखी किताबें खोलने को प्रेरित किया।
संगीत की साम्राज्ञी कही जाने वाली लताजी का जीवन कठिन संघर्षों की कहानी रहा है। मात्र 13 वर्ष की आयु में जब बच्चें खिलौनों के साथ खेलते हैं, माता-पिता से जिद करते हैं तब पिताजी का पूरे परिवार को लताजी के भरोसे छोड़ कर इस दुनिया को अलविदा कह देना...बाल मन ने कैसे अपने बचपन को विस्मृत कर परिवार की जिम्मेदारी को निभाया होगा?
पिता द्वारा विरासत में मिले खजाने स्वर लिपि की किताब और एक तानपुरा को अपनाकर पार्श्वगायन के जरिए अपने परिवार की देखभाल की, यही खजाना आज दुनिया को भी बांट दिया। एक मराठी फ़िल्म ‘माझे बाल’ में अपने सभी भाई-बहनों के साथ एक दृश्य में शामिल होने के बारे में लताजी कहती है कि, ‘अगर उस फ़िल्म में हम नहीं आते तो वास्तविक जीवन में भी हम अनाथ रह जाते। इतनी ही पीड़ा, गम, मार्मिकता जो उनके गीतों में रूह तक मह्सूस होती है उनके जीवन का सच नारी जीवन की संपूर्णता को उन्होनें नकार दिया, मन की वही तपस्या का तेज आज उनके मुखमंडल पर चमकता है, संघर्ष की साधना उनके स्वरों को रोशन करती है।
लताजी मेरे शहर इन्दौर में जन्मी हैं तो उन पर हम सबको कुछ ज़्यादा ही अभिमान है। वे हैं भी तो इसके काबिल।