Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024

आज के शुभ मुहूर्त

(आंवला नवमी)
  • तिथि- कार्तिक शुक्ल नवमी
  • शुभ समय-9:11 से 12:21, 1:56 से 3:32
  • व्रत/मुहूर्त-अक्षय आंवला नवमी
  • राहुकाल- सायं 4:30 से 6:00 बजे तक
webdunia
Advertiesment

चमकौर को याद करने के दिन

हमें फॉलो करें चमकौर को याद करने के दिन
webdunia

विजय मनोहर तिवारी

अंग्रेजी कैलेंडर में दिसंबर का महीना भारत के संघर्षपूर्ण इतिहास की चमकदार यादों का महीना है। खासकर आखिरी के ये दिन। ये दिल्ली पर मुगलों के कब्जे के समय की बात है, जब गुरू गोविंद सिंह उनकी नींव हिलाने में लगे थे। यही दिन थे, जब गुरू गोविंद सिंह अपने जीवन की सबसे विकट लड़ाई में उतरे। औरंगजेब उन्हें जिंदा या मुर्दा कैसे भी देखना चाहता था।

22 दिसंबर, एक ऐसे दुखद प्रसंग का दिन, जिसने भारत को भारत होने के अर्थ दिए हैं। जिसने अपने समय के अनर्थ को चुनौती दी। अपने और अपने पूरे परिवार को इस देश के धर्म और संस्कृति के लिए बलिदान करने वाले महान सिख गुरू गोविंदसिंह के जीवन में आए सबसे विकट समय का एक दिन, जब उनके बेटे उनकी आंखों के सामने उनकी ही इजाजत से एक युद्ध के लिए जाते हैं।

चारों तरफ से घेरे हुए मुगलों के भूखे भेड़ियों के आगे वे झुके नहीं। लड़े। जल्दी ही वे दीए बुझा दिए गए। यह 315 साल पहले की बात है मगर हमारी स्मृतियों में बहुत है नहीं। आजादी के बाद इस संघर्ष के पाठ हरेक भारतीय को स्कूल की शुरुआती कक्षाओं में ही पता होने थे, लेकिन वह सिर्फ सिखों का इतिहास होकर सिमट गया।

वह 1704 का साल था। दिसंबर के उस पूरे घटनाक्रम को हर भारतीय को याद होना जरूरी है। वह महान योद्धा गुरुओं की ही आपबीती नहीं है। वह सिखों का भी इतिहास नहीं है। वह पंजाब की कहानी भी नहीं है। वह भारत का इतिहास है। हर भारतीय को पता होना चाहिए था। लेकिन उन्हें मारने वाले मुगल भारत का इतिहास बना दिए गए। उन्हें ग्रेट मुगल और महाबली अकबर, जाने क्या-क्या कहा गया। हम उन्हें ही सुनते-पढ़ते बड़े हो गए।

गुरू गोविंद सिंह ने आनंदपुर में 1699 में खालसा की स्थापना कर औरंगजेब के सामने यह जाहिर कर दिया था कि हुकूमत के नाम पर कायम इस्लामी आतंक के सामने झुकने वाली कौम हम नहीं हैं। 1701 से दोनों के बीच खुली जंग का दौर शुरू हो गया, जो 1704 तक चला है।

भारत के इतिहास की यह विडंबना ही रही है कि हम अपनों से ही हारे हैं। हर तरह के लालची धोखेबाज हर सदी में हर जगह रहे हैं, जिन्होंने अपनी संकीर्ण दृष्टि में सिर्फ अपने ही हित देखे। उनके पास दूर तक देखने की सामर्थ्य नहीं थी। वे देश को भी दाव पर लगा सकते थे। धर्म परिवर्तन तो वे कर ही रहे थे। वह हर हाल में अपनी जिंदगी और अपने हित ही चाहते थे। गुरूजी खालसा की स्थापना के बाद हासिल अपार लोकप्रियता और ताकत के कारण सबसे पहले आसपास के पहाड़ी हिंदू राजाओं की आंखों में खटके। वे मूर्ख राजे उनसे लड़े। हार गए तो औरंगजेब में उन्हें अपना तारणहार नजर आया।

गुरूजी आनंदपुर में थे। इन धोखेबाज पहाड़ी राजाओं और मुगलों के लुटेरे हमलावरों ने उन्हें करीब छह महीने से चारों तरफ से घेर रखा था। जो उन्मादी भीड़ आज कई शहरों में भारत को मॉब-लिंचिंग का शिकार बनाने पर आमादा है, वैसी ही उन्मादी भीड़ वह थी। सत्ता के सब तरह के लालचियों का एक ताकतवर झुंड सत्य के दीए को बुझाने के लिए तब भी तत्पर था।

38 वर्षीय गुरू गोविंदजी से आनंदपुर के किले से सुरक्षित जाने का एक वादा किया जाता है। मुगल कुरान की कसमें खाते हैं। पहाड़ी राजे पवित्र गाय की सौगंध कि गुरुजी को सुरक्षित जाने दिया जाएगा, बशर्ते किला हमारे हवाले कर दिया जाए। खालसा के योद्धा सिख गुरूजी को बाहर लाते हैं। लेकिन जिनके रक्त में ही फरेब और धोखा बहता हो, उनसे किसी किस्म की समझदारी, संवेदनशीलता और वचनबद्धता की उम्मीद बेकार तब भी थी, अब भी है।

मुगल चारों तरफ से गुरूजी के समूह पर टूट पड़े। वे किसी भी कीमत पर गुरूजी को जिंदा या मुर्दा चाहते थे। अचानक हमले की उस भगदड़ में गुरूजी का परिवार बिछड़ जाता है। दो बेटे उनके साथ रह जाते हैं-अजीत सिंह और जुझार सिंह। दो छोटे बेटे अपनी दादी माता गूजरी के साथ किसी और रास्ते पर निकल जाते हैं-फतेह सिंह और जोरावर सिंह। चारों तरफ से हजारों की पागल भीड़ भूखे भेड़ियों की तरह उनके शिकार की घात में है।

कोई नहीं जानता कि अगले पल कौन बचेगा, कौन मरेगा। सरसा नदी खतरों से भरे इस संघर्ष में महान सिखों की वीरता की गवाह है। शाम होते ही अंधेरा छा गया था। अपने दो बेटों और 40 सिखों के साथ वे चमकौर की तरफ रवाना होते हैं। वे कुल 43 थे। उनसे हजार गुना बड़ी और ताकतवर धर्मांध भीड़ चप्पे-चप्पे में उन्हें ढूंढ रही थी।
चमकौर कोई बहुत महत्वपूर्ण किलेबंदी वाला ठिकाना नहीं था। उसका जिक्र ऊंचे टीले पर बनी एक छोटी सी गढ़ी के रूप में है। बुधि‍चंद नाम का एक व्यक्ति इतिहास में इस नाते दर्ज हुआ कि उस जानलेवा हालात में उसने गुरूजी को अपनी हवेली में शरण दी। अब वे चमकौर की गढ़ी में थे, जहां का पता लगते ही मुगल भेड़िए और धोखेबाज हिंदू लकड़बग्गों ने चीख-पुकार मचाते हुए उन्हें वहां भी आ घेरा।

यह 21, 22, 23 दिसंबर के तीन महत्वपूर्ण दिन हैं। मैं इसे भारत की आजादी के लंबे धारावाहिक की ही एक अहम और चमकदार कड़ी मानता हूं। सुहेल देव ने गजनवी के भांजे सालार मसूद को बहराइच में मार गिराया तो वह भी इस देश को बचाने की एक महान कोशिश थी। राणा प्रताप अगर आजाद भारत में "ग्रेट मुगल' कहकर नवाजे गए महाबली अकबर को चुनौती देते हैं तो वह भी विदेशी हुकूमत के खिलाफ मेवाड़ की एक बुलंद आवाज है। अगर छत्रपति शिवाजी महाराष्ट्र से हुंकार भरते हैं तो वह बहुत स्पष्ट रूप से स्वराज्य की घोषणा है।

आजादी की लड़ाई कोई 1857 के किसी शुभ मुहूर्त में आरंभ हुई हो और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बिना खड्ग बिना ढाल के उसे किसी शांतिपूर्ण अंत तक पहुंचा दिया हो, इस खाम-ख्याली में किसी भारतीय को रहना नहीं चाहिए। वह एक अंतहीन संघर्ष था। सशस्त्र संघर्ष। औरंगजेब के समय चमकौर में गुरू गोविंदसिंह उस विकट संघर्ष के महानायक थे।

वे अपने दो बेटों और 40 सिखों के साथ इस गढ़ी के चारों तरफ मंडरा रही मौत को अपनी आंखों से देख रहे थे। सरहिंद का नवाब वजीर खान मुगलों के इस गिरोह का सरगना था, जिसके पास 10 लाख लुटेरे हमलावरों की फौज थी। यह एक ऐसी मॉब-लिचिंग थी, जिसका परिणाम गुरुजी से बेहतर कोई नहीं जानता था। एक-एक सिख को सवा-सवा लाख से लड़ाने का महाघोष वे ही कर सकते थे। 18 साल के अजित सिंह और 14 साल के जुझार सिंह में भी उनका ही लहू बह रहा था। वे उनके आसपास थे।

गुरूजी ने 5-5 सिखों को सबसे पहले मुगलों की भगदड़ में लड़ने भेजा। वे चमकौर की गढ़ी से मुकाबला देख रहे हैं। मुगलों के बीच मारकाट मचाते हुए वे पांचों महावीर धराशायी होते हैं। फिर एक और समूह अपने हिस्से की बहादुरी दिखाकर इस्लामी फौज को अधिकतम नुकसान पहुंचाते हुए अपनी उम्र पूरी करता है। अब अजित सिंह जंग में जाने की इजाजत मांगते हैं।

नारा बुलंद होता है-बोले सो निहाल, सतश्री अकाल। चार सिखों के साथ यह महान युवा योद्धा मौत के मुंह की ओर प्रस्थान करता है। एक दीया आंखों के सामने बुझ जाता है। अब अजित से चार साल छोटे जुझार सिंह आगे आते हैं। चमकौर के मैदान में औरंगजेब की विक्षिप्त इस्लामी फौज से टकराते हैं। कड़े मुकाबले में इतिहास देखता है कि उनका सिर भी झुकता नहीं है। उनकी तलवार हवाओं में बिजली सी कौंधती है। दूसरा दीया भी बुझ गया। देश के लिए खून का वह आखिरी कतरा किसी भाषण में नहीं बहा, चमकौर के मैदान में गिरा।

कड़ाके की सरदी का वह दिन अस्त हो गया। वह 22 दिसंबर का ही दिन था। गुरु गोविंद सिंह को उस शाम शायद पता भी नहीं होगा कि उनकी मां माता गूजरी और उनके दो मासूम बेटे इस वक्त कहां हैं, किस हाल में हैं, जीवित भी हैं या नहीं। फतेह सिंह उम्र 8 साल और जोरावर सिंह उम्र 7 साल। लेकिन वे इस वक्त कहां थे?

सरहिंद से निकलते समय हुए मुगलों के हमले की भगदड़ में वे गंगू नाम के एक सेवक के साथ सुरक्षित निकल गए थे। एक धोखेबाज हिंदू यहां भी निकला। खुद गंगू, जिसने अपने तात्कालिक फायदे के लालच में सरहिंद के नवाब वजीर खान को उन्‍हें सौंप दिया। औरंगजेब के इस टुकड़खोर गवर्नर के सामने वे दोनों बेटे लाए जाते हैं। इस्लामी कानून (वल्लाह, क्या कानून है!) के मुताबिक उन्हें जिंदा रहने के लिए इस्लाम कुबूल करने को कहा जाता है।

गुरूजी के दोनों बेटे सीना तानकर ऐसा मजहब कुबूल करने से साफ इंकार कर देते हैं, जो जिंदा रहने की सजा के तौर पर उन्हें जिंदगी भर ढोना होगा और फिर उनकी मजहब की अंधी औलादें इस अंधेरे को फैलाएंगी। वे साफ इंकार कर देते हैं। यह मजहबी सजा उन्हें कबूल नहीं थी। इस्लामी कानून इन मासूम बच्चों को जिंदा दीवार में चुनवाने की सजा सुनाता है।

वे देखते ही देखते बड़ी क्रूरता से जिंदा दफन कर दिए जाते हैं। माता गूजरी को एक बुर्ज से नीचे फैंककर मार दिया गया। घृणा किसके रक्त में बहती दिख रही है? बेरहमी किसकी वैचारिक विरासत है? सेक्युलर सिस्टम में ऐसे असुविधाजनक सवाल करना गुनाह है। आप सांप्रदायिक घोषित हो सकते हैं। इसलिए चुप रहिए। झुककर रहिए।

गोविंद सिंह के बेटे झुकते नहीं हैं। अपना सम्मान गिरवी नहीं रखते। उनकी नजर में जो छल-बल से गले उतारा जाए वो धर्म दो कौड़ी का था। और जिन्होंने ताकत या लालच में आकर अपना धर्म बदल लिया, इतिहास ने उनकी औलादों को बाद में एक उन्मादी भीड़ में बदलते देखा। उसी भीड़ ने सन् 47 में इस धरती के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसी भीड़ ने कश्मीर को लहूलुहान कर डाला। मुंबई से लेकर जयपुर तक, अक्षरधाम से लेकर संकटमोचन हनुमान तक धमाके करती रही। वह बात-बात पर भारत के माथे पर पत्थर बरसाती रही।

खंडित भारत के लालची हुक्मरानों ने अपने देश को एक मजार बना लिया और जालीदार टोपी लगाकर सेक्युलरिज्म की हरी चादर चढ़ाकर चैन से हुकूमत में लग गए। इस चादर को ओढ़े हुए हम 70 साल से पढ़ते रहे कि मुगल महान थे। अकबर दयावान थे। औरंगजेब ने मंदिरों के लिए सनदें लिखी थीं। सूफी परंपरा की खुशबू क्या कमाल है। "डिस्कवरी ऑफ इंडिया' के रचयिता ने ऐसा इंडिया डिस्कवर किया!

नेहरू की इस महान डिस्कवरी में हम चमकौर के बारे में कितना जानते हैं? क्या वह सिर्फ पंजाब का इतिहास है? क्या वह सिखों की आंख से गिरा आंसू है, जिसका हमसे कोई लेना-देना नहीं? क्या वे गुरू पंजाब की सत्ता पर कब्जा करने के लिए खड़े हुए थे? पंडितजी से कौन कहां जाकर पूछे कि गंगा-जमनी रवायत का एक कतरा चमकौर की खूनी भगदड़ में कहां नजर आ रहा है?

सरहदें खिंचने के बाद भी औरंगजेब की वह जहरीली विरासत जेहन में फैली हुई है। मगर वे तो मुगल नहीं हैं। वे बादशाह और नवाब भी नहीं हैं। वे संख्या के पशु बल में बदल दी गई एक ऐसी उन्मादी भीड़ हैं, जिन्हें तलवार के जोर पर मजहब बदलने वाले अपने बेइज्जत पुरखों का चेहरा याद नहीं है। चमकौर की रोशनी में इन बंद दिमाग लोगों को अपना आहत अतीत महसूस करना चाहिए।

यह महीना और ये दिन उन अनगिनत वीर योद्धाओं के पवित्र स्मरण का अवसर हैं, जिसने गुरू गोविंद सिंह, उनके पिता गुरू तेग बहादुर सिंह और उनके चार मासूम बेटों की अमिट स्मृतियों से भारत को जगमगाया है। और वो कौन लोग हैं, जो भारत को अंधेरे से भर देना चाहते हैं? सर्वस्वदानी गुरू गोविंदसिंह उसी तरह के अंधे और अंधेरे युग में प्रज्वलित एक मशाल हैं। यह इस देश के धर्म पर महान सिखों का कर्ज है, जो कभी नहीं उतर सकता। हर भारतीय के मन में उनके प्रति उतनी ही श्रद्धा है, जितनी अपने देव और महादेव पर।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

क्रिसमस स्पेशल : Christmas पर बनाएं बच्चों का पसंदीदा Eggless Dry Fruit Cake