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जातीय तराजुओं में विखण्डन का षड्यन्त्र

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

इस समय देश-समाज में एक अनूठा और विकृतिपूर्ण चलन हमारी सभ्यता संस्कृति एवं सामाजिकता को ग्रसने के लिए अपने उफान पर देखने को मिल रहा है।

इसके भविष्यगत संकट को जाने- पहचाने, सोचे-समझे बिना समूचा समाज उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके बढ़ावा दे रहा है। आजकल महापुरुषों, ईश्वरीय अवतारों सबकी जाति देखी जाने लगी है।

उन्हें जातियों से नत्थी किया जाने लगा है। और विध्वंसक समूह अपनी-अपनी जाति व समुदाय के आधार पर महापुरुषों और भगवानों का बंटवारा कर उन्हें सर्वश्रेष्ठ बतलाने में जुटे हुए हैं। जहां इन सबके पीछे एक ओर दूषित और घ्रणित राजनीति दिख रही है, जो अपने वोटबैंक के लिए समाज को किसी भी स्तर तक बांटकर अपना राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करना चाहती है। तो दूसरी ओर भारत की महान संस्कृति को खण्डित करने का षड्यन्त्र भी प्रतीत हो रहा है।

अचानक से ही एक नई तरह की धारा और नए लोगों का प्रादुर्भाव होने लगा है जो राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति के आधारस्तंभ मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और कृष्ण सहित धार्मिक - पौराणिक ग्रन्थों तथा सनातन संस्कृति के आराध्यों की भी जाति ढूंढ़ने के अभियान में जुटे हैं और आराध्य देवताओं को अपनी जाति का भगवान बताकर मिथ्यादम्भ का परचम लहरा रहे हैं।

ऐसी धारा के लोग भगवान राम को क्षत्रियों,कृष्ण भगवान को अहीरों, भगवान परशुराम को ब्राम्हणों, भगवान चित्रगुप्त को कायस्थों- बनियों, भगवान विश्वकर्मा को लुहारों- बढ़ईयों व ऐसा ही समस्त देवी -देवताओं को लेकर उनकी धारणा है।

देवी देवताओं को अपनी-अपनी जाति या वर्ग का बताने व स्थापित करने की खतरनाक मुहिम चल रही है। जिन आराध्य देवताओं को समूचा समाज अपनी संस्कृति का मूल मानकर पूजता था, अब उन्हें जातीय खांचे में ढालकर अपनी -अपनी जाति के अहं के रुप में प्रदर्शित करने का पाप किया जाने लगा है। समाज में यह चलन कहां से और कैसे आया? इसका किसी को भी अता- पता नहीं है। लेकिन सब अपने- अपने आपको सर्वेसर्वा व वर्चस्ववादी दिखलाने के प्रयास में अपनी पूरी संस्कृति के विरोध में खड़े होते दिखाई दे रहे हैं।

यहां तक तो बात ठीक मानी जाती है कि आप उनका पूजन करिए उनके अवतरण पर्व में हर्षोल्लास मनाइए, किन्तु जब इसके इतर अपने अहं को सिध्द करने के दृश्य में परस्पर आराध्य देवी/देवताओं को एक दूसरे के विरुद्ध व श्रेष्ठ दिखलाने का पाखण्ड व उन्हें जाति के तराजुओं में देखते व तौलते हैं। तब इसे किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं माना जाना चाहिए। लेकिन समाज के बीच से इन विकृतियों के विरोध में आवाज का न उठना भी समाज के सुप्त पड़े होने व पतनोन्मुखी होने की ओर संकेत कर रहा है।

समाज को इस विषय पर गम्भीर विचार विमर्श ही नहीं, अपितु अचानक बन रही इस बीमारी को जड़ से खत्म करने का साहस दिखलाना पड़ेगा।

इतना ही नहीं षड्यन्त्र के तहत समूचे देश में महापुरुषों, स्वतन्त्रता सेनानियों, चिन्तकों विचारकों को भी जातीय अस्मिता से जोड़कर उन्हें सिर्फ़ अपनी जाति का महापुरुष या महान नेता बतलाने -सिध्द करने का अभियान भी जोरों -शोरों से चल रहा है। जबकि कोई भी महापुरुष किसी जाति- समुदाय या वर्ग विशेष का नहीं होता। यह अलग बात है कि किसका जन्म किस जाति - समुदाय या वर्ग में हुआ।

हां इसके लिए अवश्य गर्व करना चाहिए। लेकिन जिन महापुरुषों, वीर पुरोधाओं ने समूचे राष्ट्र के लिए अपने महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व से अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। यदि उन्हें सिर्फ़ अपनी जाति- वर्ग या समुदाय से जोड़कर उन्हें दिखाए जाने का कार्य किया जाता है तो यह उनका घोर अपमान और संकीर्ण सोच की मदान्धता उच्छृंखलता के अलावा और कुछ नहीं है।

देखिए यह कितनी घ्रणित बात है कि- महात्मा गांधी,राजेन्द्र बाबू, लालबहादुर शास्त्री जी को बनिया तो, सरदार वल्लभ भाई पटेल को - कुर्मी पाटीदार या पटेल। चन्द्र शेखर आजाद, मङ्गल पाण्डेय को ब्राम्हण या इन सभी को सवर्ण घोषित करना। वहीं इनके बरक्स डॉ.अम्बेडकर को दलितों की जाति से जोड़ना। ऐसे ही महात्मा बुध्द, महावीर स्वामी, दशम् गुरुओं सहित भारतवर्ष के सभी महान आदर्शों के ऊपर अब जातीय विमर्श होने शुरु हो गए हैं।

सन्त रविदास को चर्मकार, महर्षि वाल्मीकि को -वाल्मीकि, गोस्वामी तुलसीदास, आचार्य चाणक्य इत्यादि को ब्राम्हणों का शिरोमणि घोषित किया जा रहा है। तो वहीं महाराणा प्रताप, राजा भोज सहित अनेकानेक क्षत्रिय वीरों को केवल क्षत्रियों का महानायक बताने की मुहिम भी चल रही है।

इससे बिल्कुल भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि जाति सत्य नहीं है। भारत की सनातनी व्यवस्था की प्रत्येक जाति मूलतः ऋषि-महर्षियों की सन्तानें हैं। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी न किसी कुल, वंश,जाति में अवश्य होता है। किन्तु जब वह व्यक्ति अपने कृतित्व से इतना बड़ा बन जाता है कि उसे समूचा देश अपना आदर्श- पथप्रदर्शक मानने लगता है, तब वह केवल अपने घर- परिवार, गांव - समाज, जाति, धर्म या विशेष समाज का नहीं अपितु वह सामाजिक जीवन की राष्ट्रीय पूंजी या विरासत बन जाता है। ऐसे में उन्हें किसी भी संकीर्ण दायरे में खींचकर लाने या अपने क्षुद्र स्वार्थों, राजनैतिक अभिमान को तुष्ट या पुष्ट करने का यत्न - प्रयत्न करना सभ्य समाज के लिए किसी भी तरह से सही नहीं है।

इन उध्दरणों को प्रस्तुत करने के पीछे का मन्तव्य यह है कि समाज का पतन या सोचने का दायरा कितने निचले स्तर तक आता जा रहा है जहां सन्तों -महापुरुषों, क्रान्तिकारियों, स्वातन्त्र्य सेनानियों ,ऋषि - महर्षियों की जाति को खोदकर उन्हें अपने जातीय स्वाभिमान से जोड़कर केवल अपनी जाति- वर्ग या सम्प्रदाय के घेरे में प्रस्तुत कर गर्व के मारे लोग फूले नहीं समा रहे हैं। किसी के भी अवदान को अपने- अपने पैमाने से सिर्फ़ इसलिए स्वीकार या अस्वीकार कर देना कि फला महापुरुष दूसरी जाति का है, इसलिए उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा। वहीं किसी महापुरुष का सिर्फ़ इसलिए अभिनन्दन- महिमामण्डन करना कि वह हमारी जाति से जुड़ा हुआ है। इसी आधार पर उनके अवदानों को कम या अधिक आंकने की दुष्प्रवृत्ति का चलन भी चल रहा है।

ऐसे विचार महापुरुषों व राष्ट्र के आदर्शों का अपमान तो हैं ही साथ -साथ यह प्रवृत्ति राष्ट्रीयता के लिए घातक व विखण्डनकारी वातावरण को तैयार करने की मंशा लेकर समाज को अपना ग्रास बनाने की ओर उद्यत है। यह सब हमारी संस्कृति पर आक्रमण के प्रयोग हैं,जो धीरे-धीरे समाज में विषाक्तता उत्पन्न कर रहे हैं।

ऐसा करने वाले राष्ट्र- समाज की विविधता में एकता की अद्वितीय समरसता को कहां ले जा कर डुबाना चाहते हैं?  जब राष्ट्र के आदर्शों, महापुरुषों का जातीय आधार पर आंकलन और उसी आधार पर उन्हें आदर्श मानने या न मानने याकि किसी को सशक्त महान तो किसी को छोटा बतलाने- सिध्द करने का अभियान चलाया जाएगा, तब राष्ट्र किस ओर जाएगा? जरा! सोचिए जब हमारे पास दिशाबोध के लिए संस्कृति के ये तत्व, विरासत, महापुरुष नहीं होंगे तब हम किस ओर जाएंगे?

स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि "हमारी इस पवित्र भूमि का मेरुदण्ड, मूलभित्ति या जीवन केन्द्र एक मात्र धर्म ही है।"

और फिर वे चेतावनी देते हुए एक स्थान पर यह भी कहते हैं - "यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवनी-शक्ति  को दूर करने का प्रयास करे - शताब्दियों से जिस दिशा की ओर उसकी विशेष गति हुई है,उससे मुड़ जाने का प्रयत्न करे― और यदि वह इसमें सफल हो जाय,तो वह राष्ट्र मर जाता है ।अतः यदि तुम धर्म को फेंककर राजनीति, समाज-नीति या किसी अन्य नीति को अपनी जीवन-शक्ति का केन्द्र बनाने में सफल हो जाओ,तो इसके फलस्वरूप तुम्हारा अस्तित्व तक मिट जाएगा। "

हम स्वामी विवेकानन्द की चेतावनी और उनके उपदेशों के आलोक में जब विचार करते हैं तो क्या इन सब घटनाक्रमों, विमर्शों के पीछे भारत को विखण्डित करने का षड्यन्त्र समझ नहीं आता है?  जब हमारे पास धार्मिकता, संस्कृति, एकता - समरसता की महान विरासत नहीं होगी। जब समाज केवल इस बात को लेकर लड़ता- झगड़ता रहा आएगा कि मैं श्रेष्ठ- तुम हेय तब कैसा देश व समाज आगामी पीढ़ी के समक्ष छोड़कर जाएंगे?

क्या अपने -अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए इस तरह के अपराधों को जायज ठहराया जा सकता है? सोचिए, समझिए व इन बिन्दुओं पर कठोरतापूर्वक कार्य करिए। क्योंकि हमारे ईश्वरीय अवतार, आदर्श- राष्ट्रनायक,सन्त-महात्मा,ऋषि -महर्षि, विचारक, स्वातन्त्र्य सेनानी, महान राजनेता किसी के भी जातीय दम्भ का विषय नहीं है बल्कि वे हमारे राष्ट्र की नीति व नियति के पथप्रदर्शक हैं।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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