कुछ पर्यटक स्थलों पर ‘ईको पाइंट्स’ होते हैं जैसी कि मध्यप्रदेश में प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान माण्डू और सतपुड़ा की रानी के नाम से प्रसिद्ध पचमढ़ी के बारे में लोगों को जानकारी है। पर्यटक इन स्थानों पर जाते हैं और ईको पाइंट पर गाइड द्वारा उन्हें कुछ ज़ोर से बोलने को कहा जाता है। कई बार लोग झिझक जाते हैं कि वे क्या बोलें! कई बार ज़ोर से बोल नहीं पाते या फिर जो कुछ भी बोलना चाहते हैं, नहीं बोलते। आसपास खड़े लोग क्या सोचेंगे, ऐसा विचार मन में आता है। जो हिम्मत कर लेते हैं उन्हें बोले जाने वाला शब्द दूर कहीं चट्टान से टकराकर वापस सुनाई देता है। पर जो सुनाई देता है वह बोले जाने वाले शब्द का अंतिम सिरा ही होता है। शब्द अपने आने-जाने की यात्रा में खंडित हो जाता है।
ईको पाइंट पर बोले जाने वाले शब्द के साथ भी वैसा ही होता है जैसा कि जनता द्वारा सरकारों को दिए जाने वाले टैक्स या समर्थन को लेकर होता है। जनता टैक्स तो पूरा देती है पर उसका दिया हुआ रुपया जब ऊपर टकराकर मदद के रूप में उसी के पास वापस लौटता है तो बारह पैसे रह जाता है। ऐसा तब राजीव गांधी ने कहा था।
बहरहाल, ईको पाइंट पर पहुंचकर कुछ लोग अपने मन में दबा हुआ कोई शब्द बोल ही देते हैं और बाक़ी सब उसके टकराकर लौटने पर कान लगाए रहते हैं। जैसा कि आमतौर पर सड़कों-बाज़ारों में भी होता है। बोलनेवाला यही समझता है कि बोला हुआ शब्द केवल सामने कहीं बहुत दूर स्थित चट्टान या बिंदु को ही सुनाई पड़ने वाला है और वहीं से टकराकर वापस भी लौट रहा है। यह पूरा सत्य नहीं है। ईको पाइंट के सामने खड़े होकर साहस के साथ बोला गया शब्द उस कथित चट्टान या बिंदु तक सीधे ही नहीं पहुंच जाता। वह अपनी यात्रा के दौरान एक बड़ी अंधेरी खाई, छोटी-बड़ी चट्टानों, अनेक ज्ञात-अज्ञात जल स्रोतों, झाड़ियों और वृक्षों, पशु-पक्षियों यानी कि ब्रह्मांड के हर तरह से परिपूर्ण एक छोटे से अंश को गुंजायमान करता है। ऐसा ही वापस लौटने वाले शब्द के साथ भी होता है।
आज तमाम नागरिक अपने-अपने शासकों, प्रशासकों और सत्ताओं के ईको पाइंट्स के सामने खड़े हुए हैं। गाइड्स उन्हें बता रहे हैं कि ज़ोर से आवाज़ लगाइए, आपकी बात मानवीय चट्टानों तक पहुंचेगी भी और लौटकर आएगी भी, यह बताने के लिए कि बोला हुआ ठीक जगह पहुंच गया है। पर बहुत कम लोग इस तरह के ईको पाइंट्स के सामने खड़े होकर अपने ‘मन की बात’ बोलने की हिम्मत दिखा पाते हैं। अधिकांश तो तमाशबीनों की तरह चुपचाप खड़े रहकर सबकुछ देखते और सुनते ही रहते हैं। वे न तो बोले जाने वाले या फिर टकराकर लौटने वाले शब्द के प्रति अपनी कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त करते हैं। वे मानकर ही चलते हैं कि बोला हुआ शब्द गूंगी और निर्मम चट्टानों तक कभी पहुंचेगा ही ही नहीं। पहुंच भी गया तो क्षत-विक्षत हालत में ही वापस लौटेगा। यह अर्ध सत्य है।
सच तो यह है कि साहस करके कुछ भी बोलते रहना अब बहुत ही ज़रूरी हो गया है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम भी चट्टानों की तरह ही क्रूर, निर्मम और बहरे हो जाएंगे। तब हमें भी किसी दूसरे या अपने का ही बोला हुआ कभी सुनाई नहीं पड़ेगा। बोला जाना इसलिए ज़रूरी है कि ईको पाइंट्स और हमारी प्रार्थनाओं के शब्दों को अपनी प्रतिक्रिया के साथ वापस लौटाने वाली चट्टानों के बीच एक बहुत बड़ा सजीव संसार भी उपस्थित है।
यह संसार हर दम प्रतीक्षा में रहता है कि कोई कुछ तो बोले। इस संसार में एक बहुत बड़ी आबादी बसती है जिसमें कई वे असहाय लोग भी होते हैं जिन्हें कि पता ही नहीं है कि कभी कुछ बोला भी जा सकता है, चट्टानों को भी सुनाया जा सकता है, बोले गए शब्दों की प्रतिध्वनि से संगीत का रोमांच भी उत्पन्न हो सकता है। वापस लौटने वाला शब्द चाहे जितना भी खंडित हो जाए, यह भी कम नहीं कि वह कहीं जाकर टकरा तो रहा है, वहां कोई कम्पन तो पैदा कर रहा है। अगर हम स्वयं ही एक चट्टान बन गए हैं तो फिर शुरुआत कभी-कभी खुद के सामने ही बोलकर भी कर सकते हैं। हमें इस बात की तैयारी भी रखनी होगी कि जब हम बोलने की कोशिश करेंगे, हमें बीच में रोका भी जाएगा।
याद किया जा सकता है कि गुजरे दौर के मशहूर अभिनेता अमोल पालेकर जब पिछले साल फ़रवरी में मुंबई में एक कार्यक्रम में अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाने की कोशिशों की आलोचना कर रहे थे तो किस तरह से उन्हें बीच में ही रोक दिया गया था और उन्हें अपना बोलना बंद करना पड़ा था। आपातकाल की शुरुआत ऐसे ही होती है। उसे रोकने के लिए बोलते रहना ज़रूरी है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)