राजस्थान व पश्चिम बंगाल में हुए लोकसभा व विधानसभा उपचुनावों में देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की करारी हार से साफ हो गया है कि भाजपा से जनता का मोहभंग होना शुरू हो गया है और उसकी उल्टी गिनती की संभावनाएं भी व्यक्त की जाने लगी हैं।
जनता अब समझदार हो चुकी है। आसपास घटने वाली हर घटना को वह गुण-दोष के आधार पर परखकर, समीक्षा कर प्रतिक्रिया जाहिर कर देती है। अधिकांशत: ये प्रतिक्रियाएं राष्ट्रभर में एक-सी होती हैं और यही उनके सही होने का माप है। मतदाता अब समझदार और जागरूक है। वह उन मूल मुद्दों की परवाह करता है जिनसे उनके हितों का संबंध है और जिनसे भारत का लोकतंत्र सशक्त होता है।
राजस्थान और पश्चिम बंगाल में हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में भाजपा को करारी हार मिली है। इन उपचुनावों में राजस्थान में जहां कांग्रेस को नया जीवन मिला है, वहीं पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का दबदबा बना हुआ है। खासकर राजस्थान में, जहां इस साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं, भाजपा के लिए यह एक बड़ा झटका है। इन चुनाव नतीजों ने कांग्रेस को न केवल उभरने का अवसर दे दिया है बल्कि आगामी चुनावों में सरकार बनाने की स्थितियां भी गढ़ दी हैं।
राजस्थान की 2 लोकसभा सीटों- अजमेर और अलवर और 1 विधानसभा सीट मांडलगढ़ पर यह उपचुनाव हुआ था। अजमेर लोकसभा सीट से कांग्रेस के रघु शर्मा, अलवर सीट से कांग्रेस के करण सिंह यादव और मांडलगढ़ विधानसभा सीट से कांग्रेस के विवेक धाकड़ ने भारी मतों से जीत हासिल की। पश्चिम बंगाल में उलुबेरिया लोकसभा सीट और नोआपाड़ा विधानसभा सीट पर चुनाव हुआ था।
राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे की कार्यशैली एवं अहंकार की वृत्ति पूरे राष्ट्र के मानसपटल पर छाई रही हैं और चर्चा का विषय बनती रही है। इन स्थितियों में जिस तरह की हार का सामना राजे को करना पड़ा है, वह कोई आश्चर्यकारी या अनहोनी जैसा नहीं है। राजस्थान में उपचुनाव नतीजों से साफ है कि प्रदेश में राजे सरकार के काम से लोग खुश नहीं हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को जिन उम्मीदों के साथ लोगों ने भारी बहुमत से सत्ता सौंपी थी, वह उन पर खरी नहीं उतरी। मुख्यमंत्री की कार्यशैली से न सिर्फ जनता, बल्कि उनकी पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी खुश नहीं हैं।
राजस्थान में 3 दशक में यह पहला मौका है, जब उपचुनाव में विपक्षी उम्मीदवार चुनाव जीते हैं और सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा है। राजे के कामकाज पर अनेक नकारात्मकता के तिलक लगे हैं। राजनीति में एक घटना और एक गलत कदम क्या से क्या कर देता है, यह जननेता क्यों नहीं समझते? यह समझ तो न केवल वसुंधरा राजे, बल्कि प्रदेश एवं राष्ट्रीय भाजपा के संगठन को भी विकसित करनी ही होगी। यह समझ और समझदारी तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए भी जरूरी है, क्योंकि भारत के मतदाता ने जिस विश्वास के साथ उन्हें नया भारत बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है, वे ऐसी गलतियों एवं तथाकथित राजनीतिक स्वार्थों से मंजिल नहीं पा सकेंगे। यह स्थिति भाजपा से अधिक देश की आम जनता के लिए भी गंभीर समस्या का सबब बन सकती है।
राजस्थान में लंबे समय से सत्ता और संगठन के बीच द्वंद्व चल रहा है। प्रदेश के वरिष्ठ भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी को राजे की कार्यशैली से खफा होकर बड़ा मोर्चा तक खोलने को मजबूर होना पड़ा। जनता में इसका बड़ा संदेश गया। इसके अलावा प्रदेश में बेरोजगारी और विकास ऐसे मुद्दे रहे हैं जिनका सीधा सरोकार मतदाताओं से होता है। इन मोर्चों पर सरकार ऐसा कुछ नहीं कर पाई जिसे कि उल्लेखनीय कहा जाता।
दूसरी ओर उपचुनाव में कांग्रेस की जीत ने पार्टी में फिर से जान फूंक दी है। कांग्रेस के लिए ये उपचुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि कई बड़े दिग्गजों का भविष्य इसी से तय होना है। इस जीत से कांग्रेस को सत्ता वापसी की उम्मीद बंधी है, जबकि भाजपा के जिन विधायकों और सरकार के मंत्रियों को इन चुनावों में जीत की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, वे इसमें नाकाम रहे। यह उनका भी भविष्य तय करेगी।
जनता अब जान गई है कि राजा अब किसी के पेट से नहीं, बल्कि 'मतपेटी' से निकलता है। हमारे लोकतंत्र में मतदाता ही सर्वेसर्वा है, उसको जब भी नजरअंदाज किया गया और इसकी अवहेलना करके जब भी किसी सरकार ने अपनी चुनावी राजनीति की बिसात पर शासन को ढालने की कोशिश की है तो मतदाता ने उसके विजय रथ के घोड़ों की रास पकड़कर उनका मुंह दूसरी तरफ मोड़ दिया है।
राजस्थान और पश्चिम बंगाल के उपचुनावों का सही संकेत है और संदेश भी। पश्चिम बंगाल के उलुबेरिया लोकसभा सीट पर तृणमूल कांग्रेस की उम्मीदवार ने 4 लाख से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की। इससे स्पष्ट है कि राज्य में सत्ता और पार्टी दोनों पर ममता बनर्जी की गहरी पकड़ बनी हुई है। नोआपाड़ा विधानसभा सीट पर भी तृणमूल कांग्रेस ने जीत हासिल की। पश्चिम बंगाल में भाजपा हारी भले हो, लेकिन हार के बावजूद उसने यहां नंबर 2 पर अपनी स्थिति बनाए रखी जबकि 3 दशक से ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाली माकपा को मतदाताओं ने 3रे और कांग्रेस को 4थे नंबर पर धकेल दिया।
राजस्थान में इसी वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं तथा ये उपचुनाव एक तरह से सेमीफाइनल थे। इससे जहां कांग्रेस के लिए सत्ता में वापसी की उम्मीद बंधी है, तो भाजपा के लिए खतरे की घंटी भी बजी है। नतीजों से साफ है कि जनता को काम करने वाली सरकार ही चाहिए। ऐसी सरकार, जो नौजवानों को रोजगार मुहैया करा सके और प्रदेश को विकास का रास्ता दिखाए। वरना जनता सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगाती।
स्थितियां तो ऐसी हैं कि कुछ ही वर्षों में देश के आर्थिक विकास का रास्ता बदल देने वाले नरेन्द्र मोदी के नए भारत के निर्माण के विजय रथ का भविष्य भी अनिश्चितता की ओट में आता हुआ दिखाई दे रहा है। कुछ लोग राजनीति का नाटक अंतिम पृष्ठ से शुरू कर भूमिका तक पहुंचते हैं। कुछ की कहानी पहले शुरू होती है और संदेश बहुत बाद में आता है।
राजस्थान में वसुंधरा सरकार ने जनता को कड़वे घूंट पिलाए हैं, वहां यह अहसास दिलाया गया है कि जिसके पास सब कुछ, वह स्वयंभू नेता और जिसके पास कुछ नहीं, वह निरीह जनता। जब-जब यह परिभाषा गढ़ने कोशिश हुई है और जनता ने अनचाहा भार ढोया है, उसने बदला भी तत्काल लिया है। राजस्थान में नेतृत्व के मूल्य-मानकों को धुंधलाया गया है। नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, 'सबको साथ लेकर चलना, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, कथनी-करनी की समानता, लोगों का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।' इन शब्दों को वसुंधरा सरकार ने किताबों में डालकर अलमारियों में रख दिया।
लेकिन भाजपा को चाहिए कि वह इन उपचुनावों की हार को सीख बनाए। उन भूलों को न दोहराए जिनसे प्रदेश की जनता की भावनाएं जख्मी हुई है, जो सबूत बनी है सरकार के असफल प्रयत्नों की, अधकचरी योजनाओं की, जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों की, अहंकारी सोच में मदहोशी की, सही सोच एवं सही कर्म के अभाव में मिलने वाले अर्थहीन एवं घातक परिणामों की।
राजे सरकार को चाहिए कि वह शासन को इतना मजबूत और विश्वसनीय बनाए कि सरकार का हर क्षण इतिहास बन जाए, नए भविष्य का निर्माण हो, हर रास्ता मुकाम तक ले जाए।