राहुल गांधी की अध्यक्षता में संसदीय सौंध में आयोजित कांग्रेस की पहली कार्यसमिति की बैठक की ओर देश का ध्यान इसलिए था, क्योंकि 2019 लोकसभा चुनाव की दृष्टि से यहां से पार्टी की रणनीति और लक्ष्यों के संदर्भ में कुछ स्पष्ट निर्णय लिया जाना था। हालांकि इसकी विस्तृत जानकारी हमारे सामने नहीं आई लेकिन जितनी आई उनसे यह कहना मुश्किल है कि राहुल गांधी एवं कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 2014 और उसके बाद की लगातार पराजय के बावजूद इसके कारणों और इससे उबरने को लेकर गहरा मंथन किया है।
उनके अंदर पराजय से उबरने की छटपटाहट तो है, पर यह कैसे हो, इस दिशा में आशाजनक सोच और रणनीति का अभाव एक बार फिर उजागर हुआ। 'गठबंधन से चुनाव लड़ेंगे, राहुल गांधी हमारी ओर से चेहरा होंगे, भाजपा एवं संघ की सोच नहीं किंतु उनकी जनता तक पहुंचने के तरीके अपनाना चाहिए...' आदि बातें ऐसी नहीं हैं जिनसे यह विश्वास हो कि लंबे समय तक एकछत्र राज करने वाली पार्टी ने अब सही दिशा पकड़ ली है।
नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाना है, यह एक सामान्य लक्ष्य हो सकता है, किंतु यह कांग्रेस जैसी पार्टी का मुख्य लक्ष्य नहीं हो सकता। दूसरे, अगर हराना है तो उसका विकल्प हम कार्यक्रम एवं नीतियों के स्तर पर क्या दे रहे हैं, यह भी स्पष्ट नहीं हुआ। और तीसरे, अगर मोदी को हराना भी है तो उसके लिए हमारे अस्त्रागार में कौन-कौन से अचूक अस्त्र हैं, इनकी भी कोई झलक सामने नहीं रखी जा सकी।
कार्यसमिति की बैठक में पार्टी के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने अगले चुनाव में कितनी सीटें जीती जा सकती हैं, इसका एक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अभी भी 12 राज्यों में कांग्रेस का मजबूत जनाधार है। इनमें यदि हम परिश्रम करें तो 150 सीटें जीत सकते हैं। इसके अलावा शेष राज्यों में हम अगर 150 सीटें जीत लें, तो यह संख्या 300 तक पहुंच सकती है। चिदंबरम का यह अपना गणित हो सकता है। कोई अतिआशावादी कांग्रेसी भी यह स्वीकार नहीं करेगा कि 2019 के आम चुनाव में पार्टी 300 के आसपास पहुंच सकती है। अगर इतना आत्मविश्वास पार्टी में हो जाए तो फिर वह चुनाव पूर्व गठबंधन को अपनी मुख्य नीति बनाएगी ही क्यों?
1984 के बाद किसी भी पार्टी को 300 सीटें नहीं मिली हैं। कांग्रेस को 1991 में सर्वाधिक 232 सीटें मिलीं थीं उसमें भी राजीव गांधी की निर्मम हत्या से मिली सहानुभूति का बहुत बड़ा योगदान था। हत्या के पहले संपन्न चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन काफी कमजोर था। हत्या के कारण बीच में कुछ समय के लिए चुनाव स्थगित किया गया। उसके बाद जहां-जहां चुनाव हुए, वहां-वहां पार्टी का प्रदर्शन पहले दौर की तुलना में बेहतर हुआ। 1996 के बाद से कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे के मुख्य प्रतिद्वंद्वी बने। 1999 तक भाजपा अपनी सीमाओं में कांग्रेस को पीछे छोड़ती रही।
1996 के बाद 2009 में उसे सबसे ज्यादा 206 सीटें प्राप्त हुईं थीं। उसका कारण भी स्वयं कांग्रेस नहीं, भाजपा का जनता को सत्ता में वापस आने का विश्वास न दिला पाना, लालकृष्ण आडवाणी के प्रति संघ परिवार के कार्यकर्ताओं की वितुष्णा एवं कांग्रेस का गठबंधन करके चुनाव लड़ना था। पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु में उसका प्रदर्शन गठबंधन के कारण ही तो संभव हुआ। आंध्रप्रदेश में वाईएसआर के कारण उसने सारी पार्टियों को पीछे छोड़ दिया। उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह से निराश मुसलमान मतदाताओं तथा भाजपा से विमुख सवर्ण मतदाताओं ने कांग्रेस का रुख किया और उसे 22 सीटें मिल गईं।
कोई भी देख सकता है कि इन राज्यों की आज की परिस्थितियां भिन्न हैं। उत्तरप्रदेश में बसपा, सपा कांग्रेस को एक खिलाड़ी तक मानने को तैयार नहीं है। आंध्र और तेलंगाना दोनों जगहों में कांग्रेस इतनी अशक्त है कि शेष बचे महीनों में उसके उठकर खड़ा होने की भी उम्मीद नहीं की जा सकती। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के साथ उसका गठबंधन हो सकता है। वामपंथी स्वयं अपने जनाधार के लिए छटपटा रहे हैं, तो वे कांग्रेस की क्या मदद करेंगे?
तमिलनाडु की राजनीति में रजनीकांत और कमल हासन 2 नए खिलाड़ी आ गए हैं। वहां के बारे में भी कुछ कहना मुश्किल है। हालांकि जिन 12 राज्यों की बात चिदंबरम ने की, उनमें उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना एवं आंध्रप्रदेश नहीं हो सकते हैं। इतनी व्यावहारिकता उन्होंने अवश्य दिखाई होगी। जिन 12 राज्यों पर उनका फोकस हो सकता है, उनमें 247 लोकसभा स्थान आते हैं। इनमें कांग्रेस 2014 में केवल 29 स्थानों पर जीत सकी। अब 29 सीटों को सीधे 150 तक ले जाने की कल्पना करना चिदंबरम के वश की ही बात हो सकती है। वैसे हो तो कुछ भी सकता है।
भाजपा के पास उत्तरप्रदेश में केवल 9 सीटें थीं और उसने अकेले 71 जीत लीं। किंतु उसके लिए 1 वर्ष पूर्व से नरेन्द्र मोदी ने माहौल बनाना आरंभ कर दिया था। अमित शाह तब उपाध्यक्ष के नाते रामेश्वर चौरसिया के साथ वहीं पूरा समय लगाकर काम कर रहे थे, वैसा कांग्रेस कहीं करती नहीं दिख रही। यह भी ध्यान रखिए कि कांग्रेस को 2014 में केवल 19 प्रतिशत मत मिले। 2009 में जब उसने 206 सीटें जीतीं, उसके पास 28.56 प्रतिशत मत थे। 2004 में भी 145 सीटें उसे मिली थीं, तो 26.53 प्रतिशत मत थे। 300 तो छोड़िए यदि उसे 150 सीटें भी पार करनी है, तो 27 प्रतिशत से ज्यादा मत चाहिए। 8 प्रतिशत मतों की एकमुश्त बढ़ोतरी सामान्य अवस्था में नहीं हो सकती। इसके लिए लहर चाहिए।
यह न भूलिए कि भारत जैसे देश के चुनावों में कुछ वोट तो मुद्दों पर मिलते हैं, पर अच्छे प्रदर्शन के लिए माहौल निर्मित करना होता है। यह केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के विरुद्ध के साथ प्रतिकूल राज्य सरकारों के विरुद्ध भी होना आवश्यक है। एक ओर सत्ता के विरुद्ध जन माहौल एवं दूसरी ओर अपने पक्ष में यह सकारात्मक विश्वास कि हम इस समय उपस्थित दलों और नेताओं में सबसे बेहतर विकल्प हैं। अगर आप ऐसा माहौल बना लेते हैं, तो गठजोड़ करने वाली पार्टियां भी दबाव में आकर आपको ज्यादा सीटें दे सकती हैं। कांग्रेस अभी तक इन दोनों कसौटियों पर बिलकुल कमजोर साबित हो रही है। विपक्ष और पक्ष में माहौल निर्मित करने का कोई अभियान आज तक पार्टी ने चलाया ही नहीं है।
कार्यसमिति की बैठक या उसके बाद भी ऐसा कोई कार्यक्रम उसका सामने नहीं आया है। राहुल गांधी के पास कई सूचनाएं भी सही नहीं हैं, जैसे उन्होंने कहा कि संघ और भाजपा आदिवासियों के बीच नहीं थे और वे गए वैसे ही हमें भी जाना है। उनको पता होना चाहिए कि आदिवासियों के बीच वे पहले वोट मांगने नहीं गए। संघ का वनवासी कल्याण आश्रम वर्षों से सेवा का काम कर रहा है। उसके लिए जीवनदानी प्रचारक वहां काम करते हैं। उसके बाद एकल विद्यालय आरंभ हुआ। तब भी वे सभी आदिवासियों तक नहीं पहुंच पाए हैं। जब राहुल को इस सच का पता ही नहीं तो फिर आप कैसे उनका स्थानापन्न कर सकते हैं?
उसी तरह संघ द्वारा आयोजित विद्यालयों के बारे में उन्होंने कहा कि भाजपा सत्ता से चोरी करके उनको धन मुहैया कराती है। संघ के विद्यालय देशभर में तब भी चलते थे, जब भाजपा कहीं सत्ता में नहीं थी। कांग्रेस की सरकारों ने कई बार इनकी जांच की लेकिन कभी भी उनके पास सरकारी फंड किसी स्रोत से आने की बात प्रमाणित नहीं हुई। जब आपके पास तथ्य ही सही नहीं रहेंगे, तो आप उनको कमजोर कर उनके स्थान पर अपने को खड़ा करने की सही रणनीति भी नहीं बना सकते।
जहां तक नेतृत्व का प्रश्न है तो राहुल के पास ऐसे कई अवसर आए, जब वे देश में यह संदेश दे सकते थे कि नरेन्द्र मोदी के समानांतर उनके अंदर भी नेतृत्व के सारे गुण मौजूद हैं। ऐसा संदेश मिलने के बाद देश उनके बारे में विचार करना आरंभ कर सकता था। इससे माहौल निर्मित होने का ठोस आधार बनता। अभी हाल का अविश्वास प्रस्ताव ऐसा ही एक सुनहरा अवसर था। क्या कांग्रेस के कट्टर समर्थक भी मानेंगे कि राहुल अपने भाषण से देश को ऐसा संदेश देने में सफल रहे? इससे बड़ा अवसर कम से कम 2019 के चुनाव के पहले तो उनको नहीं मिलने वाला।
जाहिर है, ये सारे पहलू यथार्थ की धरातल पर रहने वाले कांग्रेस समर्थकों के लिए चिंता के कारण हैं। आज की स्थिति में कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें पाती नजर नहीं आ रही हैं जितने की कि वह कल्पना कर रही है।