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तालिबानियों के ताबूत में अंतिम कील ठोंके भारत

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान की वापसी के ऐलान के बाद से ही वहां तालिबानी आतंकियों ने सत्ता कब्जा ली है। अफगानिस्तान की परिस्थिति इतनी वीभत्स एवं गम्भीर है कि वहां मनुष्यता अपनी अन्तिम सांसे गिन रही है।
भारत सरकार भी हिन्दू-सिख एवं अन्य शरणार्थियों को विशेष विमान द्वारा भारत वापसी के कार्य में युध्दस्तर पर लगी हुई है। साथ ही अफगानिस्तान में सोलह अगस्त को ही भारतीय दूतावास भी बन्द कर दिया गया है।

पाकिस्तान, चीन अपने - अपने स्वार्थ सिध्द करने के लिए तालिबान के आगे पलक-पांवड़े बिछा! कर खड़े हैं। चीन और पाकिस्तान के इस रवैय्ये में यह कोई विशिष्ट बात नहीं है,क्योंकि अफगानिस्तान की वर्तमान दुरावस्था के पीछे इन दोनों का ही हाथ है। चीन जहां अपने यहां के उइगर मुसलमानों के मामलों में तालिबान का सहयोग लेने और भू-राजनैतिक परिवेश में अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों को हथियाने के लिए तालिबान को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष मान्यता देने के लिए प्रतिबध्दता दिखाता है।

वहीं पाकिस्तान -अफगानिस्तान में अशांति और उपद्रव की स्थिति के साथ ही उसे आतंकी केन्द्र के रुप में बनाकर वहां से भारत में आतंकवाद फैलाने की योजना को मूर्तरूप देना चाहता है। इसके साथ ही पाकिस्तान की प्रथम वरीयता में बीते वर्षों में भारत के करोड़ों निवेश के द्वारा वहां जो विकास कार्य हुए हैं, उन्हें नष्ट करना है।

पाकिस्तान और चीन दोंनों हर -हाल में भारत के विरुद्ध अपने घ्रणित कृत्यों को चलाना चाहते हैं, ताकि भारत में आतंकवाद;  अशान्ति उत्पन्न कर यहां की विकास गति को रोका जा सके। पंजशीर में कब्जे पर पाकिस्तान के लड़ाकू  विमानों द्वारा बमबारी और तालिबान का समर्थन इसी का एक नजराना है। कुल मिलाकर भारत के विरुद्ध पाकिस्तान व चीन दोंनो ने छद्म युध्द प्रारम्भ कर दिए हैं और अफगानिस्तान को वे इसका सशक्त मोहरा मान रहे हैं। हालांकि प्रत्येक स्थिति -परिस्थिति पर भारत सरकार- सेना एवं सुरक्षा एजेंसियों की चौकन्नी दृष्टि तथा सतर्कता बनी हुई है। साथ ही भारत की मानवतावादी छवि के चलते इस बात में भी संशय की स्थिति बनी हुई है कि भारत का तालिबान के प्रति स्पष्ट रुख क्या है? पूर्व इतिहास के अनुरूप भारत ने मानवता को प्राथमिकता दी है और इसी के अनुसार अफगानिस्तान व विश्व की नजर भारत के प्रति भी लगी हुई है कि-भारत क्या निर्णय लेता है?

विगत दिनों कतर की राजधानी दोहा में हुई भारतीय राजनयिक दीपक मित्तल से तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्तानेकजई ने वार्ता की, जिसमें अफगानिस्तान की धरती का भारत के विरूद्ध दुरुपयोग होने से रोकने, आतंकवादी समूहों से दूरी, अल्पसंख्यक अफगान नागरिकों की सुरक्षा, भारतीय नागरिकों व अफगानिस्तान में भारत के सहयोग से किए जाने वाले विकास कार्यों की पूर्णता सहित विविध मुद्दों भारत के साथ सहयोग के लिए तालिबान ने आश्वस्त किया है।

हालांकि इस पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता,किन्तु वैश्विक परिदृश्य में जब अमेरिका, रुस सहित अन्य देश तालिबान के साथ अपने रणनीतिक व कूटनीतिक हितों को सिध्द करने से नहीं चूक रहे थे,तब ऐसे में भारत का यह निर्णय भी कूटनीतिक मायनों में सार्थक कदम है। साथ ही इस वार्ता के माध्यम से तालिबान वहां गठित होने वाली सरकार में भारत की मुहर चाहता है,लेकिन इस वार्ता में भारत सरकार अपने हितों-मानवतावादी छवि के साथ आतंकवाद की समाप्ति के लिए प्रतिबद्ध है। और इस वार्ता के यह मायने भी नहीं हैं कि भारत ने तालिबान के आतंकवाद, हिंसा, क्रूरता-बर्बरता, अत्याचार इत्यादि को भुला दिया है, भारत के लिए आतंकवाद की पूर्ण समाप्ति व शान्ति-सौहार्द प्रथम प्राथमिकता में हैं। आगामी समय में भी देश की रणनीति वैश्विक परिदृश्यों एवं अपने कूटनीतिक-सामरिक हितों के साथ ही आतंकवाद की पूर्ण समाप्ति के अनुसार ही होनी चाहिए।

किन्तु इन सबमें बड़े आश्चर्य की बात जो है वह यह कि - अफगानिस्तान में तालिबान के आतंकी कब्जे के बाद से ही यहां का एक धड़ा विशेष तौर पर सक्रिय हो चुका है। जो तालिबान की पैरवी करता हुआ और उसे शान्ति का समर्थक, स्वतन्त्रता का क्रान्तिकारी बतलाने में जुटा हुआ है। ऐसे में समझ से यह बात परे है कि इन तालिबानी आतंकियों के प्रति इस धड़े की सहानुभूति, समर्थन,  इनके प्रति संशय की स्थिति उत्पन्न करती है। कहीं ये सब वैचारिक तालिबानी तो नहीं है? जो भारत में रहते हुए आतंकवादियों के समर्थन में उतर चुके हैं, और अपनी 'दबाव समूह' की रणनीति के अन्तर्गत तालिबान को भारत में फैलाना चाहते हैं? यदि ऐसा है तो यह बेहद गम्भीर विषय है और भारत सरकार तथा राज्य सरकारों को इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए। अफगानिस्तान में सिख सांसद रहे अनारकली कौर व नरेन्द्र सिंह खालसा को अपना सर्वस्व छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ गई।

एक स्थिति अफगानिस्तान की है,जहां तालिबानी आतंकियों के कारण वहां के राष्ट्रपति, मन्त्री, सांसदों को अपना देश छोड़कर भारत सहित अन्य देशों में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ रहा है। वहीं दूसरी ओर यहां के ओवैसी, सफीकुर्रहमान जैसे मुसलमान सांसद तालिबान के समर्थन में कूद रहे हैं।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना सज्जाद नोमानी का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह तालिबान के समर्थन में कहते हैं ― 'एक बार फिर यह तारीख रकम हुई है। एक निहत्थी कौम ने सबसे मजबूत फौजों को शिकस्त दी है। काबुल के महल में वे दाखिल हुए। उनके दाखिले का अंदाज पूरी दुनिया ने देखा। उनमें कोई गुरूर और घमंड नहीं था। बड़े बोल नहीं थे। वे नौजवान काबुल की सरजमीं को चूम रहे हैं। मुबारक हो। आपको दूर बैठा हुआ यह हिंदी मुसलमान सलाम करता है। आपके हौसले को सलाम करता है। आपके जज्बे को सलाम करता है।'

वहीं उ.प्र. में समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान ने अफगानिस्तान में तालिबान पर कब्जे की तुलना भारत में ब्रिटिश राज से करते हुए कहा था – 'हिंदुस्तान में जब अंग्रेजों का शासन था और उन्हें हटाने के लिए हमने संघर्ष किया, ठीक उसी तरह तालिबान ने भी अपने देश को आजाद किया।' उन्होंने तालिबान की तारीफ करते हुए कहा था, 'इस संगठन ने रूस, अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्कों को अपने देश में ठहरने नहीं दिया।'

ओवैसी ने एआईएमआईएम के कार्यक्रम में बयान दिया था कि - भारत सरकार को उन महिलाओं की चिंता ज्यादा है जो अफगानिस्तान में हैं, लेकिन, अपने यहां की महिलाओं पर वे कुछ नहीं बोलते। भारत में पांच साल से कम की उम्र में ही नौ में से एक बच्ची की मौत हो जाती है। यहां महिलाओं के प्रति अपराध और रेप के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। लेकिन, सरकार को चिंता अफगानिस्तान में फंसी हुई महिलाओं की ज्यादा है। ― इसमें महिलाओं की सुरक्षा कम और तालिबान प्रेम अधिक झलकता है।

तालिबान के घटनाक्रम में मुनव्वर राना ने कहा कि- तालिबान को आतंकवादी नहीं कह सकते, उन्हें अग्रेसिव (उग्र) कहा जा सकता है। तालिबान ने अपने मुल्क को आजाद करा लिया तो आखिर दिक्कत क्या है? अपनी जमीन पर कब्जा तो किसी भी तरह से किया जा सकता है। साथ ही मुनव्वर ने यह भी कहा था कि - तालिबानियों ने अपने दो बड़े दुश्मनों अमेरिका और रूस से लंबे समय तक युद्ध लड़ा, ऐसे में यह सोचा जाना चाहिए कि उन पर कितने जुल्म हुए होंगे? मुनव्वर ने कहा कि इसका भी हिसाब निकाला जाना चाहिए। तालिबान द्वारा किए जा रहे जुल्मों को देखकर हमें परेशान होने की जरूरत नहीं है। अफगानिस्तान के साथ भारत के हजारों सालों से मोहब्बत भरे संबंध रहे हैं।

इतना ही नहीं मुनव्वर जैसे व्यक्ति का इतना दुस्साहस बढ़ जाता है कि वह तालिबानी आतंकियों की तुलना महर्षि वाल्मीकि से कर देता है।

मुनव्वर के बीते वर्षों से लगातार बोल बिगड़ते ही जा रहे हैं। उनके अन्दर भारत व हिन्दुओं के प्रति नफरत का भाव उफान मार रहा है,लेकिन जिस देश ने- हिन्दुओं ने मुनव्वर को दौलत, शोहरत दी उस मुनव्वर का इतने निचले स्तर तक आ जाना, कहीं न कहीं अपने आप में बड़े सवाल खड़े करता है? जिसको तालिबान में आतंकी न दिखता हो, वह उसे स्वतन्त्रता का नायक बतलाता हो उसके अन्दर का यह जहर देश के लिए आन्तरिक खतरे से कम नहीं है।
चाहे नोमानी हो, ओवैसी हो, सफीकुर्रहमान हो या मुनव्वर हों इन सबकी तालिबानियों के प्रति यह सह्रदयता अपने आप में वैचारिक तालिबानियों की भारत में उत्पत्ति की आशंका बलवती करती है।

क्योंकि जो लोग तालिबान के समर्थन में कूद रहे हैं वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? और यदि वे जिनका प्रतिनिधित्व करते हैं,तो उनके ये वक्तव्य बड़ी चुनौतियों की ओर इशारा कर रहे हैं। यदि इनसे प्रतिप्रश्न किया जाए कि - यदि तालिबान से इतना ही प्रेम है तो अफगानिस्तान में जाकर बस जाओ, तब इन्हें भारत का मुसलमान और संवैधानिक अधिकार ही खतरे में दिखने लगेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि इन सबको तालिबान- आतंकी नहीं दिखता और उसकी क्रूरता इनको नहीं दिख पाती है, तो ऐसे में ये आतंकवादी किसे मानेंगे? देश को समझना पड़ेगा कि यदि तालिबानी इनके लिए रोल -मॉडल हैं तो निश्चय ही ये देशभक्त और मानवतावादी नहीं हो सकते बल्कि ये देशद्रोही-मानवद्रोही ही कहलाएंगे।

वहीं साथ ही साथ वामपंथी गिरोह,बौध्दिक नक्सलियों के सारे मोर्चे तालिबान को 'क्लीनचिट'  देने और तालिबानियों को अमेरीका से स्वन्त्रता प्राप्त करने वाले लड़ाके,लोकतान्त्रिक मूल्यों का पालन करने वाले  इत्यादि-इत्यादि सिध्द करने में जुटे हुए हैं। इनके शब्दकोश से अफगानिस्तान में तालिबान के लिए 'आतंकवादी' शब्द की बजाय 'लड़ाके' प्रयुक्त किया जा रहा है। चाहे वह वामपंथी कलुषता के कीचड़ के प्रोफेसर, इतिहासकार, पत्रकार, कलाकार, नेता, शायर, मानवाधिकारवादी, पर्यावरण एक्टिविस्ट इत्यादि हों।

ये सब अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकवाद पर या तो चुप्पी साधे हुए हैं याकि उनके लिए देश में 'सॉफ्ट कार्नर'  वाला नैरिटिव गढ़ने में लगे हुए हैं। यदि तालिबानी आतंकी न होते तो भारत सहित विभिन्न देशों को वहां से अपने नागरिकों,शासकीय दूतावासों को क्यों हटाना पड़ता? यदि यह सत्ता का हस्तान्तरण ही होता तो 'शरीयत' को थोपने और तालिबानियों के द्वारा लगातार की जा रही हत्याओं,बलात्कार, वीभत्स नरसंहार और सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं की समाप्ति के साथ ही विश्व भर में अफगानिस्तान को छोड़कर शरणार्थी बनने के लिए विवश अफगानिस्तानियों की अन्तहीन पीड़ा क्या है? तब ऐसे में यदि भारत में वैचारिक तालिबानी दम्भ भरते हुए तालिबान की प्रशंसा करते हैं और उसके समर्थन में उतरते हैं।

तो इस पर भारत सरकार को गम्भीरतापूर्वक विचार करना और कठोरतम् कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। क्योंकि वैचारिक तालिबानियों  को नजरअंदाज करना भारत को आतंकवाद के मुंह में झोंक देगा।भारत ने सदैव मनुष्यत्व की गरिमा को प्रतिष्ठित किया है,ऐसे में भारत में शान्ति और खुशहाली के लिए वैचारिक तालिबानियों के ताबूत में अन्तिम कील अवश्य ही ठोंकनी चाहिए।

इस आलेख में व्‍यक्‍‍त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्‍यक्‍ति है। वेबदुनि‍या का इससे कोई संबंध नहीं है।

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