प्रिय आयशा.... तुम्हारे जाने के बाद मैंने तुम्हारे नाम का अर्थ खोजा... मुझे मिला प्यार, समृद्ध, जीवन (पैगंबर मुहम्मद की पत्नी का नाम)
आयशा, सोच रही हूं, क्यों तुम्हारे नाम के अर्थ जीवन में उलट गए। तुम तो प्यार करने वाली थी पर प्यार तुम्हें क्यों न मिल सका, समृद्ध होने का अर्थ सिर्फ पैसों से है तो हां यह भी तुमसे उलट ही गया... वरना भला चंद रुपयों की खातिर तुम्हें यूं नदी में नहीं उलटना पड़ता। लेकिन तुम्हें देखकर मैंने जाना कि ज़हनी तौर पर तुम समृद्ध थीं।
क्या बस यही विकल्प बचा था। पिता को हिम्मत देती, पिता के साथ खड़ी तुम जीत जाती मगर ये तुमने क्या किया... प्यार न मिले तो क्या सारी दुनिया से प्यार खत्म हो गया था? दहेज के लालची भेड़ियों को सबक सीखा जाती तुम, ऐसे तो हार कर नदी में समा जाना कोई हल नहीं... इस देश में दहेज के नाम पर हर दिन जलाई और सताई जाने वाली बेटियों की हिम्मत को तोड़कर क्या मिला तुम्हें मेरी सखी... थोड़ा रुकती, थोड़ा सोचती, थोड़ा अपने अब्बू की मजबूती बनती... दुष्टों से जीत जाती फिर अपने आकाश में अपने पंखों से उड़ती... कौन रोक पाता तुम्हें... पर तुमने अपने भीतर की ताकत को पहचाना ही नहीं, तुमने अपने सपनों को झिंझोड़ा ही नहीं... क्यों हावी होने दिया तुमने शैतानों को अपने व्यक्तित्व पर अपने अस्तित्व पर... रास्ते तुमने साबरमती के ही क्यों तलाशे... नदी से ये क्यों नहीं सीखा की वक्त के थपेड़ों और झंझावातों से जूझ कर भी वह बहती रहती है अविरल अविचल, निर्बाध और झरझर... तुम जब समा गई हो साबरमती के चमचम पानी में तब इस देश की हर आयशा की आंखों से दुख की नदी बह रही है...
आयशा थोड़ा रुकती तो तुम देखती उन ग्राम्य बालाओं को जो तड़के उठकर खेतों में जाती हैं और दिन ढले घर लौटती हैं... अपनी मेहनत के दम पर वे अपने पतियों से लड़ती है, सवाल करती हैं और अंततः अपने हक में जवाब और फैसला पाती है। पर मैं नहीं जानती की दुराचार की कौनसी ऐसी पराकाष्ठा पार हो गई थी कि तुम हार गई...
तुम्हारी वो जो हंसी है न उसकी पीड़ा मेरे कलेजे को बींध रही है... तुम्हारी वो जो मरने की हिम्मत जो मैं देख रही हूं न उससे मेरी हिम्मत आहत हो रही है... कितनी आयशा कितनी नदियों में अपने दुख बहाएंगी... इन अबाध अश्रुधारा से नदियां भारी हो जाएंगी...