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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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महावीर जयंती 2023: आरती, चालीसा, भजन, मंत्र और पूजा विधि, यहां जानिए

हमें फॉलो करें महावीर जयंती 2023: आरती, चालीसा, भजन, मंत्र और पूजा विधि, यहां जानिए
भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर हैं। भगवान महावीर ने जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत तथा मंत्रों पर अधिक जोर दिया, वे सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय और ब्रह्मचर्य हैं। इस वर्ष 3 अप्रैल, सोमवार को भगवान महावीर स्वामी की जयंती (Mahveer Jayanti 2023) मनाई जा रही है।

महावीर स्वामी का मानना था कि हमें दूसरों के प्रति वहीं विचार और व्यवहार करना चाहिए जो हम स्वयं के लिए पसंद करते हैं। भगवान महावीर का घंटाकर्ण महावीर मूलमंत्र सबसे अधिक प्रभावशाली माना गया है। 
 
भगवान महावीर की जयंती के खास अवसर पर आपके लिए प्रस्तुत है विशेष सामग्री...
 
Lord Mahavir aarti आरती : जय महावीर प्रभो
 
जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।
कुंडलपुर अवतारी, त्रिशलानंद विभो॥ ॥ ॐ जय.....॥
 
सिद्धारथ घर जन्मे, वैभव था भारी, स्वामी वैभव था भारी।
बाल ब्रह्मचारी व्रत पाल्यौ तपधारी ॥ ॐ जय.....॥
 
आतम ज्ञान विरागी, सम दृष्टि धारी।
माया मोह विनाशक, ज्ञान ज्योति जारी ॥ ॐ जय.....॥
 
जग में पाठ अहिंसा, आपहि विस्तार्यो।
हिंसा पाप मिटाकर, सुधर्म परिचार्यो ॥ ॐ जय.....॥
 
इह विधि चांदनपुर में अतिशय दरशायौ।
ग्वाल मनोरथ पूर्‌यो दूध गाय पायौ ॥ ॐ जय.....॥
 
प्राणदान मन्त्री को तुमने प्रभु दीना।
मन्दिर तीन शिखर का, निर्मित है कीना ॥ ॐ जय.....॥
 
जयपुर नृप भी तेरे, अतिशय के सेवी।
एक ग्राम तिन दीनों, सेवा हित यह भी ॥ ॐ जय.....॥
 
जो कोई तेरे दर पर, इच्छा कर आवै।
होय मनोरथ पूरण, संकट मिट जावै ॥ ॐ जय.....॥
 
निशि दिन प्रभु मन्दिर में, जगमग ज्योति जरै।
हरि प्रसाद चरणों में, आनन्द मोद भरै ॥ ॐ जय.....॥

 
Mahavir Chalisa श्री महावीर चालीसा : जय महावीर दया के सागर 
 
दोहा :
 
सिद्ध समूह नमों सदा, अरु सुमरूं अरहन्त।
निर आकुल निर्वांच्छ हो, गए लोक के अंत ॥
मंगलमय मंगल करन, वर्धमान महावीर।
तुम चिंतत चिंता मिटे, हरो सकल भव पीर ॥
 
चौपाई :
 
जय महावीर दया के सागर, जय श्री सन्मति ज्ञान उजागर।
शांत छवि मूरत अति प्यारी, वेष दिगम्बर के तुम धारी।
कोटि भानु से अति छबि छाजे, देखत तिमिर पाप सब भाजे।
महाबली अरि कर्म विदारे, जोधा मोह सुभट से मारे।
काम क्रोध तजि छोड़ी माया, क्षण में मान कषाय भगाया।
रागी नहीं नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी।
प्रभु तुम नाम जगत में सांचा, सुमरत भागत भूत पिशाचा।
राक्षस यक्ष डाकिनी भागे, तुम चिंतत भय कोई न लागे।
महा शूल को जो तन धारे, होवे रोग असाध्य निवारे।
व्याल कराल होय फणधारी, विष को उगल क्रोध कर भारी।
महाकाल सम करै डसन्ता, निर्विष करो आप भगवन्ता।
महामत्त गज मद को झारै, भगै तुरत जब तुझे पुकारै।
फार डाढ़ सिंहादिक आवै, ताको हे प्रभु तुही भगावै।
होकर प्रबल अग्नि जो जारै, तुम प्रताप शीतलता धारै।
शस्त्र धार अरि युद्ध लड़न्ता, तुम प्रसाद हो विजय तुरन्ता।
पवन प्रचण्ड चलै झकझोरा, प्रभु तुम हरौ होय भय चोरा।
झार खण्ड गिरि अटवी मांहीं, तुम बिनशरण तहां कोउ नांहीं।
वज्रपात करि घन गरजावै, मूसलधार होय तड़कावै।
होय अपुत्र दरिद्र संताना, सुमिरत होत कुबेर समाना।
बंदीगृह में बँधी जंजीरा, कठ सुई अनि में सकल शरीरा।
राजदण्ड करि शूल धरावै, ताहि सिंहासन तुही बिठावै।
न्यायाधीश राजदरबारी, विजय करे होय कृपा तुम्हारी।
जहर हलाहल दुष्ट पियन्ता, अमृत सम प्रभु करो तुरन्ता।
चढ़े जहर, जीवादि डसन्ता, निर्विष क्षण में आप करन्ता।
एक सहस वसु तुमरे नामा, जन्म लियो कुण्डलपुर धामा।
सिद्धारथ नृप सुत कहलाए, त्रिशला मात उदर प्रगटाए।
तुम जनमत भयो लोक अशोका, अनहद शब्दभयो तिहुँलोका।
इन्द्र ने नेत्र सहस्र करि देखा, गिरी सुमेर कियो अभिषेखा।
कामादिक तृष्णा संसारी, तज तुम भए बाल ब्रह्मचारी।
अथिर जान जग अनित बिसारी, बालपने प्रभु दीक्षा धारी।
शांत भाव धर कर्म विनाशे, तुरतहि केवल ज्ञान प्रकाशे।
जड़-चेतन त्रय जग के सारे, हस्त रेखवत्‌ सम तू निहारे।
लोक-अलोक द्रव्य षट जाना, द्वादशांग का रहस्य बखाना।
पशु यज्ञों का मिटा कलेशा, दया धर्म देकर उपदेशा।
अनेकांत अपरिग्रह द्वारा, सर्वप्राणि समभाव प्रचारा।
पंचम काल विषै जिनराई, चांदनपुर प्रभुता प्रगटाई।
क्षण में तोपनि बाढि-हटाई, भक्तन के तुम सदा सहाई।
मूरख नर नहिं अक्षर ज्ञाता, सुमरत पंडित होय विख्याता।
 
सोरठा :
 
करे पाठ चालीस दिन नित चालीसहिं बार।
खेवै धूप सुगन्ध पढ़, श्री महावीर अगार ॥
जनम दरिद्री होय अरु जिसके नहिं सन्तान।
नाम वंश जग में चले होय कुबेर समान ॥

Jain Bhajan भजन : रंग लाग्यो महावीर, थारो रंग लाग्यो
 
1. थारी भक्ति करवाने म्हारो भाव जाग्यो ॥
रंग लाग्यो…॥
 
2. थारा दर्शन करवाने म्हारो भाव जाग्यो ॥
रंग लाग्यो…॥
 
3. थारा कलशा करवाने म्हारो भाव जाग्यो ॥
रंग लाग्यो…॥
 
4. थारा पूजन करवाने म्हारो भाव जाग्यो ॥
रंग लाग्यो…॥
 
5. थारी भक्ति करवाने म्हारो भाव जाग्यो ॥
रंग लाग्यो…॥
 
6. थारी वंदना करवाने म्हारो भाव जाग्यो ॥
रंग लाग्यो…॥
 
7. थारे पैदल आवाने म्हारो भाव जाग्यो ॥
रंग लाग्यो…॥
 
रंग लाग्यो महावीर, थारो रंग लाग्यो।। 
रंग लाग्यो महावीर, थारो रंग लाग्यो।। 
Mahavir swami ke mantra : सर्वबाधा निवारक घंटाकर्ण मंत्र-
 
ॐ घंटाकर्णो महावीरः सर्वव्याधि-विनाशकः।
विस्फोटक भयं प्राप्ते, रक्ष-रक्ष महाबलः ॥1॥
 
यत्र त्व तिष्ठसे देव! लिखितो ऽक्षर-पंक्तिभिः।
रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति, वात पित्त कफोद्भवाः ॥2॥
 
तत्र राजभयं नास्ति, यान्ति कर्णे जपात्क्षयम्‌।
शाकिनी-भूत वेताला, राक्षसाः प्रभवन्ति नो ॥3॥
 
नाकाले मरण तस्य, न च सर्पेण दृश्यते।
अग्नि चौर भयं नास्ति, ॐ ह्वीं श्रीं घंटाकर्ण।
 
नमोस्तुते! ऊँ नरवीर! ठः ठः ठः स्वाहा।।
 
इन मंत्रों का प्रतिदिन 21 बार जाप करने से मन के विकार, चोरी, राज, आग तथा सर्प भय एवं भूत-प्रेत आदि समस्त बाधाएं दूर होकर मनुष्य सारी परेशानियों से मुक्ति पा सकता है।

Bhagwan Mahavir Puja Vidhi महावीर स्वामी पूजन विधि
 
।। श्री महावीर जिन-पूजा ।।
 
श्री महावीर जिन-पूजा को श्री वर्द्धमान जिन-पूजा भी कहते हैं। पूजा आरंभ करने के पूर्व इसे एक बार जूर पढ़ लें जिससे कि पूजा के दौरान त्रुटि न हो।
 
छन्द मत्तगयन्द :
श्रीमत वीर हरें भवपीर, भरें सुखसीर अनाकुलताई।
केहरि अंक अरीकरदंक, नए हरि पंकति मौलि सुआई॥
मैं तुमको इत भापत हों प्रभु, भक्ति समेत हिये हरषाई।
हे करुणा-धन-धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई॥
 
ओं ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर। संवीषट्।
ओं ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। स्थापनम्‌।
ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव। वषट्।
 
छन्द अष्टपदी :
क्षीरोदधिसम शुचि नीर, कंचन भृंग भरों।
प्रभु वेग हरो भवपीर, यातें धार करों॥
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो॥1॥
 
ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
 
मलयागिर चन्दनसार, केसर संग घसों।
प्रभु भवआताप निवार, पूजत हिय हुलसों। श्रीवीर...
 
ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा॥2॥
 
तंदुलसित शशिसम शुद्ध, लीनो थार भरी।
तसु पुंज धरों अविरुद्ध, पावों शिवनगरी। श्रीवीर...
 
ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान्‌ निर्वपामीति स्वाहा॥3॥
 
सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे।
सो मनमथ भंजन हेत, पूजों पद थारे॥ श्रीवीर...
 
ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
 
रसरज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी।
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी॥ श्रीवीर...
 
ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा॥5॥
 
तमखंडित मंडित नेह, दीपक जोवत हों।
तुम पदतर हे सुखगेह, भ्रमतम खोवत हों॥ श्रीवीर...
 
ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा॥6॥
 
हरिचंदन अगर कपूर, चूर सुगंध करा।
तुम पदतर खेवत भूरि, आठौं कर्म जरा॥ श्रीवीर...
 
ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥
 
रितुफल कल-वर्जित लाय, कंचन थार भरों।
शिव फलहित हे जिनराय, तुम ढिंग भेंट धरों।
 
श्री वीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति दायक हो॥
 
ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्रायमोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥
 
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरों।
गुणगाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरों॥ श्रीवीर...
 
ओं ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्ध्यपद प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
 
पंचकल्याणक
 
राग टप्पा :
मोहि राखो हो सरना, श्री वर्द्धमान जिनरायजी, मोहि राखो.॥
गरभ साढ़सित छट्ट लियो थित, त्रिशला उर अघ हरना।
सुर सुरपति तित सेव करौ नित, मैं पूजूं भवतरना॥ मोहि...
 
ॐ ह्रीं आषाढ़ शुक्ल षष्टयां गर्भमंगल मंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
 
जनम चैत सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कनवरना।
सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भवहरना॥
मोहि राखो हो...॥
 
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला त्रयोदश्यां जन्ममंगलप्राप्तया श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥2॥
 
मंगसिर असितमनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना।
नृप कुमार घर पारन कीनों, मैं पूजों तुम चरना॥ मोहि।
राखो हो...॥
 
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामोति स्वाहा॥3॥
 
शुक्लदशै वैसाख दिवस अरि, घात चतुक क्षय करना।
केवललहि भवि भवसर तारे, जजो चरन सुख भरना॥
मोहि राखो हो...॥
 
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ल-दशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
 
कातिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुरतैं वरना।
गणफनिवृन्द जजें तित बहुविध, मैं पूजों भयहरना॥
मोहि राखो हो...॥
 
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णअमावस्यायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥5॥
 
जयमाला
 
छंद हरिगीता (28 मात्रा) :
गणधर अशनिधर, चक्रधर हलधर, गदाधर वरवदा।
अरुं चापधर, विद्यासुधर तिरशूलधर सेवहिं सदा॥
दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं।
सुकुमाल गुण मनिमाल उन्नत भालकी जयमाल है॥1॥
 
छंद घत्तानन्द :
जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगदानंदन चंदवरं।
भवतापनिकंदन, तनकनमंदन, रहित सपंदन नयन धरं॥2॥
 
छंद त्रोटक :
जय केवलभानु-कला-सदनं। भवि-कोक-विकाशन कंदवनं।
जगजीत महारिपु मोहहरं। रजज्ञान-दृंगावर चूर करं॥1॥
 
गर्भादिक-मंगलमंडित हो। दुखदारिदको नितखंडित हो।
जगमाहिं तुम्हीं सतपंडित हो। तुमही भवभाव-विहंडित हो॥2॥
 
हरिवंश सरोजनको रवि हो। बलवंत महंत तुम्हीं कवि हो।
लहि केवलधर्म प्रकाश कियो। अबलों सोइमारग राजतियो॥3॥
 
पुनि आप तने गुण माहिं सही। सुरमग्न रहैं जितने सबही।
तिनकी वनिता गुनगावत हैं। लय माननिसों मनभावत हैं॥4॥
 
पुनि नाचत रंग उमंग-भरी। तुअ भक्ति विषै पग एम धरी।
झननं झननं झननं झननं। सुर लेत तहां तननं तननं॥5॥
 
घननं घननं घनघंट बजै॥ दृमदं दृमदं मिरदंग सजै।
गगनांगन-गर्भगता सुगता। ततता ततता अतता बितता॥6॥
 
धृगतां धृगतां गति बाजत है। सुरताल रसालजु छाजत है।
सननं सननं सननं नभ में। इकरूप अनेक जु धारि भ्रमें॥7॥
 
कई नारि सुबीन बजावत हैं। तुमरो जस उज्ज्वल गावत हैं।
करताल विषै करताल धरैं। सुरताल विशाल जुनाद करैं॥8॥
 
इन आदि अनेक उछाह भरी। सुरभक्ति करें प्रभुजी तुमरी।
तुमही जग जीवन के पितु हो। तुमही बिन कारनते हितु हो॥9॥
 
तुमही सब विघ्न विनाशन हो। तुमही निज आनंदभासन हो।
तुमही चितचिंतितदायक हो। जगमाहिं तुम्हीं सबलायक हो॥10॥
 
तुमरे पन मंगल माहिं सही। जिय उत्तम पुन्य लियो सबही।
हमको तुमरी शरणागत है। तुमरे गुन में मन पागल है॥11॥
 
प्रभु मोहिय आप सदा बसिये। जबलों वसु कर्म नहीं नसिये।
तबलों तुम ध्यान हिये वरतो। तबलों श्रुतचिंतन चित्त रतो॥12॥
 
तबलों व्रत चारित चाहतु हों। तबलों शुभभाव सुगाहतु हों।
तबलों सतसंगति नित्त रहो। तबलों मम संजम चित्त गहो॥13॥
 
जबलों नहिं नाश करों अरिको, शिव नारि वरों समता धरिको।
यह द्यो तबलों हमको जिनजी। हम जाचतु हैं इतनी सुनजो॥14॥
 
घत्तानंद :
श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा, नाग नरेशा भगति भरा।
'वृंदावन' ध्यावै विघन नशावै बाँछित पावै शर्म वरा॥15॥
 
ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्राय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
 
दोहा :
श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजैं धरि प्रीति।
वृंदावन सो चतुर नर, लहैं मुक्ति नवनीत॥

॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥
 


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