भारत में जाति सर्वव्यापी तत्व है। जातियां तो दूसरे धर्मों में भी होती हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध-अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है, लेकिन बात सिर्फ हिन्दू जातियों की इसलिए होती है, क्योंकि हिन्दू बहुसंख्यक हैं और जातियों में फूट डालकर या जातिवाद को बढ़ावा देकर ही सत्ता हासिल की जा सकती है। हालांकि कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इससे धर्मांतरण करना आसान होता है।
माना जाता है कि हिन्दुओं को विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिन्दुओं को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले गए और हिन्दुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाम देकर स्पष्ट तौर पर जातियों में बांट दिया। यह कार्य मुगल काल में भी हुआ। आज जो हम हिन्दुओं में जिस तरह की जातियां देखते हैं वे कभी भी 7वीं सदी के पहले ऐसी नहीं थी। खैर..
अधिकतर लोगों को सूत, क्षुद्र, शूद्र, अछूत आदि शब्दों का अर्थ समझ में नहीं आता। इन्हीं शब्दों को जाति से जोड़कर देखा गया और बाद में आजादी के बाद दो शब्दों का और अविष्कार किया गया- हरिजन और दलित। इन दोनों ही शब्दों को जानबूझकर क्षुद्र या शूद्र शब्द से जोड़ कर प्रचारित किया गया। लेकिन अधिकतर लोगों को हिन्दू धर्म की जरा भी जानकारी नहीं है जिसका परिणाम यह हुआ कि लोग जाति में बंट गए।
दरअसल, क्षुद्र का अर्थ होता है छोटा। आकाश में कई क्षुत्र ग्रह विचरण कर रह हैं। और शूद्र का अर्थ होता है अज्ञानी। अर्थात 'शूद्रेण हि समस्तावद यावत् वेदे न जायते'' अर्थात जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है वह चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो। जो मनुष्य अपने अज्ञान तथा अविद्या के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता वह शूद्र रह जाता है। मतलब यह कि वह समाज की दौड़ में पिछड़ जाता है या नीचे रह जाता है।
इसका स्पष्ट मतलब यह है कि जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शूद्र ही है। ''जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात द्विज उच्यते।' शूद्र नाम से कोई जाति नहीं और ना ही कोई वर्ण है।जो खुद को शूद्र समझते हैं यह बात उनके दिमाग में सैकड़ों वर्षों में बैठाई गई है। बार बार किसी झूठ को दोहराने से वह सत्य लगने लगता है और समाज उसे ही सत्य मानता रहता है।
अब बात करते हैं सूत शब्द की। यह सूत शब्द क्षुद्र और शूद्र से भिन्न है। प्राचीन काल में हर देश के लोग अपने समाज में ही विवाह करते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि समाज में किसी अन्य समाज का रक्त मिले। यह आज भी होता है।
गौरवर्ण के यूरोपीय लोग नहीं चाहते हैं कि उनके लोग अफ्रीकी लोगों से विवाह करें। ऐसे लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। आज भी यहूदी और परसी दूसरे समाज के लोगों से विवाह करने को बुरा मानते हैं। यह भावना किसी धर्म से नहीं आती है यह सामाजिक भावना है। इसी तरह की भावना भारत में भी थी। कहते हैं कि जो लोग अंतरजातीय विवाह कर लेते थे उन्हें समाज से अलग कर दिया जाता था। ऐसे लोगों का ही एक अलग समाज बन जाता था। इन्हीं समाज के लोगों को अलग अलग काल में अलग नामों से पुकारा जाने लगा।
हालांकि राजा लोग इस मामले में अपवाद थे। मतलब यह कि जिसके पास शक्ति है उसके सभी तरह के अपराध क्षम्य होते थे। यह भी कि उसके उस पुत्र को राज्य का अधिकार नहीं मिलता था जिसकी माता किसी अन्य समाज से हो।
क्षत्रियाद्विप्र कन्यायां सूतो भवति जातितः।
वैश्यान्मागध वैदेहो राजविप्राड.गना सुतौ।। -10वें अध्याय का 11वां श्लोक
मनु स्मृति से हमें ज्ञात होता है कि 'सूत' शब्द का प्रयोग उन संतानों के लिए होता था, जो ब्राह्मण कन्या से क्षत्रिय पिता द्वारा उत्पन्न हों।
लेकिन कर्ण तो सूत्र पुत्र नहीं, सूर्यदेव के पुत्र थे। कर्ण को शस्त्र विद्या की शिक्षा द्रोणाचार्य ने ही दी थी। कर्ण द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग भी सीखना चाहता था। हालांकि द्रोणाचार्य ने भीष्म को शपथ दी थी कि मैं सिर्फ हस्तिनापुर के राजपुत्रों और अधिकारियों को ही धनुर्विद्या की शिक्षा दूंगा। इसीलिए उन्होंने एकलव्य को भी शिक्षा देने से इनकार कर दिया था। उल्लेखनीय है कि एकलव्य भी राजपुत्र था।
कर्ण कुंती के सबसे बड़े पुत्र थे और कुंती के अन्य 3 पुत्र उनके भाई थे। कुंती के कुल चार पुत्र थे। दो पुत्र नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे।
कौन्तेयस्त्वं न राधेयो न तवाधिरथः पिता।
सूर्यजस्त्वं महाबाहो विदितो नारदान्मया।।- (भीष्म पर्व 30वां अध्याय)
कुंती श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन और भगवान कृष्ण की बुआ थीं। एक बार कुंती की सेवा से ऋषि दुर्वासा ने प्रसन्न होकर उन्हें एक गुप्त मंत्र दिया और कहा, इस मंत्र जप से जिस भी देवता का स्मरण करोगी वह तुम्हारे समक्ष उपस्थित होकर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करेगा। एक दिन कुंती के मन में आया कि क्यों न इस मंत्र की जांच कर ली जाए। कहीं यह यूं ही तो नहीं?
तब उन्होंने एकांत में बैठकर उस मंत्र का जाप करते हुए सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव प्रकट हो गए। कुंती हैरान-परेशान अब क्या करें? तब कुंती ने कहा, 'हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने मंत्र की सत्यता परखने के लिए जाप किया था।' कुंती के इन वचनों को सुनकर सूर्यदेव बोले, 'हे कुंती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक अत्यंत पराक्रमी तथा दानशील पुत्र देता हूं।' इतना कहकर सूर्यदेव अंतर्ध्यान हो गए।
जब कुंती हो गई गर्भवती, तब लज्जावश यह बात वह किसी से नहीं कह सकी और उसने यह छिपाकर रखा। समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुंडल धारण किए हुए एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुंती ने उसे एक मंजूषा में रखकर रात्रि को गंगा में बहा दिया।
वह बालक गंगा में बहता हुआ एक किनारे से जा लगा। उस किनारे पर ही धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि मंजूषा में रखे इस शिशु पर पड़ी। अधिरथ ने उस बालक को उठा लिया और अपने घर ले गया। अधिरथ निःसंतान था। अधिरथ की पत्नी का नाम राधा था। राधा ने उस बालक का अपने पुत्र के समान पालन किया। उस बालक के कान बहुत ही सुन्दर थे इसलिए उसका नाम कर्ण रखा गया। इस सूत दंपति ने ही कर्ण का पालन-पोषण किया था इसलिए कर्ण को 'सूतपुत्र' कहा जाता था तथा राधा ने उसे पाला था इसलिए उसे 'राधेय' भी कहा जाता था।
सोचिए यदि महाभारत युद्ध के पूर्व ही यह सार्वजनिक हो जाता कि कर्ण एक सूत पूत्र नहीं है वह तो कुंती का पुत्र है तो युधिष्ठिर की जगह उसे ही सर्वप्रथम राज्य का अधिकार मिलता और दुर्योधन भी तब उसका शत्रु होता।
अछूत नहीं होते हैं शूद्र:
शूद्र का अर्थ होता है अज्ञानी, अशिक्षित और वेद विरुद्ध कर्म करने वाला। मनुस्मृति में शूद्रों को कहीं अछूत नहीं कहा है। महर्षि मनु ने शूद्र वर्ण के व्यक्तियों के लिए 'शुचि' = पवित्र, 'ब्राह्मणाद्याश्रयः' = 'ब्राह्मण आदि के साथ रहने वाला' जैसे विशेषणों का उल्लेख किया है।
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवाक्-अनहंकृतः।
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥ (9.335)
अर्थ अर्थात शुचि:= स्वच्छ-पवित्र और उत्तमजनों के संग में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों के आश्रय में रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम जाति=वर्ण को प्राप्त कर लेता है।' शूद्रवर्णस्थ व्यक्ति अशिक्षित होने के कारण ब्राह्मणों सहित सभी द्विजवर्णों के घरों में सेवा या श्रम कार्य करते थे। मनु ने कहा है-
विप्राणां वेदविदुषां गूहस्थानां यशस्विनाम्
शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैःश्रेयसः परः॥ (9.334)
अर्थात- वेदों के विद्वान् द्विजों, तीनों वर्णों के प्रतिष्ठित गृहस्थों के यहां सेवाकार्य (नौकरी) करना ही शूद्र का हितकारी कर्त्तव्य है। हालांकि वर्तमान में घरों में ही नहीं कार्यालयों और अन्य संस्थानों में भी सभी वर्गों के लोग कार्य करते हैं।