एकलव्य को कुछ लोग शिकारी का पुत्र कहते हैं और कुछ लोग भील का पुत्र। कुछ लोग यह कहकर प्रचारित करते हैं कि शूद्र होने के कारण एकलव्य को गुरु द्रोणाचार्य ने शिक्षा नहीं दी थी। लेकिन यह सभी बातें गलत है। एकलव्य न तो भील थे और न ही आदिवासी वे निषाद जाति के थे। निषाद नामक एक जाति आज भी भारत में निवास करती है।
उल्लेखनीय है कि धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर की दादी सत्यवती एक निषाद कन्या ही थी। सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य की पत्नियों ने वेदव्यास के नियोग से दो पुत्रों को जन्म दिया और तीसरा पुत्र दासी का था। अम्बिका के पुत्र धृतराष्ट, अम्बालिका के पुत्र पांडु और दासीपुत्र विदुर थे।
महाभारत काल में प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। एक मान्यता अनुसार वे श्रीकृष्ण के चाचा का पुत्र था जिसे उन्होंने निषाद जाति के राजा को सौंप दिया था।
उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्यों के समान ही थी। निषादराज हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। द्रोणभक्त एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे। उनकी माता का नाम रानी सुलेखा था।
प्रारंभ में एकलव्य का नाम अभिद्युम्न रखा गया था। प्राय: लोग उसे अभय नाम से ही बुलाते थे। पांच वर्ष की आयु में एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरुकुल में की गई। यह ऐसा गुरुकुल था जहां सभी जाति और समाज के उच्चवर्ग के लोग पढ़ते थे।
एकलव्य एक राजपुत्र थे और उनके पिता की कौरवों के राज्य में प्रतिष्ठा थी। बालपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में बालक की लय, लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने बालक का नाम 'एकलव्य' रख दिया था। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया।
एक बार पुलक मुनि ने जब एकलव्य का आत्मविश्वास और धनुष बाण को सिखने की उसकी लगन को देखा तो उन्होंने उनके पिता निषादराज हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए। पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले जाते हैं, लेकिन गुरु द्रोण सिर्फ करुकुल और राज दरबार के लोगों को ही धनुष विद्या सिखाने के प्रति भीष्म से वचनबद्ध थे इसलिए उन्होंने एकलव्य को शिक्षा देने से इनकार कर दिया। एकलव्य के सूत पूत्र होने का कोई मामला ही नहीं था। गुरु द्रोण ने सूत पुत्र कहे जाने वाले कर्ण को भी तो शिक्षा दी थी।
द्रोणाचार्य ने जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ उन्हें युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र की हत्या का कारण भी वे ही बने थे और उसी अर्जुन के साले के हाथों उनकी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। खैर।
एकलव्य का एक पुत्र था जिसका नाम केतुमान था। एकलव्य के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसका पुत्र केतुमान सिंहासन पर बैठता है और वह कौरवों की सेना की ओर से पांडवों के खिलाफ लड़ता है। महाभारत के युद्ध में वह भीम के हाथ से मारा जाता है।