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इस बार संसद में पहले से दमदार होंगे मुसलमान

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, शनिवार, 25 मई 2019 (12:01 IST)
अगर इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रचंड बहुमत की चर्चा हो रही तो ये बात भी हर कोई कह रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा छह मुसलमान चुनाव जीत कर संसद पहुंच गए हैं।
 
 
भारत में 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जबरदस्त वापसी हुई। वैसे ही उत्तर प्रदेश के इस लोक सभा चुनाव में एक खास बात हुई है। मुस्लिम सांसदों का वनवास खत्म हो गया। साल 2014 में एक भी मुस्लिम सांसद के ना जीतने की भरपाई हो गयी और इस बार आधा दर्जन यानी छह मुसलमान संसद में उत्तर प्रदेश से जाएंगे।
 
 
क्या ये मुसलमानों की प्रदेश में लगभग खत्म हो चुकी राजनीति को संजीवनी देगा? क्या मुसलमान उत्तर प्रदेश में सेक्युलर पार्टियों से इतर अपनी राजनीतिक जमीन तलाशेगा?
 
 
कौन कौन मुसलमान जीता
मुसलमानों का चुनाव में रिजल्ट फर्स्ट डिवीजन कहा जायेगा। गठबंधन ने कुल 10 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे। जिसमे बीएसपी ने छह और समाजवादी पार्टी ने चार उम्मीदवार मुसलमान दिए थे। समाजवादी पार्टी के तीन उम्मीदवर, रामपुर से आजम खान, संभल से शाफिकुर रहमान बर्क और मुरादाबाद से डॉ एस टी हसन जीत गए। बीएसपी के टिकट पर सहारनपुर से हाजी फजलुर रहमान, गाजीपुर से अफजाल अंसारी और अमरोहा से कुंवर दानिश अली ने जीत दर्ज की।
 
 
जो मुसलमान हारे उन्होंने भी कड़ी टक्कर दी जैसे मेरठ से याकूब कुरैशी, धौरहरा से अरशद इलियास, डुमरियागंज से आफताब आलम और कैराना से तबस्सुम हसन। भले ये कम लगे लेकिन 10 सीट में से छह जीतना अच्छा ही कहा जायेगा।
 
 
उत्तर प्रदेश में लगभग 18% मुस्लिम आबादी है। ऐसे में पिछली बार एक भी मुसलमान का न जीतना अखर गया था। हालांकि उसके बाद हुए उपचुनाव में कैराना से तबस्सुम हसन जीत गई थीं।
 
 
क्या पैटर्न रहा मुस्लिम वोटिंग का
सबसे हैरानी की बात ये है कि मुसलमानों ने कांग्रेस को पूरी तरह नकार दिया। उनकी पहली पसंद गठबंधन ही रहा। कांग्रेस ने नौ मुसलमानों को टिकट दिया था। इसमें अगर सहारनपुर से इमरान मसूद को छोड़ दें तो बाकी बुरी तरह हारे जिसमे बड़े चेहरे जैसे बिजनौर से नसीमुद्दीन सिद्दीकी, मुरादाबाद से शायर इमरान प्रतापगढ़ी, खीरी से जफर अली नकवी इत्यादि।
 
 
यहां यह भी देखिये बिजनौर में मुसलमान लगभग 40% तक आबादी है लेकिन उन्होंने बीएसपी के मलूक नागर को वोट देकर जिता दिया। नसीमुद्दीन सिद्दीकी सिर्फ 25,833 वोट पर सिमट गए। उसी तरह शायर इमरान प्रतापगढ़ी मुरादाबाद से जहां मुसलमान काफी संख्या में हैं वहां से सिर्फ 59,198 वोट पा सके।
 
 
लखनऊ में मुस्लिम मामलों के जानकार आसिफ जाफरी कहते हैं, "मतलब साफ है मुसलमानों ने सिर्फ जीतने वाले मुस्लिम पर दांव लगाया। पिछली बार एक भी ना जीत पाने की वजह से मुसलमान बहुत चिंतित था। इस बार उसने सोच समझ कर वोट दिया और अपने उम्मीदवार जिता लिए।"
 
 
हैदराबाद से चौथी बार जीतने वाले सांसद असदुद्दीन ओवैसी कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को अब समझ आ चुका है कि अब अपने पैर का कांटा खुद से ही निकलेगा। हमारी पार्टी पर आरोप लगाते हैं कि बीजेपी के एजेंट है। तो इस चुनाव में एसपी और बीएसपी ने क्यों नहीं उत्तर प्रदेश में बीजेपी को रोक लिया। क्योंकि ये सिर्फ मुस्लिम वोट लेते हैं और अपना वोट नहीं ला पाते।"
 
 
ओवैसी ने चुनाव के रिजल्ट के बाद बताया कि अब वो उत्तर प्रदेश में बिलकुल एक्टिव रहेंगे और वहां पर मुसलमानों के लिए एसपी बीएसपी से इतर एक विकल्प देंगे। अब कोशिश ये होंगी, की आइये, हमसे गठबंधन करिए।
 
 
इस चुनाव से पहले बहुत से लोग उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की राजनीति खत्म होने का एलान कर चुके थे। ऐसे में ये जीत दुबारा मुसलमानों को हाशिये से वापस मेनस्ट्रीम में ले आई है। सहारनपुर के पत्रकार आस मोहम्मद कैफ कहते हैं, "जहां जहां मुसलमान थे वहां गठबंधन का उम्मीदवार ठीक लड़ा। अखिलेश यादव भी आजमगढ़ से मुसलमानों के दम पर जीत पाए वरना वो अपनी पत्नी की सीट कन्नौज और भाई धर्मेन्द्र की सीट बदायूं नहीं बचा पाए।”
 
 
मुसलमानों ने सीधा मैसेज दे दिया है तथाकथित सेक्युलर पार्टियों को कि उनकी राजनीति अब सिर्फ मुसलमानों के दम पर बची है। चुनाव में जीतना और सम्मानजनक वोट पाना सिर्फ मुसलमानों के दम पर होगा। खतरा अब उनके लिए है जो अपनी बिरादरी का वोट ले कर राजनीति कर रहे थे। उदहारण के तौर पर धर्मेन्द्र यादव बदायूं सीट में यादव बाहुल गुन्नौर विधानसभा सीट जहां से कभी मुलायम सिंह यादव विधायक थे वहां से भी बढ़त ना हासिल कर पाए।
 
 
क्या भविष्य है उत्तर प्रदेश में मुस्लिम पार्टियों का
वैसे मोटे तौर पर उत्तर प्रदेश में दो पार्टियां लड़ी थीं जिनके अध्यक्ष मुसलमान हैं। आजमगढ़ की राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल और पीस पार्टी। दोनों ही बुरी तरह हार गयी। सम्मानजनक वोट भी ना मिल सका। पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ अयूब के बेटे मोहम्मद इरफान तो डुमरियागंज से लडे और केवल 5765 वोट पा सके। राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल भी आजमगढ़ में बुरी तरह हार गयी।
 
 
इसके मायने साफ हैं। मुसलमान अब सिर्फ मुस्लिम नाम से वोट नहीं देगा। वो भी अपने कैंडिडेट को जीतते देखना चाहता है। गठबंधन के मुस्लिम उम्मीदवारों के जीतने कि वजह ये भी रही कि वो दूसरी जगह से वोट लाने में असरदार थे जैसे गाजीपुर से अफजाल अंसारी जिन्होंने मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य मनोज सिन्हा को हरा दिया।
 
 
सिर्फ मुसलमान नाम से पार्टी नहीं चलेगी। अछूत की तरह राजनीति नहीं करनी है। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद इसको दूसरे नजरिए से देखते हैं। वो बताते हैं, "अच्छी बात है कि रिप्रजेंटेशन बढ़ा हैं लेकिन आगे की राजनीति इस पर निर्भर करेगी कि अब ये मुस्लिम सांसद कैसा परफॉर्म करते हैं। अब इनको अपना मुंह खोलना होगा, संसद और संसदीय समिति में बोलना होगा, मुद्दे उठाने होंगे। सफल रहे अच्छा परफॉर्म किया तो निसंदेह ये एक बड़ी बात होगी।"
 
 
रिपोर्ट फैसल फरीद

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