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क्या लगाना ही होगा कोरोना वायरस का बूस्टर डोज?

हमें फॉलो करें क्या लगाना ही होगा कोरोना वायरस का बूस्टर डोज?

DW

, शनिवार, 27 नवंबर 2021 (07:35 IST)
टीके का दूसरा डोज लगने के बाद शरीर में एंटीबॉडीज कम होने लगती हैं। कई चिकित्सकों का मानना है कि बूस्टर टीका इसका समाधान हो सकता है लेकिन कुछ शोधकर्ता ये भी देख रहे हैं कि क्या टी-कोशिकाएं मददगार हो सकती हैं।
 
अभी के लिए कोविड-19 बूस्टर टीका अनिवार्य बताया जा रहा है क्योंकि समय के साथ खून में एंटीबॉडी की संख्या कम होने लगती है। एमआरनए वैक्सीनों की दूसरी डोज लगने के बाद उनका असर छह महीने बाद घटने लगता है।
 
जॉनसन ऐंड जॉनसन की बनाई एकल वैक्सीन आने के बाद, टीकाकरण पर जर्मनी की स्थायी समिति (स्टाइको) ने सिफारिश भी की है कि छह महीने पूरा होने से पहले लोग बूस्टर डोज लगा सकते हैं।
 
नये वायरसों के खिलाफ जिस तरह फ्लू के नये टीके बनाए जाते हैं, उसी तरह भविष्य के कोविड-19 निरोधी टीकों को शायद इस तरह समायोजित करना पड़ेगा कि वे कोरोना वायरस के नये वेरिएंटों के खिलाफ प्रभावी बचाव कर सकें। डेल्टा वेरिएंट के म्युटेशन के खिलाफ बचाव के लिए पहले ही टीके तैयार किए जा रहे हैं।
 
वैश्विक से स्थानिक की ओर कोविड-19
यूरोप में संक्रमण की मौजूदा दर को देखते हुए, एक मौका अभी भी है कि संक्रामक रोग और टीकाकरण के मिलेजुले प्रभाव से हर्ड इम्युनिटी यानी सामहूकि रोग प्रतिरोधक शक्ति विकसित की जा सकती है।
 
जहां तक प्रतिरोध की बात है तो सवाल सिर्फ एंटीबॉडी का नहीं है। जैसा कि हाल में वैज्ञानिक जर्नल नेचर में प्रकाशित ब्रिटेन और सिंगापुर के शोधकर्ताओं की एक विशाल टीम के अध्ययन से हासिल, शुरुआती और विशेषज्ञों की समीक्षा का इंतजार कर रहे निष्कर्षों में पाया गया है।
 
महीनों की अवधि में शोधकर्ताओं ने ऐसे स्वास्थ्यकर्मियों का मुआयना किया जो कोरोनावायरस के संभावित संक्रमित तो थे लेकिन कोविड-19 के लक्षणों के हिसाब से बीमार नहीं पड़े थे और उनके टेस्ट कभी पॉजिटिव नहीं आए थे। उनके खून में एंटीबॉडी से जुड़े परीक्षणों से भी कोई उल्लेखनीय नतीजे नहीं मिले थे।
 
मेमरी टी-कोशिकाओं की मजबूती
शोधकर्ताओं ने पाया कि 58 सीरोनेगेटिव स्वास्थ्यकर्मियों (एसएन-एचसीडब्लू) में बहुवैशिष्ट्य वाली मेमरी टी-सेल्स अपेक्षाकृत रूप से ज्यादा थी जिनके कोरोनावायरस की जद में आने की संभावना काफी कम थी। इन टी-कोशिकाओं को खासतौर पर, असरदार तरीके से वायरस फैलाने वाले प्रतिकृति लिप्यंकन संकुल (रेप्लिकेशन ट्रांसक्रिप्शन कॉम्प्लेक्स- आरटीसी) के खिलाफ निर्देशित किया गया था।
 
अध्ययन में पाया गया कि सीरोनेगेटिव स्वास्थ्यकर्मियों की टी-कोशिकाओं में आईएफआई127 नामक प्रोटीन ज्यादा ऊंची मात्रा में पाया गया था। ये प्रोटीन सार्स-कोवि-2 का एक मजबूत शुरुआती और स्वाभाविक प्रतिरूप होता है। अध्ययन का निष्कर्ष था कि इस प्रोटीन की उपस्थिति का मतलब है कि संक्रमण अधूरा या नाकाम रह जाता है।
 
इसीलिए टी-कोशिकाएं संक्रमण को संभवतः शुरुआती अवस्था में ही दबोच लेती हैं। ये बात स्पष्ट नहीं है कि शोध में शामिल उन 58 स्वास्थ्यकर्मियों में इतनी असाधारणा अधिकता वाला टी-कोशिका प्रतिरोध आया कहां से। क्या वो किसी अलग कोरोनावायरस से हुए पूर्व संक्रमण से आया हो सकता है, जैसे कि सर्दी का वायरस?
 
संभावित निष्कर्ष ये हो सकता है कि सार्स-कोवि-2 जैसे कोरोनावायरसों की चपेट में बार बार आने से बीमारी स्थानिक या लोकल होती जाती है और अगर लोग थोड़ी थोड़ी संख्या में विषाणुओं के संपर्क में अक्सर आते रहें तो इससे उनमें रोग प्रतिरोधक प्रणालियां और मजबूत होंगी और वे एंटीबॉडीज या टी-कोशिकाओं के जरिए बेहतर ढंग से मुकाबला कर पाएंगी। यही चीज हमें हर्ड इम्युनिटी यानी सामूहिक रोग प्रतिरोधक शक्ति के और करीब ले जाएगी।
 
अभी तक शोधकर्ताओं ने सावधानी बरतने की सिफारिश की है और इस बात पर जोर दिया है कि कोई भी व्यक्ति खुद को पूरी तरह से सुरक्षित न माने और ये न समझ बैठें कि वे कोरोनावायरस से निरापद हैं, क्योंकि इस बात का जोखिम पूरा है कि अभी कोई प्रतिरक्षित हुआ ही न हो।
 
रिपोर्ट : फाबियान श्मिट 
 

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