पौराणिक कथा के अनुसार पितृ भक्ति का एक विलक्षण उदाहरण महाभारत (mahabharata story) में देवव्रत के पात्र के रूप में मिलता है।
हस्तिनापुर नरेश शांतनु का पराक्रमी एवं विद्वान पुत्र देवव्रत उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी था, लेकिन एक दिन शांतनु की भेंट निषाद कन्या सत्यवती से हुई और वे उस पर मोहित हो गए। उन्होंने सत्यवती के पिता से मिलकर उसका हाथ मांगा।
सत्यवती के पिता ने हस्तिनापुर नरेश शांतनु के सामने एक शर्त रखी कि मेरी पुत्री से होने वाले पुत्र को राजसिंहासन का उत्तराधिकारी बनाने का वचन देने पर ही मैं इस विवाह की अनुमति दे सकता हूं। शांतनु देवव्रत के साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकते थे। वे दुखी होकर वहां से लौट आए, लेकिन सत्यवती के वियोग में व्याकुल रहने लगे। उनका स्वास्थ्य दिनोंदिन गिरने लगा।
जब उनके पराक्रमी पुत्र देवव्रत को पिता के दुख का कारण पता चला, तो वे सत्यवती के पिता से मिलने जा पहुंचे और उन्हें आश्वस्त किया कि शांतनु के बाद सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का सम्राट बनेगा।
तब उत्तर में निषाद ने कहा कि आप तो अपना दावा त्याग रहे हैं लेकिन भविष्य में आपकी संतानें सत्यवती की संतान के लिए परेशानी खड़ी नहीं करेंगी, इसका क्या भरोसा!
तब देवव्रत ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी और उसने वहीं प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे। इस पर निषाद सत्यवती का हाथ शांतनु को देने के लिए राजी हो गए।
जब शांतनु को अपने पुत्र की प्रतिज्ञा का पता चला, तो उन्होंने उसे इच्छा मृत्यु का वरदान दिया और कहा कि अपनी प्रतिज्ञा के कारण अब तुम 'भीष्म' के नाम से जाने जाओगे और इसी नाम से विश्वविख्यात होगोगे। पिता-पुत्र की यह कहानी आज भी समाज के लिए एक पितृप्रेम का एक अनुपम उदाहरण है।