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फ्री का ही सोचना है तो क्यों न बड़ा ही सोचें !

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नम्रता जायसवाल

छोटा सोचने से क्या फायदा... 

 
 
 
एक बार कि बात है एक गांव में एक गरीब लड़का रहता था। उसके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। कई-कई बार तो हालात ऐसे हो जाते थे कि उसके घर में सभी सदस्यों के लिए पेटभर खाना तक नहीं बन पाता था। जैसे-तैसे उसके माता-पिता ने उसे ग्रेजुएशन तक पढ़ा दिया था। पढ़ाई पूरी होने के बाद एक दिन यह लड़का किसी शहर में इंटरव्यू देने के लिए जा रहा था। वह ट्रैन में सफर कर रहा था।
 
जब दिन के खाने का समय हुआ तब आस-पास बैठे सभी लोग अपना टिफिन खोलकर खाने लगे। उन्हें देख लड़के की भी भूख जाग गई और उसने भी अपना टिफिन निकाला। लेकिन आज उसके टिफिन में केवल रोटी ही थी और सब्जी नहीं थी। वह रोटी के साथ सब्जी लगाने जैसा अभिनय करता और कौर मूंह में डाल लेता। उसे बार-बार ऐसा करते देख आस-पास के लोग हैरान हो रहे थें। तभी एक आदमी ने लड़के से पूछा कि जब तुम्हारे टिफिन में रोटी के साथ खाने को कुछ हैं ही नहीं तो तुम ऐसे रोटी के साथ सब्जी लगाने का नाटक क्यों कर रहें हो?
 
इस पर लड़के ने जवाब दिया कि मैं ऐसा सोच कर खां रहा हू कि जैसे मेरे टिफिन में रोटी के साथ अचार रखा हैं। इस पर उस आदमी ने कहा कि क्या ऐसा करने से तुम्हे अचार का स्वाद आ रहा है?
 
लड़के ने जवाब दिया, हां ऐसा सोचने मात्र से ही मुझे रोटी स्वादिष्ट लग रही है। तभी उनकी बातें सुन रहें एक दूसरे आदमी ने कहा कि यदि सोचने मात्र से ही स्वाद आ रहा हैं तो फिर मटर पनीर या शाही पनीर सोचों न!  
अचार का स्वाद क्यों ले रहें हो?
 
तो दोस्तों आखिर इस व्यक्ति ने सही ही तो कहा कि जब सोचना ही हैं तो क्यों न बड़ा ही सोचा जाएं! बड़ा सोचेंगे तभी तो कुछ बड़ा काम कर पाएंगे। जब हम फ्री में सोच कर महसूस कर सकते हैं तो फिर छोटा क्यों सोचे?
 

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