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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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कविता : तमन्नाओं पे शर्मिंदा

हमें फॉलो करें कविता : तमन्नाओं पे शर्मिंदा
डॉ. रूपेश जैन 'राहत'

अपनी तमन्नाओं पे शर्मिंदा क्यूं हुआ जाए,
एक हम ही नहीं जिनके ख़्वाब टूटे हैं।
 
इस दौर से गुजरे हैं ये जान-ओ-दिल,
संगीन माहौल में जख़्म सम्हाल रखे हैं।
 
नजर उठाई बेचैनी शरमा के मुस्कुरा गई,
ख़्वाब कुछ हसीन दिल से लगा रखे हैं।
 
दियार-ए-सहर1 में दर्द-शनास2 हूं तो क्या,
बेरब्त उम्मीदों में ग़मजदा और भी हैं।
 
अहद-ए-वफा3 करके 'राहत' जुबां चुप है,
वरना आरजुओं के ऐवां4 और भी हैं।
 
शब्दार्थ-
 
1. दियार-ए-सहर- सुबह की दुनिया
2. दर्द-शनास- दर्द समझने वाला 
3. अहद-ए-वफा- प्रेम प्रतिज्ञा
4. ऐवां- महल

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