- अजहर हाशमी
पैगम्बरे- इस्लाम हजरत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक और सौहार्द के संदेशवाहक थे। इंसानियत के तरफदार और परस्पर प्यार के पैरोकार थे, इसलिए आपने मोहब्बत का पैगाम दिया तथा बुग्ज (कपट) और गीबत (चुगली) से सख्त परहेज किया।
इन पंक्तियों के लेखक के मत में मानवता की मिसाल और मोहब्बत की महक का नाम है मोहम्मद (सल्लाल्लाहु अलैहि व सल्लम)। एक वाक्य में कह सकते हैं कि हजरत मोहम्मद की सीरते-पाक (पवित्र-चरित्र-गुण) दरअसल सहिष्णुता की सरिता है जिसमें सौहार्द का सतत प्रवाह है।
हजरत मोहम्मद का व्यक्तित्व सत्य और सद्भावना का संस्कार है तो कृतित्व इस संस्कार के व्यवहार की विमलता का विस्तार। आप चूंकि धार्मिक सहिष्णुता के पक्षधर थे, लिहाजा किसी भी किस्म के फसाद (दंगा/झगड़ा) को, जो सामाजिक सौहार्द के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देता है, नापसंद फरमाते थे। आप अम्नो-सुकून (शांति और चैन) के हिमायती थे और मानते थे कि समाज की खुशहाली की इमारत बंधुत्व की बुनियाद पर ही निर्मित हो सकती है।
फसाद एकता के लिए कहर और सौहार्द के लिए जहर होता है। पवित्र ग्रंथ कुरआन में अल्लाह का फरमान है 'ला यु हिबुल्लाहिल मुफसेदीन' अर्थात् अल्लाह फसाद करने वालों से मोहब्बत नहीं करता। इसी कुरआने पाक की एक और आयत है जिसमें फरमाया गया है 'व मय्युहिब्बुल्लाहिल मोहसेनीन' अर्थात् अल्लाह अहसान करने वालों यानी सौहार्द बढ़ाने वालों से मोहब्बत करता है।
हजरत मोहम्मद की धार्मिक सहिष्णुता को रेखांकित करने के लिए दो महत्वपूर्ण दृष्टांत पर्याप्त हैं। दोनों ही दृष्टांत ऐतिहासिक हैं, इसलिए ज्वलंत उदाहरण भी हैं और दस्तावेजी प्रमाण भी।
पहला दृष्टांत यह है कि हजरत मोहम्मद ने 'मीसाके-मदीना' (मदीना का दस्तूर अर्थात् मदीना का संविधान) तैयार करवाया था जो उस दौर का पहला-दस्तूर था, जिसमें पैंतालीस दफआत (धाराएं) थीं। 'मीसाके-मदीना' दस्तावेजी शक्ल में था, जिसकी प्रारंभिक पंद्रह धाराओं में धार्मिक सहिष्णुता को प्राथमिकता देकर मुसलमानों और यहूदियों तथा अन्य अकीदे को मानने वाले लोगों को अन्तःकरण और विश्वास की स्वंतत्रता की बुनियाद को पुख्ता किया गया था। हजरत मोहम्मद चूंकि रहमतुललिल -आलमीन (समस्त दुनिया के लिए कृपा के रूप में) है, इसलिए भी धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक हैं।
कुरआने-पाक के तीसवें पारे (अध्याय) की सूरे काफेरून की आयत में अल्लाह का इर्शाद है कि 'लकुम दीनोकुम वलेयदीन' अर्थात तुम्हें तुम्हारा मजहब मुबारक और मुझे मेरा मजहब मुबारक। यानी 'हम अपने-अपने मजहबी अकीदे पर रहें।' कुरआने-पाक की उक्त आयत को हजरत मोहम्मद (सल्ल.) ने अपने आचरण और व्यवहार (अमली जिन्दगी) में लाकर धार्मिक सहिष्णुता का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत किया।
यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि कुरआने-पाक की उक्त आयत (तीसवें पारे की सूरे-काफेरून की आयत 'लकुम दीनोकुम वलेयदीन') और पावन श्रीमद्भगवत गीता के सातवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक 'यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्घयार्चितुमिच्छति' अर्थात् जिस भक्त की जैसी धार्मिक श्रद्घा हो उसी के अनुरूप आचरण करना तथा इसी प्रकार जैन दर्शन के 'स्याद्वाद' में धार्मिक सहिष्णुता बिल्कुल एक समान परिलक्षित होती है। इसके अलावा भी कुरान में ऐसी कई आयतें हैं जिसमें धार्मिक सहिष्णुता के उदाहरण मिलते हैं।