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जर्मनी को चीन के बदले अब भारत चाहिए

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राम यादव

Germany needs India : रूस-यूक्रेन युद्ध, रूस और चीन के बीच घनिष्ठता को जिस तरह गाढ़ा कर रहा है, उसने चीन की आर्थिक प्रगति पर मुग्ध पश्चिमी देशों को अपनी बुद्धिमत्ता पर पुनर्विचार करने के लिए विवश कर दिया है। पुनर्विचार उन्हें इस बात पर भी करना पड़ रहा है कि भारत की अब तक उपेक्षा और उसकी निंदा-आलोचना कितनी बुद्धिमत्तापूर्ण थी?
 
उन्हें सोचना पड़ रहा है कि भारत की जनता की ओर से लगातार दो बार जनादेश प्राप्त भाजपा और नरेंद्र मोदी को 'हिंदू राष्ट्रवादी' और 'फ़ासीवादी' बताकर अछूत जर्मन नाज़ियों और फ़ासिस्टों की पांत में खड़ा करना कितना सही था? भारत को हेठी नज़रों से देखने वाले पश्चिमी नेताओं को रूस-यूक्रेन युद्ध के डेढ़ ही साल के भीतर समझ में आने लगा है कि भारत एक महाशक्ति बनने के रास्ते पर है। उन्हें लगने लगा है कि उनके अपने सुखद भविष्य के लिए भी एशिया में भारत ही उनका सबसे सही स्वाभाविक साथी हो सकता है। 
 
यही कारण है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दृष्टि से भारत अगले 2-3 वर्षों में जिस जर्मनी को पीछे छोड़ देगा, उसके चांसलर (प्रधानमंत्री) सहित चार प्रमुख मंत्री एक-के-बाद- एक इसी वर्ष भारत पहुंच चुके हैं। वाइस चांसलर एवं अर्थमंत्री रोबेर्ट हाबेक तथा श्रममंत्री हूबेर्टुस हाइल जुलाई के तीसरे सप्ताह में एक ही समय भारत में थे। 
 
चीन के मुकाबले भारत को प्राथमिकता : रोबेर्ट हाबेक चीन के मुकाबले भारत को प्राथमिकता देना चाहते हैं। वे भारत में जर्मन निवेश बढ़ना और भारत तथा यूरोपीय संघ के बीच जल्द ही एक मुक्त व्यापार समझौता (FTA) होते देखना चाहते हैं। श्रममंत्री हाइल चाहते हैं कि आईटी (इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी) के ही नहीं, हर प्रकार के अधिक से अधिक भारतीय युवा कुशलकर्मी नौकरी की तलाश में जर्मनी आएं। हर प्रकार के कुशलकर्मियों का जर्मनी में इस समय अकाल पड़ गया है।
 
दस वर्षों से भी अधिक समय के बाद रोबेर्ट हाबेक के रूप में जर्मनी के किसी अर्थमंत्री का पहली बार भारत की यात्रा करना यही दिखाता है कि जर्मनी को भारत की कितनी ज़रूरत है। जर्मनी के पिछले अर्थमंत्रियों की तरह पहले चीन जाने के बदले उनके भारत पहुंचने से उनकी भारत यात्रा का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। हाबेक ने चीन के बदले भारत को अनायास ही वरीयता नहीं दी है। वे जर्मनी की पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी के एक ऐसे वरिष्ठ नेता हैं, जो चीन पर जर्मनी की निर्भरता को यथासंभव कम करना चाहते हैं।
 
मुक्त व्यापार समझौता : जर्मनी की ढेर सारी कंपनियों को आशा है कि दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति भारत और यूरोपीय संघ के बीच यदि मुक्त व्यापार समझौता (एफ़टीए) हो जाए तो उनके लिए भारत के साथ व्यापार करना आसान हो जाएगा। लेकिन यह कामना जर्मनी और यूरोपीय संघ ही नहीं कर रहे हैं- भारत, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते की बातचीत कर रहा है।
 
अमेरिका जैसे कई दूसरे देश भी इस प्रकार के समझौतों द्वारा भारत के साथ संबंध बढ़ाने की क़तार में खड़े हैं। अमेरिका ने और अब जर्मनी ने भी भारत को नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग देने की पेशक़श की है। नवीकरणीय ऊर्जा के माध्यम से भारत 2070 तक जलवायु-तटस्थ देश बन जाना चाहता है।
 
यूरोपीय संघ 15 वर्षों से भी अधिक समय से भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते की रट लगाए हुए है। आखिरी वार्ता 2013 में विफल हो गई थी। यूरोपीय संघ में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला जर्मनी तब भारत से हट कर चीन की तरफ खिसकने लगा। रोबेर्ट हाबेक अब हवा का रुख बदलना चाहते हैं।
 
नई दिल्ली में उन्होंने कहा, व्यापार समझौता जटिल है, क्योंकि अपने बाज़ार को संरक्षण देने की भारत में एक लंबी परंपरा है। इसीलिए कोई प्रगति नहीं हो सकी। उनका कहना था कि पारस्परिक हितों में अपने आप पटरी नहीं बैठती। इसके लिए ज़ोर लगाना और प्रयास करना पड़ता है।
 
भारत एक बड़ा बिक्री बाज़ार : हाबेक का मानना है कि जर्मन कंपनियों के लिए भारत मशीनों, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता उत्पादों के साथ-साथ बुनियादी ढांचों के लिए आवश्यक चीज़ों का भी एक बड़ा बिक्री बाज़ार है, क्योंकि भारत को अपने परिवहन मार्गों और अपनी ऊर्जा आपूर्ति का भी विस्तार करना है।
 
भारत में परिवहन और रसदपूर्ति की लागत, सकल घरेलू उत्पाद के 16 प्रतिशत के बराबर होना, चीन में केवल 10 प्रतिशत लागत की तुलना में काफी अधिक है। साथ ही भारत की तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को बिजली की भी बढ़ती हुई जरूरत है। जर्मनी ग्रीन बिजली और ग्रीन हाइड्रोजन गैस के उत्पादन में भारत की सहायता करना चाहेगा।
 
जर्मन अर्थमंत्री ने यह भी कहा कि जर्मन कंपनियों के लिए भारत में अनेक अवसरों के अलावा कुछ जोखिम भी हैं : भारत द्वारा लगाए जाने वाले टैक्स और टैरिफ उनके लिए हमेशा एक समस्या रहे हैं। जर्मनी के फेडरल एसोसिएशन ऑफ इंडस्ट्री (बीडीआई) के अनुसार, ऑटोमोबाइल उद्योग परेशान है कि पूर्णतः यूरोप में बने वाहनों के आयात पर भारत में सीमा शुल्क (कस्टम ड्यूटी) 66 से 110 प्रतिशत के बराबर है। यूरोपीय संघ से आयातित घटकों पर भारत में सीमा शुल्क यूरोपीय कंपनियों के अन्य एशियाई प्रतिस्पर्धियों की अपेक्षा में कहीं अधिक है।
 
जर्मन उद्योग संघ की शिकायत : जर्मनी के उद्योग संघ बीडीआई ने पिछले साल शिकायत की थी कि भारत और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते के अनुसार, जिसमें जापानी और दक्षिण कोरियाई निर्माताओं का भी अच्छा प्रतिनिधित्व है, उनके लिए कुछ घटकों का भारत में सीमा शुल्क रहित निर्यात संभव है।
 
भारत किंतु यही छूट यूरोपीय संघ वाले देशों के निर्यातकों नहीं देना चाहता। जर्मन अर्थमंत्री ने साथ ही इस बात की सराहना भी की कि चालू दशक के आरंभ में भारत द्वारा घटाए गए सीमा शुल्कों से यूरोपीय मैकेनिकल इंजीनियरिंग वाले उद्योग भी लाभान्वित हुए हैं। वर्तमान में मशीन निर्माण वाले अधिकांश उत्पादों के आयात पर भारत में लगने वाले सीमा शुल्क 5 से 7.5 प्रतिशत के बीच हैं।
 
पिछली गर्मियों में यूरोपीय संघ और भारत ने पारस्परिक मुक्त व्यापार समझौते के लिए वार्ता फिर से शुरू की। उस पर टिप्पणी करते हुए जर्मनी के 'विज्ञान और राजनीति न्यास' (स्टिफ्टुंग विसेनशाफ़्ट उन्ट पोलिटीक) ने लिखा, 2013 में विफल हुई वार्ता के विपरीत वर्तमान वार्ता एक ही समय में सरल एवं और अधिक जटिल, दोनों होने की विरोधाभासी है।
 
भू-राजनीतिक विषयों पर पहले से अधिक सहमति : इस संस्था का मानना है कि वार्ताएं सरल इसलिए हैं, क्योंकि यूरोपीय संघ और भारत के बीच अब भू-राजनीतिक विषयों पर पहले से कहीं अधिक सहमति है, खासकर चीन के परिप्रेक्ष्य में। किंतु वे कहीं अधिक जटिल भी हैं, क्योंकि उनकी सफलता अभी भी दोनों पक्षों की ओर से कठिन रियायतों पर निर्भर करती है : तब भी वार्ताओं का फिर से विफल होना रणनीतिक साझेदारी के भविष्य के संदर्भ में भारत या यूरोपीय संघ के लिए कोई विकल्प नहीं है।
 
इस बीच कहा जा रहा है कि 2075 तक भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा। आर्थिक आंकड़ों पर एक नजर इसका आभास पाने के लिए पर्याप्त है : भारत इस समय प्रति वर्ष 3.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (1ट्रिलियन=10 खरब या एक लाख करोड़ या 10,00,00,00,00,000) मूल्य के बारबर वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है।
 
भारत का तेज़ आर्थिक विकास मुख्य आकर्षण है : विरोधी और आलोचक कुछ भी कहें, प्रधानमंत्री मोदी के शासनकाल में भारत ने जिस तेज़ी से आर्थिक विकास किया है, उससे दुनिया चकित है। 2022 में यह विकास दर लगभग सात प्रतिशत थी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पूर्वानुमान के अनुसार, भारत की यह ऊंची विकास दर जारी रहेगी : इस वर्ष 6.1 प्रतिशत और 2024 में 6.8 प्रतिशत के बराबर होगी।
 
आईएमएफ का अनुमान है कि इस दर पर देश 2025/26 में जर्मनी की जगह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्स को तो यहां तक उम्मीद है कि भारत 2075 तक अमेरिका से भी आगे निकल जाएगा और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा।

जर्मनी के लिए यह एक अच्छा संकेत है कि भारत बहुत तेज़ी से उसके और पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होता जा रहा है। जर्मनी की तरह भारत भी एक लोकतांत्रिक देश है यानी वह अन्य लोकतांत्रिक देशों के लिए भी कम्युनिस्ट तानाशाही वाले देश चीन का एक ऐसा विकल्प बन सकता है, जिस पर कोई भी विश्वास करना और निर्भर होना चाहेगा।
 
जर्मनी की नई चीन रणनीति : जर्मन सरकार ने कुछ दिन पहले ही चीन के प्रति अपनी नई रणनीति प्रकाशित की है। उसमें कहा गया है कि चीन के साथ आर्थिंक संबंधों को तुरंत तोड़ा तो नहीं जा सकता, किंतु उस पर अब तक की निर्भरता को कम करना ही होगा। जर्मनी की दृष्टि से उसके लिए महत्वपूर्ण एक तथ्य यह भी है कि न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, भारत की जनसंख्या और मध्यवर्ग की संख्या भी बढ़ रही है।
 
प्यू रिसर्च के अनुसार, भारत की जनसंख्या 1.4 अरब से अधिक है और 2064 तक 1.7 अरब तक पहुंचने की संभावना है। दूसरी ओर चीन की जनसंख्या घट रही है। अधिकांश भारतीय युवा हैं : भारत में 40 प्रतिशत से अधिक लोग 25 वर्ष से कम आयु के हैं। औसत आयु 28 वर्ष है। तुलना के लिए : अमेरिकी औसतन 38 वर्ष के हैं, चीनी 39 वर्ष के हैं।
 
मुक्त व्यापार समझौते की उतावली : जर्मनी चाहेगा कि इस वर्ष के अंत तक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर हो जाएं, क्योंकि 2024 में यूरोप और भारत में चुनाव होने हैं। यूरोपीय कंपनियां जर्मनी सहित पश्चिमी यूरोप के देशों और चीन के बीच बढ़ते तनाव को चिंता भरी दृष्टि से देखती हैं, क्योंकि चीन में उन्होंने बहुत अधिक निवेश कर रखा है। उन्हें अपने निवेश और चीनी बाज़ार के खोने का डर है। भारत उनके लिए एक अच्छा विकल्प बन सकता है।
 
उदाहरण के लिए, जर्मनी के सीमेंस ग्रुप को वर्ष के आरंभ में भारत से एक रिकॉर्ड ऑर्डर मिला : भारतीय रेलवे सीमेंस से 1,200 बिजली के रेल इंजन चाहती है। सीमेंस के अनुसार, यह उसके इतिहास में रेल इंजनों के लिए सबसे बड़ा एकल ऑर्डर है। उसे भारत से और अधिक ऑर्डर मिलने की उम्मीद है। दूसरी ओर, स्विट्ज़रलैंड के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग समूह 'एबीबी' ने बताया कि उसे भारत से मिलने वाले ऑर्डर बढ़े हैं, जबकि कंपनी के दूसरे सबसे बड़े बाज़ार, चीन से मिलने वाले ऑर्डरों में 9 प्रतिशत की गिरावट आई है।
Edited By : Chetan Gour

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