वीर नारायण सिंह बिंझवार : महान क्रांतिकारी जिनके शव को अंग्रेजों ने तोप से बांध कर उड़ा दिया था...
क्या आप जानते हैं भारत के रॉबिनहुड को जो गरीबों के हित के लिए फांसी पर झूल गया
- अथर्व पंवार
जब हम गरीबों को इन्साफ और उनका अधिकार दिलाने वाले चरित्रों की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे दिमाग में एक नाम आता है और वह है रॉबिनहुड। इसी के साथ वर्तमान में युवाओं से ऐसे किसी किरदार का पूछें तो वह KGF के रॉकी भाई का नाम तो अवश्य ही लेंगे। पर इन चरित्रों को कहीं न कहीं हम काल्पनिक ही मानते हैं। लेकिन एक ऐसी गाथा है जो वास्तविक है। उसके किरदार को अगर हम 'भारत का रॉबिनहुड' कहेंगे तो उचित ही होगा। यह ऐसा नाम है जिसे भारत के लोग कम ही जानते हैं। यह वह व्यक्ति है जिसने गरीब देशवासियों की जान के लिए अपनी जान का बलिदान कर दिया। जमींदार होते हुए भी यह साहूकारों से देशवासियों की भूख के लिए लड़ा। इस हुतात्मा का नाम है वीर नारायण सिंह बिंझवार जिन्हें 1857 के स्वातंत्र्य समर में छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद के रूप में जाना जाता है।
वीर नारायण सिंह का जन्म छत्तीसगढ़ के सोनाखान में 1795 में एक जमींदार परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम राम राय था। कहते हैं इनके पूर्वजों के पास 300 गांवों की जमींदारी थी। यह बिंझवार जनजाति के थे। पिता की मृत्यु के बाद 35 वर्ष की आयु में वीर नारायण सिंह अपने पिता के स्थान पर जमींदार बने। उनका स्थानीय लोगों से अटूट लगाव था।
1856 में इस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा। लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं था। जो था वह अंग्रेज और उनके गुलाम साहूकार जमाखोरी करके अपने गोदामों में भर लेते थे। भूख से जनता का बुरा हाल था। अपने क्षेत्र के लोगों का इतना बुरा हाल वीर नारायण सिंह से देखा नहीं गया। उन्होंने कसडोल स्थान पर अंग्रेजों से सहायता प्राप्त साहूकार माखनलाल के गोदामों से अवैध और जोर जबरजस्ती से एकत्रित किया हुआ अनाज लूट लिया और भूखमरी से पीड़ित गरीब जनता को बांट दिया। इस कृत्य के कारण अंग्रेजों ने उन्हें 24 अक्टूबर 1856 को बंदी बना कर जेल में डाल दिया।
वर्ष 1857 में पूरे देश में स्वाधीनता प्राप्ति की ज्वाला धधक उठी थी। राजा-रानियों के साथ साथ हर देशभक्त नागरिक इस समर में मातृभमि को मुक्त करने के लिए तैयार हो रहा था। अंग्रेजी सेना में कार्यरत भारतीयों ने भी एक विद्रोही क्रांति कर दी थी। इस समर की लपटें छत्तीसगढ़ में भी आई और सोनाखान भी इससे अछूता नहीं रहा। इसी कारण 28 अगस्त 1857 को ब्रिटिश सेना में कार्यरत भारतीयों और स्थानीय लोगों ने वीर नारायण सिंह को जेल से मुक्त करवा दिया और अपना नेता मान लिया। जनसमर्थन पाने के बाद उन्होंने 500 लोगों की एक बंदूकधारी सेना बनाई जो अंग्रेजों के दांत खट्टे कर सके और उनके विरूद्ध एक संग्राम कर सके। वे स्वयं एक घोड़े पर सवार होते थे जिसका नाम कबरा था।
वीर नारायण सिंह ने कुरुपाठ की दुर्गम पहाड़ियों को अपना केंद्र बनाया। वे यहां अपनी कुलदेवी दंतेश्वरी की साधना करते थे और गुफाओं और पहाड़ी दर्रों में सैन्य अभियान की रणनीति बनाया करते थे। उन्होंने छापामार युद्ध नीति का प्रयोग कर के अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। अंग्रेजों की ओर से कैप्टन स्मिथ उनसे लड़ रहे थे। अनेक बार अंग्रेजी सेना ने सोनाखान में उन्हें पकड़ने और मारने के विचार से अभियान चलाए, पर सभी निष्फल रहे।
भारत में हर सदी में गद्दार लोग तो होते ही हैं। यह अपने स्वार्थ के लिए शत्रुओं से मिल जाते हैं। इन लोगों के लिए मातृभूमि की उपेक्षा करना साधारण बात होती है। जो लोग मातृभूमि के लिए सर्वस्व त्याग कर संघर्ष करते हैं, यह गद्दार उनके भी प्रयासों की अवहेलना करते हैं। ऐसा ही वीर नारायण के साथ भी हुआ। अनेक दूसरे जमींदार इस वीर से बदला लेने की मानसिकता से अंग्रेजों को समर्थन देने लगे। वे अपने धन के साथ साथ सैन्य संसाधनों की भी सहायता इस क्रान्तिकारी के विरुद्ध अंग्रेजों को देने लगे।
जब अंग्रेजों के प्रयासों का कुछ भी परिणाम नहीं निकला तो उन्होंने वीर नारायण सिंह की दुखती रग पर आघात किया, और वह थी उनकी प्रिय जनता। अंग्रेज जब वीर नारायण सिंह से लड़ नहीं पाए तो उन्होंने स्थानीय लोगों के घर जलाकर और उन पर भांति भांति के अत्याचार करके अपना बदला लेना आरम्भ किया। अंग्रेजों द्वारा हुए अत्याचारों से जो तबाही हुई, उससे आहत हो कर वीर नारायण सिंह ने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उनके आत्मसमर्पण का मूल उद्देश्य यह था कि उनके कारण गरीब जनता को कोई हानि न पहुंचे, यह युद्ध उनके और अंग्रेजों के बीच है तो इसका भुगतान उनकी समर्थक गरीब जनता क्यों करे!
10 दिसंबर 1857 को रायपुर में अंग्रेजों ने उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी दी। अंग्रेज उनसे इस तरह से चिढ़ते थे कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को तोप से बांध कर उड़ा दिया गया। इस स्थान को वर्तमान में जय स्तम्भ चौक के नाम से जाना जाता है। सार्वजनिक रूप से हुए इस कुकृत्य से आम लोगों में और ब्रिटिश सेना के भारतीयों में एक प्रतिशोध की भावना भड़क उठी और एक नई क्रांति का आरम्भ हुआ। जिससे पूरा छत्तीसगढ़ 1857 के स्वातंत्र्य समर में उतर गया। वीर नारायण सिंह को इस समर के लिए छत्तीसगढ़ का प्रथम बलिदानी माना जाता है।
इस वीर को सम्मान देने के लिए वर्ष 1987 में इनकी 130 वी बरसी पर भारत सरकार ने 60 पैसे का डाक टिकट भी जारी किया। आदिवासी उत्थान के लिए छत्तीसगढ़ सरकार शहीद वीर नारायण सिंह सम्मान भी देती है। रायपुर में भारत के दूसरे सबसे बड़े स्टेडियम ,शहीद वीर नारायण सिंह स्टेडियम का निर्माण 2008 में करवाकर इन्हें और सम्मान दिया गया।
आज भी इस वीर की गौरवगाथा छत्तीसगढ़ के जनमानस के बीच सुनाई देती है। सोनाखान के लोग उन्हें आज भी देवता की तरह पूजते हैं। प्रदेशवासियों के साथ साथ पूरे देश में उन्हें एक आदर्श के रूप में माना जाता है। गरीबों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले इस जमींदार को, इस देशभक्त वीर को, भारतमाता के सच्चे पुत्र को, शत शत नमन।