Highlights
देशभक्त खुदीराम बोस की पुण्यतिथि।
जानें क्रांतिकारी खुदीराम बोस की जीवनगाथा।
इतिहासकारों की नजर से जानें खुदीराम बोस की कहानी।
Khudiram Bose : भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास क्रांतिकारियों के सैकड़ों साहसिक कारनामों से भरा पड़ा है। इनमें से एक महान क्रांतिकारी के नाम 11 अगस्त का दिन इतिहास में एक विशेष स्वतंत्रता सेनानी के रूप में दर्ज है। यह भारत की आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले एक स्वतंत्रता वीर की कहानी हैं, जिन्हें हम सभी खुदीराम बोस के नाम से जानते है।
जीवन और शिक्षा : ऐसे वीर क्रांतिकारी खुदीराम बोस का जन्म पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में 03 दिसंबर 1889 को त्रैलोक्यनाथ बोस के यहां हुआ था। उनमें देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद वे रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदे मातरम् पैम्फलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया।
खुदीराम बोस की साहसिक जीवनगाथा : इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार 28 फरवरी 1906 को वे गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन वे कैद से भाग निकले। लगभग 2 महीने बाद अप्रैल में वे फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। 6 दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परंतु गवर्नर बच गया। सन् 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।
खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर के सेशन जज से बेहद खफा थे, क्योंकि उसने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी। उन्होंने अपने साथी प्रफुल्लचंद चाकी के साथ मिलकर सेशन जज किंग्सफोर्ड से बदला लेने की योजना बनाई और दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया, लेकिन उस समय गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिला कैनेडी और उसकी बेटी सवार थी।
किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गई, जिसका खुदीराम और प्रफुल्ल चंद चाकी को बेहद अफसोस हुआ। फिर अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी गई और उन्हें वैनी रेलवे स्टेशन पर घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लचंद चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम बोस पकड़े गए। और 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई। उस समय उनकी उम्र मात्र 19 साल थी।
इतिहास की नजर से : फांसी के बाद खुदीराम बोस इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर 'खुदीराम' लिखा होता था। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन उस उम्र में देश के समर्पित कर दिया, जब एक युवा अपने करियर बनाने को लेकर असमंजस में रहता है और अच्छे जीवनयापन के सपने देखता है, लेकिन खुदीराम बोस के बलिदान ने 11 अगस्त, 1908 का दिन इतिहास में दर्ज करा दिया।
भारतीय क्रांतिकारियों की सूची में ऐसा ही एक नाम है स्वर्णअक्षरों में अंकित हैं, वे हैं खुदीराम बोस। जो मात्र इतनी कम उम्र में ही देश को आजाद करने के लिए फांसी पर चढ़ गए थे। कुछ इतिहासकारों की मानें तो वे खुदीराम बोस को वे देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी और देशभक्त मानते हैं। जो मात्र 19 साल की उम्र में देश को अंग्रेजों की हुकूमत से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करते हुए सूली पर चढ़ गए थे।
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