लघुकथा : सत्यव्रत

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-डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
 
'व्रत ने पवित्र कर दिया।' मानस के हृदय से आवाज आई। कठिन व्रत के बाद नवरात्रि के अंतिम दिन स्नान आदि कर आईने के समक्ष स्वयं का विश्लेषण कर रहा वह हल्का और शांत महसूस कर रहा था। 'अब मांरूपी कन्याओं को भोग लगा दें।' हृदय फिर बोला। उसने गहरी-धीमी सांस भरते हुए आंखें मूंदीं और देवी को याद करते हुए पूजा के कमरे में चला गया। वहां बैठीं कन्याओं को उसने प्रणाम किया और पानी भरा लोटा लेकर पहली कन्या के पैर धोने लगा।
 
लेकिन यह क्या! कन्या के पैरों पर उसे उसका हाथ राक्षसों के हाथ जैसा दिखाई दिया। घबराहट में उसके दूसरे हाथ से लोटा छुटकर नीचे गिरा और पानी जमीन पर बिखर गया। आंखों से भी आंसू निकलकर उस पानी में जा गिरे। उसका हृदय फिर बोला, 'इन आंसुओं की क्या कीमत? पानी में पानी गिरा, मां के आंचल में तो आंसू नहीं गिरे।'
 
यह सुनते ही उसे कुछ याद आया, उसके दिमाग में बिजली-सी कौंधी और वहां रखी आरती की थाली लेकर दौड़ता हुआ वह बाहर चला गया। बाहर जाकर वह अपनी गाड़ी में बैठा और तेज गति से गाड़ी चलाते हुए ले गया। स्टीयरिंग संभालते उसके हाथ राक्षसों की भांति ही थे। जैसे-तैसे वह एक जगह पहुंचा और गाड़ी रोककर दौड़ते हुए अंदर चला गया।
 
अंदर कुछ कमरों में झांकने के बाद एक कमरे में उसे एक महिला बैठी दिखाई दी। बदहवास-सा वह कमरे में घुसकर उस महिला के पैरों में गिर गया। फिर उसने आरती की थाली में रखा दीपक जलाकर महिला की आरती उतारी और कहा, 'मां, घर चलो। आपको भोग लगाना है।'
 
वह महिला भी स्तब्ध थी, उसने झूठभरी आवाज में कहा, 'लेकिन बेटे इस वृद्धाश्रम में कोई कमी नहीं।'
 
'लेकिन वहां तो… आपके बिना वह अनाथ आश्रम है', उसने दर्दभरे स्वर में कहा।
 
और जैसे ही उसकी मां ने 'हां' में सिर हिलाकर उसका हाथ पकड़ा, उसे अपने हाथ पहले की तरह दिखाई देने लगे।
 

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