#मीटू : इनकी कौन सुनेगा, ये स्वयं नहीं उठेंगी

अनिल शर्मा
नारी जगत (वीआईपी) शोषण के खिलाफ मीटू अभियान अंतर्गत अपनी आवाज उठा रहा है। केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने भी इस संबंध में कमेटी गठित करने का निर्देश दिया है। सवाल यह कि कमेटी का दायरा बड़ा होगा या सीमित रहेगा?
 
अभी तक जैसा कि सुना जा रहा है कि वीआईपी वर्ग की कहे जाने वाली महिलाओं या युवतियों के केसेस आ रहे हैं जिनमें ज्यादातर फिल्मी अदाकाराओं से संबंधित हैं। इसके बाद अन्य क्षेत्र की महिलाओं (युवतियां भी) ने आवाज उठाई है, किंतु साधारण वर्ग इस बात से अभी भी अनजान है कि उनके शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए काफी तैयारी हो रही है।
 
भविष्य में यह भी हो सकता है कि जितने न्यायालयीन प्रकरण अन्य मुद्दों के नहीं होंगे, उनसे कहीं ज्यादा मामले मीटू के अंतर्गत होंगे। इस मामले में फिल्म क्षेत्र तो टॉप पर आ ही गया है, साथ में खेल और अन्य क्षेत्र भी कम-ज्यादा मात्रा में आ रहे हैं।
 
सबसे ज्यादा अगर देखा जाए तो मीटू के अंतर्गत राजनीतिक क्षेत्र के लोगों और उनके रिश्तेदारों से शोषित महिलाओं (युवतियां भी) की संख्या अन्य पीड़ित महिलाओं के बनिस्बत लगभग 89 प्रतिशत के लगभग हो सकती है, क्योंकि राजनीतिक क्षेत्र से जुड़े विधायक, मंत्री, सांसद, जनप्रतिनिधि आदि-इत्यादि की ठेकेदारी करने वाले या किसी सरकारी विभाग में नौकरी करने वाले रिश्तेदार अपना काम किसी मंत्री से निकालने या ठेका लेने के लिए साहब या मंत्री वगैरह की साइन कराने के लिए होटल या रेस्ट हाउस में किसी युवती या स्मार्ट महिला को ही भेजते हैं।
 
सत्तारूढ़ दल के एक विधायक के भतीजे के यहां स्मार्ट युवती और महिलाओं की वेकेंसी बनी रहती है। वह इसलिए कि अपने ठेकेदारी के टेंडर पास कराने के लिए साहब के पास साइन कराने किसी स्मार्ट लेडी को भेजना ज्यादा फायदेमंद होता है। वह विधायक कौन है, उसकी कल्पना आप कर सकते हैं। कहने का मतलब यह कि राजनीति से जुड़े नेताओं (विधायक, सांसद, मंत्री से लेकर पंचायत स्तर तक (संभवत:) से जुड़े रिश्तेदारों द्वारा भी नारी का शोषण दबी जुबान से आमफहम है।
 
सरकारी क्षेत्र के किसी भी विभाग में बॉस का इंस्पेक्शन (निरीक्षण) दौरा हो तो वीआईपी ट्रीटमेंट जायज होने के साथ यह भी जायज है कि थोड़े रिलेक्स और एंटरटेनमेंट के लिए बॉस की सेवा में कोई स्मार्ट लेडी पेश की जाए। होता भी होगा। किसी भी स्मार्ट कर्मचारी लेडी को सीआर बिगाड़ने या ट्रांसफर की धौंस व इशारों-इशारों में धौंस से मजबूर कर नजराना पेश कर दिया जाए। होता होगा।
 
निजी क्षेत्र में शोषण की शिकार महिलाओं (युवतियां भी) की संख्या अन्य क्षेत्र की वीआईपी केटेगरी की महिलाओं की संख्या से लगभग 55 से 60 प्रतिशत के लगभग हो सकती है। निजी क्षेत्र या सरकारी कार्यालयों की कर्मचारी महिलाओं के साथ होने वाले शोषण के खिलाफ आवाज उठाई जानी चाहिए।
 
लेकिन इसके लिए इन महिलाओं या युवतियों के लिए जो निजी और सरकारी क्षेत्र में कर्मचारी हैं और अपने बॉस लोगों या उनके रिश्तेदारों से शोषित हैं, कोई आवाज उठाने की जुर्रत करेगा? अपने गले में कोई घंटी बांधेगा? खुद शोषिता भी जो शिकार हुई है, लोक-लाज और परिवार के भय से आवाज नहीं उठाएगी।
 
यानी मीटू के अंतर्गत केवल हाईफाई लेडी ही नजर आ रही हैं या आ सकती हैं। राजनीति और सरकारी और निजी क्षेत्र से जुड़ीं महिला कर्मचारियों का इस मामले में आगे आना असंभव ही कहा जा सकता है। किसी बॉस ने किसी युवती या महिला कर्मचारी के साथ शोषण किया है, उस बॉस के खिलाफ महिला (या युवती) कर्मचारी के साथी गवाह देने में इसलिए आनाकानी कर सकते हैं कि बॉस कहीं उन्हें न ले डूबे।
 
चूंकि कानून गवाह और सबूतों का मोहताज होने से अपनी आंखों में पट्टी बांध चुका है। जब कानून खुद ही अंधा है, तो न्याय की उम्मीद करना बेकार कहा जा सकता है। गवाह खरीद लिए जाते हैं, सबूत खरीद लिए जाते हैं, तो न्याय खरीदना कोई कठिन तो नहीं। इसीलिए सरकारी या निजी क्षेत्र की महिला कर्मचारी अपने उच्च पदस्थ अधिकारियों और नेताओं के शोषण सहने के लिए मजबूर हैं।
 
चूंकि कोई गवाह या सबूत नहीं, मगर महिला (युवती) कर्मचारियों का शोषण होता है ये बात जमानेभर के लोग जानते हैं। फिर पीड़ित महिला अपना दर्द किससे बयान करे? घर में करे तो घर टूटने का डर, बाहर करे तो जगहंसाई और समाज द्वारा 'चालू केटेगरी' का बना देने का डर। अपना परिवार पाले या अपने शोषण के खिलाफ आवाज उठाए। अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ ये साधारण मिडिल क्लास की महिला कर्मचारी भी आगे नहीं आएंगी। शोषण सहन करेंगी, मगर झंडा उठाने नहीं उठेंगी, क्योंकि जमाना दोमुंहा है। जगहंसाई पहले की जाती है।

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