वो प्रेम कली और भंवरे का प्रेम नहीं था, नदी और सागर का था- सदा अनुरक्त, एकनिष्ठ, समर्पित। नेहा और प्रणय मानों एक-दूजे के लिए ही बने थे। कॉलेज में जन्मा प्रेम अब विवाह की दहलीज पर आ पहुंचा था। दोनों पक्ष धूमधाम से तैयारी में जुट गए।
नेहा खुश तो थी, लेकिन एक दुःख इस ख़ुशी पर भारी था। उसके जाने के बाद पिता निपट अकेले रह जाएंगे। मां तो उसके बचपन में ही स्वर्ग सिधार गई थीं और कोई भाई-बहन भी न थे।
नेहा इकलौती संतान थी। अपने पिता से छिप-छिपकर नेहा रो लेती थी ताकि उन्हें उसका दुःख न दिखाई दे।
आखिर शादी का दिन आ पहुंचा, बारात आ गई, स्वागत आदि रस्मों के बाद लग्न की घड़ी आ गई। नेहा पूर्ण श्रृंगार में मुस्कुराती हुई प्रणय के सामने आई। प्रणय ने एक भरपूर नज़र उसे देखा और उसका हाथ थामकर बजाय विवाह-वेदी पर बैठने के उसके पिता के समक्ष जा पहुंचा।
सब लोग चकित, पंडित जी हैरान और नेहा अवाक्। प्रणय ने नेहा के पिता को प्रणाम कर कहा- 'मुझे दहेज चाहिए। चूंकि इस विषय पर अपनी बात ही नहीं हुई, इसलिए लग्न से पहले ही सब कुछ तय हो जाना चाहिए।'
नेहा शर्म से जमीन में गड़ गई। इस लोभी के साथ विवाह के लिए उसने सारी मर्यादा ताक पर रखकर पिता से वचन लिया था और उन्होंने भी पुत्री-स्नेह के वशीभूत हो इसके विषय में कोई खोजबीन न करते हुए 'हां' कर दी थी।
हे भगवान, कितनी बड़ी भूल हो गई! नेहा के भय से कांपते मन ने तभी प्रणय का ये स्वर सुना- 'पापा, मुझे दहेज में आप चाहिए ताकि नेहा कोई दुःख लेकर मेरे साथ न जाए और मेरा परिवार अपनी पूर्णता पा सके।'
ख़ुशी और गर्व से नेहा के आंसू निकल आए। प्रणय ने उसे एक नज़र देखकर ही उसकी मुस्कान में छिपे दर्द को पहचान लिया था। जीवन-साथी इसी को तो कहते हैं।
उसके पापा ने आपत्ति लेना चाहा, तो प्रणय ने ये कहते हुए रोक दिया- 'प्लीज़ पापा, मैं अधूरी ज़िंदगी नहीं जीना चाहता। आप हमारे साथ चलिए।'
नेहा ने प्रणय के माता-पिता की आंखों में भी सहमति भरा सुकून देखा। उसके पिता के स्वीकृति देने के साथ ही लग्न आरंभ हुए। उस दिन एक परिवार के साथ 'प्रेम' ने भी मानों पूर्णता पा ली थी।