क्यों बसंत गीत गाते हो
झूठा यह गान सुनाते हो
खो गयी कहीं है कोयलिया
क्या तुमको है ये भास हुआ
सूखे पोखर और पनघट
अब सपनों सा मधुमास हुआ
आडंबर के सेल्फी लेते
क्यों मंदिर को जाते हो
क्यों बसंत गीत गाते हो
झूठा यह गान सुनाते हो
कंक्रीट के खेतों के बीच
अब सरसों भी इतिहास हुआ
दो नावों में पैर रखे
सत्ताओं का है रास हुआ
झांझ मंजीरों से सलाम
क्यों दर पे इनके बजाते हो
क्यों बसंत गीत गाते हो
झूठा यह गान सुनाते हो
जो पेड़ नहीं अब आमों के
तो बौर कहां से आएंगे
उद्दंड हुआ जब युवा लहू
संस्कार कहां को जाएंगे
उघाड़ के संस्कृति से लज्जा
क्यों नगरवधू उसे बनाते हो
क्यों बसंत गीत गाते हो
झूठा यह गान सुनाते हो
जो हाथ नहीं अब थापों के
वो मांदल कैसे बजायेंगे
हुए शुष्क जो चित्त घने
अपनापन कैसे जताएंगे
चुभते सम्बन्धो की धूप को
क्यों वासंती भोर बतलाते हो
क्यों बसंत गीत गाते हो
झूठा यह गान सुनाते हो
संक्षिप्त परिचय: समकालीन साहित्यकारों में सामाजिक विडम्बनाओं को उजागर करती लेखनी के लिए जानी जाने वाली, महू मध्यप्रदेश की लेखिका एवं कवियित्री तृप्ति मिश्रा साहित्य के साथ लोकगायन को भी संरक्षित कर रही हैं। साथ ही 17 से अधिक वर्षों से मिट्टी के गणेश पर निःशुल्क कार्यशालाएं करती आई हैं। अपने कार्यों के लिए इन्होंने अनेक सम्मान प्राप्त किये हैं।