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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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माखनलाल चतुर्वेदी की प्रतिनिधि रचनाएं

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माखनलाल चतुर्वेदी (Makhan lal chaturvedi) हिन्दी के अनूठे रचनाकार थे। उन्होंने सरल भाषा में कई कविताएं लिखीं, यहां पढ़ें उनकी कुछ खास कविताएं...
 
- माखनलाल चतुर्वेदी
 
अमर हो कल का सबेरा
 
गगन पर सितारे- एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं- एक तुम हो,
'त्रिवेणी' दो नदी हैं- एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है- एक तुम हो।
 
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा,
कला के जोड़-सी जग गुत्थियां ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियां ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते।
 
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ।
 
तुम्हारी यातनाएं और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएं और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूंज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा।
 
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर,
रहे मन-भेद तेरा और मेरा,
अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल'गोवा'
कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा।
 
प्रलय की आह युग है, चाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।
 
******
 
क्यों मुझे तुम खींच लाए?
 
एक गो-पद था, भला था,
कब किसी के काम का था?
क्षुद्ध तरलाई गरीबिन
अरे कहां उलीच लाए?
 
एक पौधा था, पहाड़ी
पत्थरों में खेलता था,
जिए कैसे, जब उखाड़ा
गो अमृत से सींच लाए!
 
एक पत्थर बेगढ़-सा
पड़ा था जग-ओट लेकर,
उसे और नगण्य दिखलाने,
नगर-रव बीच लाए?
 
एक वन्ध्या गाय थी
हो मस्त बन में घूमती थी,
उसे प्रिय! किस स्वाद से
सिंगार वध-गृह बीच लाए?
 
एक बनमानुष, बनों में,
कन्दरों में, जी रहा था;
उसे बलि करने कहां तुम,
 
ऐ उदार दधीच लाए?
जहां कोमलतर, मधुरतम
वस्तुएं जी से सजाईं,
इस अमर सौन्दर्य में, क्यों
कर उठा यह कीच लाए?
 
चढ़ चुकी है, दूसरे ही
देवता पर, युगों पहले,
वही बलि निज-देव पर देने
दृगों को मींच लाए?
 
क्यों मुझे तुम खींच लाए?
 
**** 
पुष्प की अभिलाषा
 
 
चाह नहीं मैं सुरबाला के,
गहनों में गूंथा जाऊं,
 
चाह नहीं प्रेमी-माला में,
बिंध प्यारी को ललचाऊं,
 
चाह नहीं, सम्राटों के शव,
पर, हे हरि, डाला जाऊं
 
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊं!
 
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
 
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जाएं वीर अनेक।
 
*****
 
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!
 
भूलती-सी जवानी नई हो उठी,
भूलती-सी कहानी नई हो उठी,
 
जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी,
बालपन की रवानी नई हो उठी।
 
किन्तु रसहीन सारे बरस रसभरे
हो गए जब तुम्हारी छटा भा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
 
घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली,
नयन ने नयन रूप देखा, मिली-
 
पुतलियों में डुबा कर नज़र की कलम
नेह के पृष्ठ को चित्र-लेखा मिली,
 
बीतते-से दिवस लौटकर आ गए
बालपन ले जवानी संभल आ गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
 
तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई,
चुंबनों, सांवली-सी घटा छा गई,
 
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण
पर गगन से उतर चंचला आ गई।
 
प्राण का दान दे, दान में प्राण ले
अर्चना की अमर चांदनी छा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
 
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