Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

अटल बिहारी वाजपेयी की 3 लोकप्रिय कविताएं

हमें फॉलो करें अटल बिहारी वाजपेयी की 3 लोकप्रिय कविताएं
Atal Bihari Vajpayee poem 
 

 
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय
 
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार-क्षार।
डमरू की वह प्रलय-ध्वनि हूं जिसमें नचता भीषण संहार।
रणचण्डी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधारय।
 
फिर अन्तरतम की ज्वाला से, जगती में आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अम्बर, जड़, चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
मैं आदि पुरुष, निर्भयता का वरदान लिए आया भू पर।
पय पीकर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो विष पी कर।
अधरों की प्यास बुझाई है, पी कर मैंने वह आग प्रखर।
हो जाती दुनिया भस्मसात्, जिसको पल भर में ही छूकर।
 
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन।
मैं नर, नारायण, नीलकंठ बन गया न इस में कुछ संशय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
मैं अखिल विश्व का गुरु महान्, देता विद्या का अमरदान।
मैंने दिखलाया मुक्ति-मार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर, सागर के जल में छहर-छहर।
 
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सौरभमय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
मैं तेज पुंज, तमलीन जगत में फैलाया मैंने प्रकाश।
जगती का रच करके विनाश, कब चाहा है निज का विकास?
शरणागत की रक्षा की है, मैंने अपना जीवन दे कर।
विश्वास नहीं यदि आता तो साक्षी है यह इतिहास अमर।
 
यदि आज देहली के खण्डहर, सदियों की निद्रा से जगकर।
गुंजार उठे उंचे स्वर से 'हिन्दू की जय' तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
दुनिया के वीराने पथ पर जब-जब नर ने खाई ठोकर।
दो आंसू शेष बचा पाया जब-जब मानव सब कुछ खोकर।
मैं आया तभी द्रवित हो कर, मैं आया ज्ञानदीप ले कर।
भूला-भटका मानव पथ पर ‍चल निकला सोते से जग कर।
 
पथ के आवर्तों से थक कर, जो बैठ गया आधे पथ पर।
उस नर को राह दिखाना ही मेरा सदैव का दृढ़ निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
मैंने छाती का लहू पिला पाले विदेश के क्षुधित लाल।
मुझ को मानव में भेद नहीं, मेरा अंतस्थल वर विशाल।
जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का खुला द्वार।
अपना सब कुछ लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
 
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
मैं ‍वीर पुत्र, मेरी जननी के जगती में जौहर अपार।
अकबर के पुत्रों से पूछो, क्या याद उन्हें मीना बाजार?
क्या याद उन्हें चित्तौड़ दुर्ग में जलने वाला आग प्रखर?
जब हाय सहस्रों माताएं, तिल-तिल जलकर हो गईं अमर।
 
वह बुझने वाली आग नहीं, रग-रग में उसे समाए हूं।
यदि कभी अचानक फूट पड़े विप्लव लेकर तो क्या विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं जग को गुलाम?
मैंने तो सदा सिखाया करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर में नरसंहार किए?
 
कब बतलाए काबुल में जा कर कितनी मस्जिद तोड़ीं?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
 
मैं एक बिंदु, परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दू समाज।
मेरा-इसका संबंध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैंने पाया तन-मन, इससे मैंने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दूं सब कुछ इसके अर्पण।
 
मैं तो समाज की थाती हूं, मैं तो समाज का हूं सेवक।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

पहचान
 
पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी
ऊंचा दिखाई देता है।
जड़ में खड़ा आदमी
नीचा दिखाई देता है।।
 
आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है,
न बड़ा होता है, न छोटा होता है।
आदमी सिर्फ आदमी होता है।
 
पता नहीं इस सीधे, सपाट सत्य को
दुनिया क्यों नहीं जानती?
और अगर जानती है,
तो मन से क्यों नहीं मानती?
 
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि आदमी कहां खड़ा है?
पथ पर या रथ पर?
तीर पर या प्राचीर पर?
 
फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है,
या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है,
वहां उसका धरातल क्या है?
 
हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,
कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध
अपने साथी से विश्वासघात करे,
 
तो क्या उसका अपराध
इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि
वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?
 
नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा,
हिमालय की सारी धवलता
उस कालिमा को नहीं ढंक सकती।
 
कपड़ों की दूधिया सफेदी जैसे
मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती।
 
किसी संत कवि ने कहा है कि
मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता,
मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर
उसका मन होता है।
 
छोटे से मन से कोई बड़ा नहीं होता,
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।
 
इसीलिए तो भगवान कृष्ण को
शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े, 
कुरुक्षेत्र के मैदान में खडे,
अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी।
 
मन हार कर, मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।
 
चोटी से गिरने से
अधिक चोट लगती है।
अस्थि जुड़ जाती,
पीड़ा मन में सुलगती है।
 
इसका अर्थ यह नहीं कि
चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न मानें,
इसका अर्थ यह भी नहीं कि 
परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें।
 
आदमी जहां है, वहीं खड़ा रहे?
दूसरों की दया के भरोसे पर पड़ा रहे?
 
जड़ता का नाम जीवन नहीं है,
पलायन पुरोगमन नहीं है।
 
आदमी को चाहिए कि वह जूझे,
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
 
किंतु कितना ही ऊंचा उठे,
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े,
अंतर्यामी से मुंह न मोड़े।
 
एक पांव धरती पर रखकर ही
वामन भगवान में आकाश, पाताल को जीता था।
 
धरती ही धारण करती है,
कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभिमान से न तने।
 
मनुष्य की पहचान,
उसके धन या आसन से नहीं होती,
उसके मन से होती है।
मन की फकीरी पर
कुबेर की सम्पदा भी रोती है।
 

 
हरी-हरी दूब पर
 
हरी-हरी दूब पर
ओस की बूंदें
अभी थीं,
अब नहीं हैं।
ऐसी खुशियां
जो हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।
 
क्वाँर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पांव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूं
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बूंदों को ढूंढूं?
 
सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊं?
कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पीऊं?
 
सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी।
 
साभार- मेरी इक्यावन कविताएं

webdunia

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

National Consumer Rights Day :राष्‍ट्रीय उपभोक्‍ता दिवस पर जानें उपभोक्ताओं के 6 अधिकार