अपना सत्य, अपना उपन्यास : 21वीं सदी में साहित्य के सामाजिक सरोकार

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विश्व पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन द्वारा 'उपन्यास कुंभ' : 'अपना सत्य, अपना उपन्यास 21वीं सदी में साहित्य के सामाजिक सरोकार' कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत में वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने सभी उपन्यासकारों का मंच पर स्वागत किया जिनमें युवा उपन्यासकार बालेंदु द्विवेदी, वरिष्ठ पत्रकार राकेश तिवारी, साहित्य अकादमी से पुरस्कृत नासिरा शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सौरभ, कथाकार व वरिष्ठ पत्रकार गीताश्री थे। कार्यक्रम का सफल संचालन अजित राय द्वारा किया गया।
 
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए अजितजी ने कहा कि ये सभी उपन्यासकार पेशेवर उपन्यासकार नहीं हैं। इन सभी ने हिन्दी उपन्यास की भाषा, व्याकरण, विमर्श को उलट-पलटकर रख दिया है।
 
प्रदीप सौरभजी से प्रश्न करते हुए अजित राय ने कहा कि उनके उपन्यास 'मुन्नी मोबाइल' की अवधारणा कैसे और कहां से हुई?
 
इसके जवाब में प्रदीप सौरभ का कहना था कि इस उपन्यास से पहले मैं 'गोधरा टू गांधी' लिखना चाहता था लेकिन मेरे कुछ नोट्स डायरी से गायब हो गए इसलिए मैंने उपन्यास का माध्यम चुना ताकि मैं अपनी बात भी कह सकूं और थोड़ी लिबर्टी भी ले सकूं। इस उपन्यास में वर्तमान प्रधानमंत्री की कथा जिसे मैं 'मैकिंग टू मोदी' कहता हूं, आजादी के मोहभंग की कथा और 2050 तक की बात मिलती है। यही इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है। मेरा मानना है कि जो उपन्यास अपने समय से भटककर लिखा जाता है, वह रद्दी कहलाता है और कोई भी सत्य अंतिम सत्य नहीं होता।
 
अजित राय का अगला प्रश्न था कि 'मदारीपुर जंक्शन' उपन्यास पढ़ते हुए भवानीपुर जंक्शन याद आता है। मैं पढ़ रहा था कि यह गोरखपुर का कोई गांव है। मैं चाहूंगा बालेंदुजी इस उपन्यास के बारे में बताएं?
 
जवाब में बालेंदुजी ने कहा कि 'मदारीपुर जंक्शन' जैसा कोई गांव हो सकता है। लेखक वही लिखता है, जो उसे दिखाई देता है और आत्मा को झकझोरता है। यथार्थ और कल्पना के सामंजस्य से ही साहित्य लिखा जाता है। गांव की चीजों और सामाजिक यथार्थ को लिखना मुझे बहुत प्रिय है। यह मेरी शैली है। हां, थोड़ी व्यंग्यात्मक है। मैं प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल और काशीनाथ सिंह से प्रभावित हूं। अगर एक 40 बरस का व्यक्ति मुझे कहता है कि आपने मुझे मेरे अतीत में पहुंचा दिया या मेरे गांव की याद दिला दी, तो इससे बढ़कर मेरे लिए क्या बात होगी? मैंने बस एक सामाजिक यथार्थ को उकेरने की कोशिश इस उपन्यास के माध्यम से की है।
 
कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए अजितजी ने कि कहा कि मेरे लिए यह बड़ी खुशी की बात है कि राकेश तिवारी ने बड़ी मेहनत से उपन्यास लिखा है, तो मैं राकेश तिवारीजी से 'फसक' उपन्यास के विचार और उसकी पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहूंगा।
 
प्रश्न का जवाब देते हुए में राकेशजी ने कहा कि वैसे तो मैं चुपचाप लिखने वाला आदमी हूं। वक्त तेजी से बदल रहा है जिसमें तकनीक व बाजार की ताकत का बड़ा हाथ है। तकनीक अपने को तो बदलती ही है, साथ में हम सभी को भी। इसका असर हमें साहित्य में भी देखने को मिल रहा है। पूंजी की ताकत, धर्म की ताकत जो चीजों को बदल रही है- इन सभी के गठजोड़ से साहित्य नहीं बदल रहा है।
 
उन्होंने आगे कहा कि अक्सर सुना जाता है कि साहित्य अपने समय का दस्तावेज होता है। अगर वह समय से बाहर का साहित्य है, तो उसे दूर तक चलने वाला साहित्य नहीं कहा जाता। यही मेरे उपन्यास का आधार है। एक गांव है, जो देश का कोई भी गांव या कस्बा हो सकता है और 'फसक' एक कुमाऊंनी शब्द है जिसका अर्थ गप्प है, जो शुद्ध व स्वच्छ नहीं है। चीजें कैसे अफवाह में तब्दील हो जाती हैं, यह आप इस उपन्यास में देख सकते हैं।
 
वार्तालाप के क्रम को आगे बढ़ाते हुए लेखिका, साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत और 'शब्द पखेरू' उपन्यास की लेखिका नासिरा शर्मा से अजित राय ने कहा कि आप अपने उपन्यास के बारे में श्रोताओं को कुछ बताएं।
 
नासिरा शर्मा का कहना था कि यकीन तो मेरा यही है कि लेखक की कोई उम्र नहीं होती। लोग कैसे प्रेम व आदर से बड़ी-बड़ी बात करते हैं और फिर उनके शब्द गायब हो जाते हैं। लेखक का काम ही शब्दों की काया में रचना करना है। हम ऐसी दुनिया में न खो जाएं कि न दुनिया का पता हो और न ही रीढ़ की हड्डी का, इसलिए अपने शब्दों की कद्र करो, उनको संभालकर रखो। उससे आपकी इज्जत बढ़ती है। छपे हुए शब्द की कद्र कभी खत्म नहीं होती, समयानुसार बस नई चीजें उसमें जुड़ती जाती हैं।
 
अजितजी ने 'हसीनाबाद' की लेखिका गीताश्री से कहा कि गीताश्रीजी के प्रशंसकों की तो संपूर्ण भारत में भरमार है। गीताजी की बड़ी ही खुशनुमा उपस्थिति है हमारे बीच। गीताजी, मैं आपसे पूछना चाहूंगा कि 'हसीनाबाद' का नाम सुनकर भ्रम पैदा होता है कि ये उपन्यास हसीनाओं पर बात करता है, तो इस पर आप क्या कहना चाहेंगी?
 
गीताश्रीजी का जवाब था कि अगर मैं पत्रकार न होती, तो लेखक न होती। 'हसीनाबाद' हाशिये और सामंती जीवन से पीड़ित औरतों की बात करता है। 'हसीनाबाद' वह बस्ती है, जो नक्शे पर नहीं मिलती, क्योंकि नई पीढ़ी ने उसे बदल दिया है। मेरा लेखन पाठकों के मनोरंजन के लिए नहीं है। आज के समय में औरतों के साथ जो अन्याय हो रहा है, उसकी कहानी है। तो नाम पर न जाएं तथा पढ़ने के बाद बात करें और अपने दिमाग के जाले साफ करें।
 
कार्यक्रम का अंत बालेंदु द्विवेदीजी के उपन्यास 'मदारीपुर जंक्शन' के नुक्कड़ नाटक द्वारा किया गया। 

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