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ग़ज़लों में आज भी जिंदा हैं मशहूर शायरा परवीन शाकिर

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फ़िरदौस ख़ान

* बाल सुखाने के मौसम अनपढ़ होते हैं - 
26 दिसंबर : पुण्यतिथि पर विशेष
 
पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर के कलाम की ख़ुशबू ने न केवल पाकिस्तान, बल्कि हिन्दुस्तान की अदबी फ़िज़ा को भी महका दिया। वे अपना पहला काव्य संग्रह आने से पहले ही इतनी मशहूर हो चुकी थीं कि जहां भी शेरों-शायरी की बात होती, उनका नाम ज़रूर लिया जाता।
 
उनका पहला काव्य संग्रह ख़ुशबू 1976 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद उनके एक के बाद एक कई काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। सद बर्ग 1980 में प्रकाशित हुआ, जबकि 1990 में उनके 2 काव्य संग्रह ख़ुद कलामी और इनकार प्रकाशित हुए। इसके बाद 1994 में उनका काव्य संग्रह माह-ए-तमाम प्रकाशित हुआ। फिर क़फ-ए-आईना और गोशा-ए-चश्म प्रकाशित हुए।
 
24 नवंबर 1952 को पाकिस्तान के कराची शहर में जन्मीं परवीन शाकिर को अपने वालिद शाकिर हुसैन से बेपनाह मुहब्बत थी। उनके नाम में भी उनके पिता का नाम शाकिर हमेशा शामिल रहा। कराची के सैयद कॉलेज से इंटरमीडिएट करने के बाद उन्होंने कराची विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए किया। इसके बाद उन्होंने बैंक एडमिनिस्ट्रेशन में डिग्री ली। उन्होंने पीएचडी भी की। 9 साल तक उन्होंने अध्यापन किया। इसके बाद 1986 में वे इस्लामाबाद में कस्टम विभाग में सचिव के पद पर नियुक्त हुईं।
 
उन्होंने युवावस्था से ही लिखना शुरू कर दिया था। पाकिस्तान के उर्दू एवं अंग्रेज़ी अख़बारों में उनके कॉलम छपते थे। पहले वे 'बीना' नाम से लिखती थीं। उनकी शायरी ने बहुत कम अरसे में ही उन्हें उस बुलंदी पर पहुंचा दिया जिसके लिए न जाने कितने शायर तरसते हैं। उनकी ग़ज़लें लोगों को एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं, जहां से वे लौटना ही नहीं चाहते। लोग अपने महबूब को ख़त लिखते समय उसमें उनके शेअर लिखना नहीं भूलते। यही तो उनकी क़लम का जादू है-
 
चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
ख़ामोशी में भी वो बातें उसकी
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेअर कहती हुई बातें उसकी
ऐसे मौसम भी ग़ुजारे हमने
सुबहें जब अपनी थीं, शामें उसकी...
 
परवीन शाकिर का कलाम महबूब को बेपनाह चाहने के जज़्बे से लबरेज़ है। इस जज़्बे में नज़ाकत भी है और नफ़ासत भी-
 
जाने कब तक तेरी तस्वीर निगाहों में रही
हो गई रात तेरे अक्स को तकते-तकते
मैंने फिर तेरे तसव्वुर के किसी लम्हें में
तेरी तस्वीर पे लब रख दिए आहिस्ता से...
 
परवीन शाकिर की शादी डॉ. निसार अली से हुई। उनका एक बेटा है सैयद मुराद अली। परवीन शाकिर की शादी कामयाब नहीं रही और उनका तलाक़ हो गया। इस रिश्ते की टूटन का एहसास उनके कलाम में भी झलकता है-
 
बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा...
 
उनकी शायरी में एक औरत की मुहब्बत, उसके ख्वाब और उसका दर्द झलकता है। यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि उनका कलाम ज़िंदगी के अनेक रंगों को अपने में समेटे हुए है। उसमें मुहब्बत का रंग भी शामिल है, तो जुदाई का रंग भी। ख़ुशी का रंग भी झलकता है तो दुखों का रंग भी नज़र आता है-
 
कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने
बात तो सच है, मगर बात है रुसवाई की
वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की...
 
उनकी ग़ज़लों की तरह उनकी नज़्में भी बेहद लोकप्रिय हुईं। चंद अल्फ़ाज़ में गहरी से गहरी बात को बड़ी आसानी से कह जाने का हुनर उन्हें बख़ूबी आता था। ऐसी ही उनकी एक नज़्म 'चांद' है-
 
एक से मुसाफ़िर हैं
एक सा मुक़द्दर है
मैं ज़मीं पर तन्हा
और वो आसमानों में...
 
'बस इतना याद है' भी उनकी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है-
 
दुआ तो जाने कौन सी थी
ज़ेहन में नहीं
बस इतना याद है
कि दो हथेलियां मिली हुई थीं
जिनमें एक मेरी थी
और इक तुम्हारी...
 
उनके कलाम में एक ऐसी औरत का दर्द झलकता है, जो मुहब्बत से महरूम है। अपनी नज़्म 'मुक़द्दर' में वे इसी दर्द को बयां करती हैं-
 
मैं वो लड़की हूं
जिसको पहली रात
कोई घूंघट उठाके यह कह दे
मेरा सब कुछ तेरा है, दिल के सिवा...
 
उनकी ऐसी ही एक और नज़्म है 'ड्यूटी' जिसमें वे एक ऐसी औरत के दर्द को पेश करती हैं जिसका पति उसका होकर भी उसका नहीं है। औरत इस सच को जानते हुए भी इसे सहने को मजबूर है-
 
जान!
मुझे अफ़सोस है
तुमसे मिलने शायद इस हफ्ते भी न आ सकूंगा
बड़ी अहम मजबूरी है
 
जान!
तुम्हारी मजबूरी को
अब तो मैं भी समझने लगी हूं
शायद इस हफ्ते भी
तुम्हारे चीफ की बीवी तन्हा होगी...
 
ज़िंदगी में मुहब्बत बार-बार नहीं मिलती इसलिए इसे सहेज लेना चाहिए। इसी बात को वह अपनी एक नज़्म 'एक दोस्त के नाम' में बख़ूबी पेश करती हैं-
 
लड़की!
ये लम्हें बादल हैं
गुज़र गए तो हाथ कभी नहीं आएंगे
उनके लम्स को पीती जा
क़तरा-क़तरा भीगती जा
भीगती जा तू, जब तक इनमें नमी है
और तेरे अंदर की मिट्टी प्यासी है
मुझसे पूछ कि बारिश को वापस आने का रस्ता
न कभी याद हुआ
 
बाल सुखाने के मौसम अनपढ़ होते हैं...
 
इस हरदिल अज़ीज़ शायरा को ज़िंदगी ने बहुत कम सांसें दीं। 26 दिसंबर 1994 को उनकी कार एक बस के साथ टकरा गई। इस हादसे में उनकी मौत हो गई। जिस दिन उनकी मौत हुई, उस रोज़ बारिश भी बहुत हो रही थी। लग रहा था, मानो बादल भी उनकी मौत पर मातम कर रहे हों। अपने कलाम के रूप में परवीन शाकिर आज भी ज़िंदा हैं और लोग हमेशा उनकी ग़ज़लों को गुनगुनाते रहेंगे।

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