स्त्री विमर्श है क्या? क्या वह जो स्त्री लिख रही है या वह जो स्त्री के लिए लिखा जा रहा है। क्या ऐसा तो नहीं है कि साहसी और खुले लेखन के बहाने स्वयं स्त्री रचनाकार ही सॉफ्ट पोर्नोग्राफी को बढ़ावा दे रही है.... यह सवाल लखनऊ से पधारीं डॉ. शालिनी माथुर ने इंदौर साहित्य उत्सव से प्रभावी ढंग से उठाए। वह यहां औरत नहीं है खिलौना सत्र में अपना पक्ष रख रही थीं। इस सत्र को वरिष्ठ पत्रकार निर्मला भुराडिया ने मॉडरेट किया और इसमें साथी वक्ता थीं डॉ. मीनाक्षी स्वामी।
शालिनी माथुर ने गीताश्री और समकालीन महिला रचनाकारों कीकथाओं के अंश सुनाकर सवाल किए कि यह कैसी प्रगतिशीलता है जो स्वयं तो महिलाएं अपने लेखन में खुलेपन को स्वीकार रही हैं और यही लेखन अगर पुरुष लेखक की तरफ से आ जाए तो विरोध दर्ज करवाती है? उनके अनुसार यह सच है कि स्त्री देह पर उसका अपना अधिकार है लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि उस अधिकार की आड़ में एक खास किस्म की सॉफ्ट पोर्नोग्राफी को वे स्वयं परोस रही हैं। हालात यह है कि जब उन पर सवाल उठते हैं तो नैतिकतावाद के व्यंग्य के साथ उन्हें द बा दिया जाता है। उन्होंने पुरुषों पर भी बेबाक सवाल दागे और पूछा कि क्या जितने अधिकार से पुरुषों ने महिलाओं पर लिखने का साहस किया है उतने अधिकार से कभी अपने शरीर की व्याख्या की है? उनके अनुसार पाठक को कोसने और इंटरनेट को कोसने से काम नहीं चलेगा। टेक्नोलॉजी के बढ़ते वर्चस्व में महिलाएं स्वयं बोल्डनेस के नाम पर पोर्नोग्राफी का आइटम बन रही है।
डॉ. मीनाक्षी स्वामी ने कहा कि औरत को खिलौना होने से रोकना है तो शुरूआत परिवार से ही करनी होगी। कानून, पूलिस व प्रशासन बाद में आता है और मुख्य बात तो यह है कि कई बार कानून की कठोरता से भ्रष्टाचार को अधिक बढ़ावा मिलता है अत : स्त्री स्वयं तो अपने लिए सोचें ही पर पहल परिवार को करनी होगी।