वाणी प्रकाशन द्वारा दरियागंज की विस्मृत साहित्यिक परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए आरंभ किए गए कार्यक्रम 'दरियागंज की किताबी शामें' श्रृंखला की दूसरी कड़ी 4 अप्रैल को आयोजित की गई। वाणी प्रकाशन के कार्यालय में स्थित डॉ. प्रेमचन्द्र 'महेश' सभागार में आयोजित परिचर्चा का विषय था- 'आलोचना के परिसर : साहित्य का रचनात्मक प्रतिपक्ष'। इस विषय पर वरिष्ठ आलोचक प्रो. गोपेश्वर सिंह से सुपरिचित आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने संवाद किया।
वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह ने बजरंग बिहारी तिवारी के साथ हुए अपने संवाद में कहा कि आलोचना का जन्म ही लोकतांत्रिक सपने के साथ हुआ है। लोकतंत्र ने सत्ता की आलोचना की गुंजाइश दी और साहित्य में इसका विस्तार हुआ। आलोचना के अधिकार को हमने हासिल किया है और यह मामूली बात नहीं है। हमारा विश्वविद्यालय परिसर जैसा लोकतांत्रिक हुआ करता था, अब उस पर भी संकट है।
कालांतर में हमने यह भी पाया है कि आलोचना दो खेमों में बंट सी गई है- एक को कला की चिंता है, दूसरे को समाज की। अपनी पुस्तक में मैंने कला और समाज के पार्थक्य को कम करने की कोशिश की है। किसी भी मंच या विचारधारा का भी बहिष्कार नहीं होना चाहिए बल्कि संवाद का मार्ग खुला होना चाहिए। इसके बिना लोकतंत्र की कोई भी वैचारिक लड़ाई संभव नहीं है।
आलोचना को कृति के अंतरमन को पकड़ना चाहिए। जो आलोचना कृति का नया पाठ तैयार नहीं करती है, उसे अपने प्रारूप पर विचार करना चाहिए। सिर्फ सिद्धांत कथन कहने वाली आलोचना रचनात्मक नहीं कही जा सकती है। गोपेश्वर सिंह ने आगे कहा कि साहित्य वकीली तर्कों का कारोबार नहीं, यहां हृदय पक्ष भी शामिल है। भावुकता और अतिभावुकता में भी अंतर है।
इस पुस्तक का नाम ही है- 'आलोचना के परिसर' जिसका अर्थ ही है इसके कई दरवाजे हैं। यहां नए लेखन के लिए भी प्रवेश द्वार है और वर्चुअल लेखन के लिए भी। एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि चाहे कोई कृति किसी भी माध्यम से आए, उसमें रचना तो होनी चाहिए। क्या आज की रचना आलोचना से परे हो गई है?
बजरंग बिहारी तिवारी ने उनकी पुस्तक 'आलोचना के परिसर' के हवाले से अस्मितावाद, कविता में मिथ कथन एवं सरकार पोषित संस्थाओं के संदर्भ में महत्वपूर्ण प्रश्न रखे। उन्होंने आलोचना के अस्तित्व पर आए संकट को रेखांकित किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एवं आलोचक रामेश्वर राय ने कहा कि 'आलोचना के परिसर' विशुद्ध आलोचना पुस्तक नहीं है बल्कि यहां हिन्दी भाषा का अपना आंतरिक चौपाल विकसित है। यहां ज्ञान का आतंक नहीं, संवाद की आत्मीयता है। इस परिचर्चा में ज्योतिष जोशी, अनुपम सिंह, राजेश चौहान, श्यौराज सिंह बेचैन, नीलिमा चौहान आदि ने भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संचालन वाणी प्रकाशन की प्रधान संपादक रश्मि भारद्वाज ने किया।
कार्यक्रम में मुकेश मानस, श्यौराज सिंह बेचैन, ज्योतिष जोशी, रजत रानी मीनू, ब्रजेश मिश्र, राजीव रंजन गिरि, नीलिमा चौहान, प्रवीण कुमार, सुनील मिश्र, रमेश ठाकुर, विपुल कुमार, अतुल सिंह, दीपिका वर्मा, सुशील द्विवेदी, नीरज मिश्र आदि उपस्थित थे।