‘सेप्पुकु’और ‘सच्चा झूठ' (पत्रकारिता के पतन) से शुरू हुई कवि, उपन्यासकार और कला समीक्षक विनोद भारद्वाज की उपन्यास-त्रयी की तीसरी और अंतिम कड़ी ‘एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा’ ने 2008 के बाद भारतीय कला बाज़ार में आई जबरदस्त गिरावट, नोटबंदी से पैदा हुई निषेधी स्थिति को एक अलग-लगभग अतियथार्थवादी कोण से देखने की कोशिश है।
उपन्यास का नायक जय कुमार 1984 में दिल्ली के कुख्यात सिख हत्याकांड की रक्तरंजित स्मृतियों में जन्मा एक साधारण डाकिए की संतान है। 2004-07 के समय में भारतीय कला बाज़ार में जो जबरदस्त उछाल आया था उसके थोड़े-से स्वाद ने जय कुमार की रचनात्मकता को लगभग अवरुद्ध कर दिया है। वह अपने को सेक्स एडिक्ट समझने लगता है। हालांकि उसकी सेक्स ज़िंदगी कला बाज़ार के नए अतियथार्थवादी व्याकरण के कारण भी रोगग्रस्त होने का भ्रम पैदा करती है।
दिल्ली की कला दुनिया का एक अंडरग्राउंड भी है जिसमें विनोद भारद्वाज की एक कला समीक्षक के रूप में आत्मीय आवाजाही रही है। कलाकारों ने किसी सेक्स रोगी होने का भ्रम पैदा करने वाले अपने अनगिनत किस्से समय-समय पर लेखक को सुनाए हैं। उन्हीं किस्सों ने इस उपन्यास की घटनाओं का ताना-बाना रचा है। कभी-कभी यथार्थ कल्पना से कहीं अधिक अतियथार्थवादी होता है।
इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में देश की बदलती राजनीतिक स्थिति की कड़वी सच्चाई भी है। इसके केंद्र में ऐसे पात्र भी हैं जो कला बाज़ार में 2008 में आई नाटकीय गिरावट को कांग्रेस के पतन से भी देख रहे थे। उन्हें मोदी की अर्थनीतियों से उम्मीदें थीं; पर उनका मोहभंग होने में भी देर नहीं लगी। जय कुमार क्या इस दुनिया में अपनी कला के सच्चे पैशन को बचा पाएगा? रोगी वह स्वयं है या उसके आसपास का समाज और राजनीति?
लेखक- विनोद भारद्वाज (एम.ए.)। 1948 में लखनऊ में जन्मे विनोद भारद्वाज अभी तक हिन्दी के एकमात्र फ़िल्म समीक्षक हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय ज्यूरी के सदस्य बनाए जाने का दुर्लभ सम्मान मिला है। 1967-69 में अपने समय की बहुचर्चित पत्रिका 'आरम्भ' के संपादक रहे, इसके अलावा कई स्थानों पर पत्रकार के रूप में जुड़े रहें तथा उनके कई कविता और कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।