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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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क्यों नही समझा जाता - बहू को बेटी !

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देवेन्द्र सोनी
आज हम डिजिटल युग में प्रवेश करने की बात करते हैं। आधुनिकता, स्वतंत्रता और स्वछंदता की पराकाष्ठा में जीने का प्रयास भी करते हैं लेकिन अनेक सामाजिक, पारिवारिक पुरातन व्यवस्थाएं ऐसी हैं जिनमें हम रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं करना चाहते।। इन सब में सर्वाधिक ज्वलंत, शाश्वत और चिंताजनक मुद्दा है - बहू को बेटी न मानना। 
         
आज बेटियां हर क्षेत्र में अग्रसर हैं। वे ससुराल में भी अनेक जगह दोहरी जिम्मेदारियां निभाती हैं। वाबजूद इसके उन्हें बेटी की तरह माहौल नही मिलता। बहू पर लागू होते रहे सारे हथकंडों से उन्हें जूझना ही पड़ता है। आखिर ऐसा क्यों ? 
 
यदि इस प्रश्न का हल ढूंढा जाए तो मुझे तो सिर्फ - वैचारिक समझ का अभाव ही मिलता है। आर्थिक संपन्नता या विपन्नता इसका मूल नहीं है। बहू को बेटी न समझने के पीछे परोक्ष रूप से अभिमान और प्रत्यक्ष रूप में प्राचीन ताना-बाना भी मुख्य रूप से अपनी भूमिका निभाता है। युगों से चला आ रहा है यह। इसे संपूर्ण तौर पर बदलना असंभव तो लगता है पर इसे आपसी समंवय से संभव भी बनाया जा सकता है, क्योंकि जब तक हर परिवार सम्यक रूप से अपनी मानसिकता नहीं बदलेगा, तब तक बहू को बेटी बताया जाना सिर्फ छलावा ही है। 
 
बहू को बेटी की तरह तभी रखा जा सकता है जब घर की महिलाएं खुद में बदलाव लाएं। उन्हें भूलना होगा पूर्व में उनके साथ क्या व्यवहार हुआ? इसके साथ ही पुरुषों को भी अपना दंभ छोड़ना होगा और हर गैरजरूरी रूढ़ियों को त्यागना होगा। अनेक परिस्थितियों में जरूरी तालमेल भी उन्हें ही करना होगा। सोचना होगा कि - एक बेटी, अपना पूरा परिवार, रिश्ते-नाते और रहन-सहन छोड़कर बिलकुल नए और अनजान माहौल में आई है। सब कुछ बदल गया है उसके लिए। उसे ताल मेल बैठाने का समय और जरूरी सुख-सुविधाएं तो देना ही होंगी। तभी वह आपका घर-संसार बसा सकती है। आई ही है वह ईश्वरीय विधान को पूरा करने के उद्देश्य से जीवन भर के लिए खुद को समर्पित करने। समझें इसे।
 
अलावा इसके बेटी के परिजनों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए वह अपनी बेटी को इस तरह प्रशिक्षित करें कि उसे नए माहौल और रिश्तों से तालमेल करने में असुविधा न हो। बेटी को भी इन्हें समझना और ससम्मान निर्वाह करना होगा तभी वह इस अवधारणा और हकीकत को बदलने में कामयाव हो सकेगी और बेटी के वजूद को बचा सकेगी।

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