आपने कहावत कहां राजा भोग और कहां गंगू तेली तो सुनी ही होगी। आइए प्रामाणिक आधारों से जानते हैं इस कहावत के बारे में - यह कहावत राजा भोज की वीरता के बारे में वर्णित है। भोज परमार एक ऐसे महाराजा थे जिन्होंने साहित्य, कला, ज्योतिष, शिल्पकला, धर्मशास्त्र, दर्शन के अनेक ग्रन्थ लिखे जिसमें से 80 के नाम आज भी ज्ञात है।
उन्होंने तलवार से भी कभी समझौता नहीं किया, उन्होंने अपने 55 वर्ष के जीवन काल में अनेक युद्ध भी लड़े और सब में विजयी हुए। मध्यप्रदेश के धार में उनके द्वारा बनवाया गया वाग्देवी का मंदिर स्थित है जिसे भोजशाला कहते हैं। इस के सर्वेक्षण में शिलाओं पर परिजातमंजरी नाटिका मिली थी जिसे परमार राजा अर्जुन वर्मन के आदेशानुसार भोजशाला में शिलाओं पर उकेरा गया था। इसमें भोज के समय की धारानगरी और स्वयं राजाभोज का वर्णन है।
इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि चेदिदेश के राजा गांगेयदेव कलचुरी को भोज ने पराजित किया था, जब भोज ने जयसिंह तेलंग पर आक्रमण किया तो गांगेयदेव ने उनका साथ दिया था। गोदावरी के तट पर अवरुद्ध होने पर भी किसी अन्य पथ से भोज ने कोंकण पर विजय प्राप्त कर ली। इस युद्ध में गांगेय राजा पराजित हुआ तथा राज्य का कुछ भाग भोज के अधीन हो गया। इन दोनों राजाओं को पराजित करने के कारण एक कहावत प्रचलित हो गई - कहां राजा भोज और कहां गांगेय तेलंग। जो बाद में अपभ्रंशित होकर गांगी तेलन और फिर गंगू तेली में बदल गई।
आज भी धार में एक बड़ा प्रासाद है, जिसे लाट मस्जिद के नाम से जाना जाता है। यहां एक विशाल लोह स्तम्भ तीन खंडो में रखा है। इसे गंगू तेली की लाट भी कहा जाता है।
इतिहासकारों का मानना है कि संभवतः भोज की गांगेयदेव तेलंग पर विजय के रूप में यहां एक विजयस्तम्भ खड़ा किया गया था। इस स्तंभ नीचे से चतुष्कोण और ऊपर से अष्टकोणीय था। उस समय भारत आये विदेशी लेखक और विद्वान माने जाने वाले अलबरूनी ने भी 1030 ई में इसका वर्णन किया था। जिसके अनुसार इस पर परमारों का राजचिह्न मानव की आकृति में गरुड़ जिन्होंने हाथ में सर्प पकड़ा हो, वह था।