होलकर राजवंश की इतिहास प्रसिद्ध महिलाएं

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मालवा के उत्तरकालीन इतिहास में होलकर राजवंश का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस वंश के वीर पुरुषों ने जहां युद्धक्षेत्र में अपने शौर्य के कारण अपार ख्याति अर्जित की है, वहीं इस परिवार की महिलाओं ने स्थानीय प्रशासन, दान-पुण्य और सद्‌व्यवहार के कार्यों से विजित राज्य को स्थायित्व प्रदान करने में महान ऐतिहासिक कार्य किए हैं।
 
गौतमाबाई होलकर : मल्हारराव जैसे वीर मराठा सेनापति को तत्कालीन इतिहास में जो गौरव प्राप्त हुआ, उसका बहुत बड़ा श्रेय उनकी प्रथम पत्नी गौतमाबाई होलकर को है। वह स्वभावत: धीर, वीर और एक आदर्श मराठा महिला थीं। इनके पिता का नाम भोजराज बारगल और माता का नाम मोहिनी बाई था। पिता भोजराज बारगल, मल्हारराव के मामा थे। उनके भाई नारायणजी बारगल उदयपुर महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) के दरबार में सेवारत थे। 7 वर्ष की अल्प आयु में ही गौतमाबाई का विवाह होलकर वंश के संस्थापक सेनापति सूबेदार मल्हारराव होलकर से हुआ।
 
नारायणजी बारगल को महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) ने बूढ़ा परगना (मंदसौर जिले का नारायणगढ़) उनकी सेवाओं के उपलक्ष्य में जागीर स्वरूप दे रखा था। भाई ने बहन गौतमाबाई को विवाह में उक्त परगने का आधा भाग भेंटस्वरूप प्रदान किया और विवाह के साथ ही मल्हारराव को पश्चिमी मालवा में राज्यश्री के रूप में उक्त भू-भाग प्राप्त हो गया। गौतमाबाई ने अपनी जागीर के प्रमुख गांव का नाम अपने पति के सम्मान में मल्हारगढ़ रखा और नारायणजी बारगल की शेष जागीर के प्रमुख गांव का नाम नारायणगढ़ कर दिया गया।
 
गौतमाबाई होलकर मल्हारराव को अमर सेनापति बनाने वाली, प्रशासन में दक्ष, अनुशासन में कठोर किंतु स्वभाव से दयालु महिला थीं। संकट की प्रत्येक घड़ी में वे वीर तथा धीर मराठा महिला के रूप में मल्हारराव के साथ रहीं और उन्हें ढांढस बंधाया। एक दूरदर्शी व कुशल सलाहकार के रूप में उन्होंने मल्हारराव को व्यक्तिगत एवं राजकीय कार्यों में सहयोग प्रदान किया। श्री एम.डब्ल्यू. बर्वे द्वारा उद्‌धृत एक उदाहरण इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। गौतमाबाई प्राय: मल्हारराव के साथ उनके सैनिक अभियानों में रहा करती थीं। पानीपत के तृतीय युद्ध के समय जबसिकंदरा के निकट दत्ताजी सिंधिया की असामयिक मृत्यु हो गई, तब मल्हारराव अत्यंत दुखी हुए।
 
निराश एवं हताश सेनापति को गौतमाबाई ने बड़े ही उत्साहवर्धक शब्दों में उनके कर्तव्यों का भान कराते हुए लिखा था- 'आप शूर, अनुभवी और सरदार होकर इस समय शोक में डूबे हुए हैं? दत्ताजी और जनकोजी आज के बच्चों ने कितना पराक्रम किया और आप रोते बैठे हैं। जनकोजी शिंदे घायल हैं, साथ ही उनकी स्त्रियां और साथी भी दुखी हैं। इसलिए उनसे मुलाकात कर उनको दिलासा देना ही आपके लिए योग्य है।' गौतमाबाई के इस संदेश पर मल्हारराव ने जनकोजी शिंदे के परिवार को मालवा भेजा और स्वयं दोगुने उत्साह से युद्ध में व्यस्त हो गए।
 
वर्ष 1733 में मल्हारराव होलकर ने श्रीमंत पेशवा बाजीराव को एक प्रार्थना पत्र दिया कि 'मेरी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए मेरी पत्नी गौतमाबाई को कुछ जागीर प्रदान की जाए।' पेशवा के भाई चिमणाजी बल्लाल ने भी इसके लिए पेशवा से सिफारिश की। तद्‌नुसार छत्रपति शाहू की आज्ञा से पेशवा ने 20 जनवरी 1734 को मल्हारराव को एक पत्र लिखकर गौतमाबाई के लिए खासगी जागीर प्रदान कर दी। महाराज कुमार डॉ. रघुवीरसिंह के अनुसारउसी खासगी जागीर की प्राप्ति के बाद मालवा में होलकर राज्य की वास्तविक स्थापना हुई।
 
इस पत्र द्वारा गौतमाबाई होलकर की 2,99,010 रु. वार्षिक आय की एक बड़ी जागीर प्राप्त हुई। इस खासगी जागीर की समुचित सुव्यवस्था का श्रेय भी गौतमाबाई को मिला। वह एक कुशल प्रशासक की भांति समय-समय पर अधिकारियों को स्वयं निर्देशन देकर खासगी ताल्लुकों की व्यवस्था करती थीं। अहिल्याबाई होलकर ने प्रशासन की सूझबूझ इन्हीं से प्राप्त की थी। गौतमाबाई एक सुयोग्य सासू के स्नेह के साथ अहिल्याबाई को कई कार्यों की शिक्षा भी देती रहीं और उन्हें खासगी की सच्ची उत्तराधिकारी बना सकीं।
 
होलकर राजवंश की इस इतिहास प्रसिद्ध महिला का स्वर्गवास 66 वर्ष की आयु में बुधवार 21 अक्टूबर 1761 को हुआ। इनकी कीर्ति वर्षों तक मालवा में गूंजती रही। लगभग 27 वर्षों तक उन्होंने खासगी जागीर की व्यवस्था का कार्य पूर्ण सफलता के साथ संपन्न किया।
 
द्वारिकाबाई व बजाबाई होलकर : होलकर राजवंश में जहां गौतमाबाई और अहिल्याबाई जैसी संभ्रांत महिलाओं ने राजकार्य में अपना विशिष्ट स्थान बनाया, वहीं द्वारिकाबाई और बजाबाई जैसी सतियों ने हिन्दू धर्म की तत्कालीन परंपराओं केअनुरूप पति की पार्थिव देह के साथ सहगमन किया। द्वारिकाबाई और बजाबाई (बनाबाई) होलकर मल्हारराव होलकर की पत्नियां थीं। इनके संबंध में बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है।
 
प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात होता है कि आलमपुर में सूबेदार मल्हारराव होलकर की मृत्यु के समय ये दोनों वहीं थीं और मंगलवार 20 मई 1766 के दिन पति के पार्थिव शरीर के साथ सहगमन किया था। चंद्रचूड़ दफ्तर में इनका उल्लेख किया गया है। मल्हारराव के साथ ही इन दोनों सतियों की भी उत्तर क्रिया कालीसिंध नदी के तट पर हुई और अस्थियां गंगा में प्रवाहित हुईं। मल्हारराव की इन दोनों पत्नियों ने जहां हिन्दू परंपरा का निर्वाह किया वहीं होलकर राजवंश की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि की।
 
खांडारानी हरकूबाई होलकर : मंगलवार 20 मई 1766 के दिन मराठों के वीर सेनापति मल्हारराव होलकर की जीवन ज्योति विलुप्त हो गई। मृत्यु स्थल पर ही आलमपुर में उनका दाह संस्कार संपन्न हुआ। उनकी दो पत्नियां द्वारिकाबाई और बजाबाई पति के पार्थिव शरीर के साथ सती हो गईं। मल्हारराव की प्रथम पत्नी गौतमाबाई का पहले ही (बुधवार 21 अक्टूबर 1761 को) देहांत हो चुका था। चतुर्थ पत्नी हरकूबाई थीं, जिन्हें खांडारानी भी कहा जाता था। उनके संबंध में बहुत कम प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है।
 
होलकरशाही के आरंभिक पत्र व्यवहार में यद्यपि हरकूबाई का नाम कई बार आता है, परंतु उससे उनके जीवनवृत्त पर पर्याप्त प्रकाश नहीं पड़ता। श्री भा.रं. कुलकर्णी ने शिरपुर गांव के पाटिलकी से संबंधित पत्र व्यवहार के आधार पर हरकूबाई के संबंध में कुछ जानकारी एकत्र की है, परंतु वह भी पर्याप्त नहीं है। तथापि, जो कुछ जानकारी उपलब्ध होती है उस आधार पर इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि हरकू बाई को होलकर राजवंश में गौरवपूर्ण तथा सम्मान का दर्जा प्राप्त था। वह अपने निजी पत्र व्यवहार में स्वयं की मुद्रा 'श्री दत्त चरणी तत्पर हरकूबाई होलकर' का उपयोग करती थीं।
 
मल्हारराव के अंत:पुर में उनका वजन था और अहिल्याबाई ने अपने पत्र व्यवहार में 'गंगाजल निर्मल हरकाई' जैसे सम्मानित शब्दों का प्रयोग उनके लिए किया है। इनके संबंध में कहा जाता है कि वे शिरपुरकर परिवार की कन्या थीं और उनका विवाह खानदेश के वाघाड़ी गांव में हुआ था।

तारुण्यकाल में ही वह विधवा हो गईं और बाद में खांडारानी की हैसियत से मल्हारराव के अंत:पुर में उनका प्रवेश हुआ। सेनापति मल्हारराव के खांडे (तलवार) के बंधन की रस्म के साथ उनका विवाह हुआ। कुछ लोग मल्हारराव की खांडा रानी को सिर्वी जाति की कन्या मानते हैं, परंतु श्री वा.वा. ठाकुर के अनुसार शिरपुरकर वंश की हरकूबाई ही खांडा रानी थीं।
 
खानदेश में सिरपुर बुजुर्ग गांव की पाटिल की के संबंध में एक बार विवाद उत्पन्न हुआ था और तुकोजीराव प्रथम के द्वितीय पुत्र मल्हारराव ने उस गांव पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया था। हरकूबाई अपने भांजे (संभवत: बहन के लड़के) को उक्त हक दिलवाना चाहती थीं। अहिल्याबाई ने भी हरकूबाई का पक्ष लिया और मल्हारराव को कठोर पत्र लिखा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि देवी अहिल्याबाई के हरकूबाई से संबंध पर्याप्त स्नेहपूर्ण थे।
 
पुराने पत्र व्यवहार में मल्हारराव होलकर के कई ऋणानुबंधों में भी हरकूबाई का नाम प्राप्त होता है। उससे भी यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मल्हारराव के जीवनकाल में हरकूबाई का अपना निजी महत्व था। तथापि होलकर राजवंश की ऐतिहासिक महत्व की महिलाओं में अपनी स्वयं की प्रतिभा और सूझबूझ के परिणामस्वरूप जो स्थान हरकूबाई ने बनाया था, वह पर्याप्त महत्व का था।
 
कथानकों से ज्ञात होता है किहरकूबाई धार्मिक दृष्टि से मानभावपंथ की मानने वाली धार्मिक महिला थीं और उन्होंने इस पंथ के कई मंदिरों की व्यवस्था हेतु धनराशि दी थी। ऐसी ही कथा यशवंतराव प्रथम की उप पत्नी तुलसाबाई के संबंध में भी प्रचलित है। संभव है इसी कारण से इंदौर नगर में भी मानभाव पंथ को प्रश्रय मिला हो, क्योंकि राजवाड़े के समीप ही इस पंथ का एक मंदिर आज भी अवस्थित है। हरकूबाई की सील से पता चलता है कि वे 'श्री दत्त' में अपार श्रद्धा रखती थीं।
 
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