पर्यावरण संरक्षण: कहीं कोरी कवायद न रह जाए

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
प्रत्येक वर्ष की भांति विश्व पर्यावरण दिवस मनाने और उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए समूचे विश्व सहित हम भी जी-तोड़ मेहनत करने में लग जाते हैं, किन्तु इसके इतर दिनों-दिन पर्यावरण की दुर्गति और उस पर आंखे मूंदकर सबकुछ सही मान लेने की प्रवृत्ति ने हमें प्रकृति के प्रति निर्दयी और कृतघ्न तो बना ही दिया है। बल्कि इसके साथ ही पर्यावरण संरक्षण के नाम पर भ्रष्टाचार और प्रकृति के साथ अत्याचार की खुली छूट भी दे दी गई है।

देश में अमूमन पर्यावरण संरक्षण के लिए केन्द्रीय संस्थाओं के अलावा सैकड़ों-हजारों की तादाद में पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने का दिखावा करने वाली संस्थाएं और तथाकथित मूर्धन्य, पर्यावरण एक्टिविस्ट और प्रकृति प्रेमी का टैग लगाए हुए स्वयंभुओं की भरमार होने के बावजूद भी प्रकृति के तत्वों का अप्रत्याशित, असीमित विदोहन और पर्यावरणीय मानकों का डंके की चोट पर सीधा उल्लंघन और बद से बदतर स्थिति यह बतलाने के लिए पर्याप्त है कि पर्यावरण संरक्षण महज ड्राफ्टिंग, गोष्ठियों और पैकेजों के रुप में आर्थिक गबन का पर्याय बनते जा रहा है।

पर्यावरण के घटकों में वायु,जल-जंगल, जमीन, नदियां, पहाड़, भूमि, वृक्ष, पशु-पक्षी आज सबकुछ लगातार खत्म होते चले जा रहे हैं। किन्तु इसकी चिन्ता अब किसी को नहीं रह गई है बल्कि पर्यावरण संरक्षण देश-विदेश में फाईव स्टार होटलों के ए.सी.हॉल में बैठकर विभिन्न मीटिंग और कागजी फाइलों में योजनाओं के निर्माण, संशोधन एवं कार्यान्वयन की कोरी कवायदें बस रह गई हैं।

प्रकृति के कोई भी तत्व आजकल अपने मूल स्वरूप में नहीं रह गए हैं उन पर मानवीय स्वार्थी लोलुपता ने अपने विषैले पैने धारदार दांतो को गड़ा दिया है जिसके फलस्वरूप आज प्रकृति का मूलभूत ढांचा खतरे में तो है ही इसके साथ ही वह चरमराने की कगार पर आ पहुंचा है। यह दुर्गति अगर हुई है तो केवल और केवल संरक्षण के नाम पर औपचारिकताओं की पूर्ति कर अपना पल्ला झाड़ लेने की वजह के चलते। क्योंकि हमारी प्रवृत्ति एवं संकीर्ण मानसिकता में महज अपने को दायित्वों की कार्रवाई को कागज में पूर्ण कर अपने आप को सुरक्षित रखने की कायरता मुख्य अंग और उद्देश्य बन चुकी है। बाकी ऐसा करने से आगामी समय में क्या दुष्परिणाम सामूहिक तौर पर भुगतने पड़ सकते हैं? इससे किसी भी तरह का कोई मतलब नहीं है।

सरकार एवं प्रशासन तंत्र की निष्क्रियता तथा अकर्मण्यता एवं निजी लाभ के चलते राजनैतिक तंत्र ने खुद को इतना बेबस लाचार कर दिया कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वालों के आगे खुद को एक तरह से गिरवी रख दिया है जिसके चलते उनके हौसले इतने बुलंद हो गए कि उन्हें किसी भी प्रकार के कानून का भय ही नहीं रह गया। राजनैतिक संरक्षण एवं प्रशासनिक मिलीभगत के चलते रातों-रात जंगल पर जंगल साफ होते जा रहे हैं तो अवैध उत्खनन के चलते नदियां भारी-भरकम खदानों में तब्दील होती चली जा रही हैं लेकिन इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे?इससे किसी को कोई लेना -देना नहीं रह गया है।

भारी-भरकम इंतजामों एवं सुरक्षा बलों के रहते हुए भी वनों में पशु-पक्षियों का लगातार शिकार होते रहने के कारण विभिन्न प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर आ चुकी हैं। क्या यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है कि पर्यावरणीय विविधता को खत्म करने के लिए हम कितने निचले स्तर पर चले जा चुके हैं?

जहां तकरीबन दस से बीस वर्ष पहले पहाड़, जंगल और स्वच्छ जल स्त्रोत देखने को मिल जाते थे आज स्थिति यह हो गई है कि उन स्थानों में इन सभी के नामोनिशान ही नहीं रह गए हैं। धड़ाधड़ दिन-रात पहाड़ों को चीरती हुई आधुनिक मशीनों ने महज कुछ वर्षों के अन्दर ही अन्दर समूचे पहाड़ों को फैक्ट्रियों के रास्ते निगल लिया। वहीं रेत के अवैध उत्खनन ने नदियों को गहरी खाइयों में बदल दिया।

नदियों तथा प्राकृतिक जल स्त्रोतों में रसायन युक्त गन्दे पानी के बहाव के चलते वे पूर्णतः दूषित हो गए जिससे उनके पारिस्थितिकीय तंत्र में असंतुलन एवं उनका अस्तित्व ही खत्म होने की कगार पर आ चुका है। ऐसे असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं, लेकिन हम इससे सबक लेने को तैयार नहीं हैं। प्रत्येक वर्ष वृक्षारोपण के ढकोसले और जल स्त्रोतों की सफाई के लिए बनाई जा रही रणनीतियां धरातल पर आते-आते दम तोड़ देती हैं। वहीं आए दिन देश में हजारों-लाखों की संख्या में वृक्षों को एक झटके में विकास के नाम पर धराशायी कर दिया जाता है तथा पर्यावरण संरक्षण का दारोमदार थामने वाली संस्थाएं अपनी बत्तीसी काढ़े रही आती हैं। वहीं अघोषित तौर पर निजी फर्मों एवं कम्पनियों द्वारा वृक्षों की कटाई और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध विदोहन रिश्वत के दम पर धड़ल्ले से किया जाता रहता है तथा जांच के नाम पर खानापूर्ति कर सभी अपना-अपना पल्ला झाड़कर प्रकृति के इन अपराधियों को क्लीनचिट दे देते हैं।

आखिर यह सब संभव हो रहा है तो क्यों हो रहा है? इसका जवाब लेने किसके-किसके पास जाया जाए और दोषारोपण किया तो किया किस पर जाए? हम सभी की बराबर भागीदारी है, लेकिन इन सबके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार तो राजनैतिक और प्रशासनिक तंत्र है जो इन्हें संरक्षण देता है। साथ ही स्वयं राजनैतिक एवं प्रशासनिक वर्ग के लोगों की इन कारनामों में संलिप्तता तथा भागीदारी के चलते ऐसे कृत्य परसेंटेज के आधार पर फल-फूल रहे हैं। जबकि इसका खामियाजा सम्पूर्ण मानवीय अस्तित्व के लिए भुगतना पड़ेगा।

हमारे राष्ट्र का ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में राजनैतिक क्षेत्र पर्यावरण एवं प्रकृति के संरक्षण के प्रति कितने गैरजिम्मेदार एवं संवेदनाशून्य है कि किसी भी राजनैतिक दल या उनके नेताओं द्वारा चुनावी अभियान या कभी भी प्रकृति के संरक्षण को मुद्दा बनाया जाता हो या कि यह स्वीकार किया जाता हो कि सचमुच में पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्द्धन हमारी प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक है? तब ऐसे में हम इसका आंकलन आसानी से कर सकते हैं कि सत्तासीन होने पर पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए कितने प्रतिबद्धत होंगे। इसके दोषी हम आम नागरिक भी हैं, क्योंकि हम पर्यावरण के लिए स्वयं जागरूकता नहीं प्रदर्शित करते। बल्कि सबकुछ सरकार के जिम्मे छोड़ देना चाहते हैं, इस पर हमें भी अपनी इस दुष्प्रवृत्ति को बदलना होगा तथा अपनी अग्रगण्य भूमिका का निर्वहन करते हुए एक ऐसा वातावरण बनाना होगा जो "ईको-फ्रेंडली" हो तथा जिसके लिए सरकार एवं प्रशासन की जवाबदेही आमजनमानस स्वयं सुनिश्चित करे। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि पर्यावरण संरक्षण कहीं मात्र कोरी कवायद ही न रह जाए।

आद्य भारतीय सनातन संस्कृति के जिन महान ऋषियों की परम्परा ने धर्म ग्रंथों से लेकर हमारे दैनिक आचरण में  ढालकर प्रकृति को मां के स्वरूप में पूज्यनीय माना और मानवीय जीवन की प्रकृति के साथ साहचर्यता को स्थापित किया। उसे हमने अपने आधुनिक होने एवं दिखने की अन्धानुकरणीय प्रवृत्ति के चलते ध्वस्त कर दिया जिसके दुष्परिणामों की भयावहता के चलते सम्पूर्ण मानव सभ्यता आज खतरे में पड़ चुकी है।

वास्तव में हमने जानबूझकर अपनी संस्कृति के विस्मरण के चलते ही प्रकृति को क्षति पहुंचाई है, अन्यथा हमारी संस्कृति की जड़ों में विश्व के सभ्य होने के पूर्व से ही आचरण एवं व्यवहार में वे सभी चीजें सम्मिलित रही हैं जिसके लिए आज तमाम प्रयास किए जा रहे हैं।

इसलिए हमारे सहित समूचे विश्व को भारतीय संस्कृति की मूल जड़ों की ओर रुख करना होगा तथा शासन-प्रशासन से लेकर प्रकृति संरक्षण के लिए आम जन का अभियान बनाकर मूर्त रुप देना होगा। ठीक उसी तरह जिस प्रकार हमारे पुरखों ने प्राकृतिक तत्वों यथा नदियों, पर्वत-पहाड़ों, वृक्षों, पशुओं को पूज्य मानकर उनके संरक्षण-संवर्द्धन के लिए प्रतिबद्ध थे!

(नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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