सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों! इस व्रत का वृत्तांत और उत्पत्ति प्राचीन काल में भगवान कृष्ण ने अपने परम भक्त युधिष्ठिर से कही थी, वही मैं तुमसे कहता हूं।
एक समय युधिष्ठिर ने भगवान से पूछा था कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है और उसका क्या फल प्राप्त होता है? उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है, आप कृपा करके मुझसे कहिए। यह वचन सुनकर श्री कृष्ण कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूं। सुनो।
सर्वप्रथम हेमंत ऋतु में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी से इस व्रत को प्रारंभ किया जाता है। दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातून करें ताकि अन्न का अंश मुंह में रह न जाए। रात्रि को भोजन कदापि न करें, न अधिक बोलें।
एकादशी के दिन प्रात: 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करें।
स्नान के पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि 16 चीजों से भगवान का पूजन करें और रात को दीप दान करें। रात्रि में सोना या प्रसंग नहीं करना चाहिए। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा मांगनी चाहिए। धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए।
जो मनुष्य ऊपर लिखी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के 16वें भाग के भी समान नहीं है। व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फल होता है। संक्रांति से 4 लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है।
अश्वमेध यज्ञ करने से 100 गुना तथा 1 लाख तपस्वियों को 60 वर्ष तक भोजन कराने से 10 गुना, 10 ब्राह्मणों अथवा 100 ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमि दान करने से होता है। उससे हजार गुना पुण्य कन्या दान से प्राप्त होता है। इससे भी 10 गुना पुण्य विद्या दान करने से होता है। विद्या दान से 10 गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है। अन्न दान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों, परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है।
हजार यज्ञों से भी अधिक इसका फल होता है। इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है और दिन में एक बार भोजन करने वाले को भी आधा ही फल प्राप्त होता है जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का महात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।