Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

राम-रहीम के बहाने….

हमें फॉलो करें राम-रहीम के बहाने….
webdunia

स्वरांगी साने

संत कबीर…शिरडी के साईं बाबा और गाडगे महाराज…जिन्होंने सामाजिक बदलाव की दिशा में काम किया या भक्ति की रसधारा बहाने वाले संत तुकाराम, मीराबाई या चैतन्य महाप्रभु…ये नाम किसी ख़ास क्रम में नहीं लिखे हैं, केवल यह बताने के लिए लिखे हैं कि अपने समय में और आज भी इनका विरोध करने वाले और इन्हें मानने वाले रहे हैं।
 
महान् समाज सुधारक बाबा साहेब आंबेडकर के अनुयायी हैं तो मायावती के भी…मतलब ऐसा कुछ नहीं है कि लोग किसी अपराधी के पीछे ही दीवानगी दर्शाते हैं..लोगों की दीवानगी किसी फ़िल्म स्टार से लेकर किसी गेम जैसे कि ब्लू व्हेल तक के लिए उसी पागलपन की हद की तक देखी जा सकती है। लोगों को अपना कोट टाँगने के लिए एक खूँटी चाहिए…उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि खूँटी ख़ालिस है जैसे सोना या नकली है जैसे पीतल। 
 
ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि बाबा राम रहीम जैसी कोई घटना क्यों होती है, भक्त हिंसा तक पर उतर आते हैं। तो अध्यात्म कहता है जैसे आप होते हैं वैसे ही गुरु आपको मिलते हैं। कोई चोर होगा तो वह अपने लिए चोरी में जो उस्ताद हो, उसे ही खोजेगा… पाखंडी गुरु मिलना हमारा दुर्भाग्य नहीं, हमारा चयन होता है क्योंकि हम भी वैसे ही पाखंडी होते हैं…मुँह में राम बगल में छुरी। यदि हम सत्य और स्वयं से साक्षात्कार के भूखे होंगे तो निश्चित ही हमें स्वामी रामकृष्ण, शारदा माँ जैसे गुरु मिलेंगे जो हमारे भीतर के विवेकानंद को जगाएँगे..फिर जो भीतर से आएगा वह समाज में हिंसा नहीं भड़काएगा, बल्कि समाज से कहेगा उत्तिष्ठत जाग्रत! 
 
यह तो हुई अध्यात्म की बात, लेकिन अपने स्तर पर हम इसे कैसे समझें, तो उसका जवाब भी आसान है, हमें अपने स्तर पर लोकमंचों, लोक उत्सवों को प्रश्रय देना चाहिए। लोगों के जीवन के ताप, दु:ख को भुलाने के लिए इस तरह के आयोजन उन्हें अकेले होने के अहसास से उबारते हैं। उत्सवों की सामुदायिकता व्यक्ति को अकेले होने का बोध नहीं कराती, वह थोड़ा हँस लेता है और ग़म को ग़लत करने ग़लत स्थानों चाहे ढोंगी बाबा हो या शराब-जुएँ खानों में नहीं जाते।
 
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा शुरू किए गए सार्वजनिक गणेशोत्सव इसका सटीक उदाहरण है, जब लोग मिलते हैं, लेकिन सृजन के लिए विध्वंस के लिए नहीं। हो सकता है ऐसे सार्वजनिक उत्सवों में ग़लत घटनाएँ, ग़लत लोग भी हों, लेकिन वह पूरा समुदाय विकृत नहीं होता, उनमें से कोई एक विकृत मानसिकता का हो सकता है, जिसे मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता है। 
 
पाखंडी पोंगा पंडितों का राजनीति में बढ़ता प्रभुत्व हमारे मानसिक तौर पर कंगाल होते जाने की ओर इशारा करता है, यह इस ओर भी इशारा करता है कि हमने अपने लिए केवल दर्शक होने की भूमिका स्वीकारी है, जो कहीं भी मजमा लगा लेती है, ‘बता जमूरे’ कहते बराबर हँस देती है और तालियाँ पीटकर घर चली जाती है।
 
यदि हम अपनी भूमिका बदलेंगे तो ‘मैं भी अण्णा (हज़ारे)’ सिर पर लगी केवल एक टोपी न होकर, वास्तव में एक अकेले इंसान की ताकत बन सकती है। राजनीति में फिर कोई साबरमती का संत (महात्मा गाँधी) भी आ सकता है लेकिन हम झूठ का विरोध नहीं करते और सच को हारता देख अपनी बदकिस्मती पर रोते हैं। 
 
इन दिनों मीडिया की भूमिका पर लगातार सवाल उठ रहे हैं, लेकिन मीडिया अब उस तरह की पत्रकारिता नहीं रह गई है, उसने न केवल मीडिया जैसा ग्लैमराइज़ शब्द हासिल किया है बल्कि उसकी दुनिया भी कॉर्पोरेट्स की हो गई है। एक ही खबर आप अलग-अलग चैनलों और अलग-अलग समाचार पत्रों में अलग-अलग क्रम और अलग-अलग हैडिंग के साथ देख-सुन सकते हैं। जिसके जैसे हित हैं, वैसी वह रोटी सेंक रहा है।
 
मीडिया भी टीआरपी पर चलने वाले डेली सोप्स की तरह हो गई है, जिसके बारे में एक बात ही सत्य बची है कि मीडिया समाज का दर्पण है। कल तक जो लोग आसाराम बापू के पंडाल में जाकर भीड़ का हिस्सा बनते थे, डेरा सच्चा में पूरी आस्था से जाते थे वे भी अपने गुरुओं के बारे में बोलने से कतरा रहे हैं, वैसे ही मीडिया है, हर उगते सूरज को सलाम, हर डूबते को राम-राम। 
 
…अब इन सबका लब्बोलुआब क्या? हम आम जनता कहाँ जाए, किस पर भरोसा करे? तो हमें अपने-आप पर भरोसा करना चाहिए। ‘एक नूर तै हम सब उपजै’..सबद वाणी की इस बात को याद रखना चाहिए। यदि एक ही नूर (चमक) हम सबमें है, तो हम सभी तेजस्वी सूर्य हैं, यदि हम सभी जाज्वल्यमान हैं तो हमें किसी जुगनू या दीपक, या मोमबत्ती या शमा…किसी भी ज़रूरत क्यों होनी चाहिए?
 
गीता के अंत में श्रीकृष्ण ने कहा है न जहाँ-जहाँ अर्जुन है, वहाँ-वहाँ कृष्ण हैं, मतलब यदि आपके भीतर संदेह है तो उसका समाधान भी आपके ही पास है, मन के भीतर खोजने से हरि मिलेंगे और गुरु भी…फिर क्या करना झूठ का, फ़रेबी जग का या किसी भी बगुला भगत का..आप तो स्वयं हंस हैं, है न! 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

बांग्लादेशी शरणार्थी और आदिवासियों में तनाव