बहुचर्चित भीमा-कोरेगांव में कुछ महीनों पहले हुई भीषण जातीय हिंसा के मामले में देश के विभिन्न शहरों में छापेमारी कर 5 प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने और कुछ कार्यकर्ताओं के घरों की तलाशी लिए जाने के गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। पुणे पुलिस की यह कार्रवाई न सिर्फ केंद्र और महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करती है, बल्कि इससे देश के भविष्य के लिए भी अशुभ संकेत मिलते हैं जिसे देश की सर्वोच्च अदालत ने भी महसूस किया है।
इन लोगों की गिरफ्तारी को सरकार, सत्तारूढ़ भाजपा और सरकार समर्थक मीडिया के अलावा किसी ने जायज नहीं माना। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीबी सावंत ने तो इन गिरफ्तारियों को 'राज्य का आतंक' और 'भयानक आपातकाल' बताया। यही वजह रही कि रोमिला थापर, प्रभात पटनायक, सतीश देशपांडे, देवकी जैन और माजा दारूवाला जैसे देश के जाने-माने बुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता इस मामले में आगे आए और इन गिरफ्तारियों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट ने भी मामले की सुनवाई करते हुए पांचों लोगों की गिरफ्तारी के आधार को फौरी तौर पर नाकाफी मानते हुए पुणे पुलिस की कार्रवाई पर रोक लगाकर महाराष्ट्र और केंद्र सरकार से जवाब तलब करते हुए लोकतंत्र में आस्था रखने वाले लोगों को राहत दी। ऐसा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नसीहत भी दी- 'असहमति लोकतंत्र के लिए सेफ्टी वॉल्व है, अगर असहमति की अनुमति नहीं होगी तो लोकतंत्र का प्रेशर कुकर फट जाएगा।' राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इन गिरफ्तारियों का स्वत: संज्ञान लेते हुए कहा कि पुलिस ने गिरफ्तारी में नियमों का पालन नहीं किया और इसमें मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है। आयोग ने इस संबंध में महाराष्ट्र पुलिस से जवाब देने को भी कहा है।
सुप्रीम कोर्ट तथा मानवाधिकार आयोग ने जो किया और कहा वह तो महत्वपूर्ण है ही, इस मामले में एक और अहम बात यह भी रही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी फौरन मैदान में आ गए और उनकी पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी वकील की हैसियत से गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की पैरवी के लिए सुप्रीम कोर्ट में खड़े हुए। कांग्रेस के रवैये में आया यह बदलाव साधारण नहीं है।
वह पहली बार ऐसे लोगों के नागरिक अधिकारों के बचाव में खुलकर सामने आई है जिनके विचार उसके विचारों से जरा भी मेल नहीं खाते। इसके उलट गिरफ्तार कार्यकर्ता कांग्रेस के भी उतने ही विरोधी रहे हैं जितने विरोधी वे भाजपा के हैं।
राहुल गांधी ने गिरफ्तारी के मामले को तकनीकी तौर पर उठाने के बजाय वैचारिक हमला किया और वह भी सीधे आरएसएस पर, जो कि मौजूदा सत्ता का प्रेरणास्रोत है। राहुल ने कहा- 'देश में सिर्फ एक ही एनजीओ रहेगा और वह है आरएसएस। बाकी सभी एनजीओ बंद कर दो, सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दो और जो प्रतिरोध करे उसे गोली मार दो।' यह तीखा हमला काफी मायने रखता है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के चलते पुलिस या कि सरकार को मनमानी की इजाजत नहीं मिली। इस मामले में पुलिस ने जिस ढंग से काम किया उससे न सिर्फ उसका अनाड़ीपन और औपनिवेशिक चेहरा उजागर हुआ बल्कि यह भी जाहिर हो गया कि भीमा-कोरेगांव हिंसा के असल अपराधियों तथा लंबे समय से आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त 'सनातन संस्था' के कार्यकर्ताओं की हाल में हुई गिरफ्तारी के मामले को दबाने और विभिन्न मोर्चों पर अपनी नाकामियों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी नया प्रपंच रच रही है। ऐसा प्रपंच जिसे कुछ महीनों बाद होने वाले आम चुनाव तक जिंदा रखा जा सके।
यही वजह रही कि घोषित तौर पर भीमा-कोरेगांव हिंसा के मामले में गिरफ्तार किए गए बुजुर्ग और प्रतिष्ठित कार्यकर्ताओं के 'शहरी नक्सली' होने तथा उन पर प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने का आरोप जोर-शोर से प्रचारित किया गया जबकि सुप्रीम कोर्ट में पेश पुलिस के हलफनामे में इस आरोप का जिक्र तक नहीं है।
गौरतलब है कि भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने के मुख्य आरोपी संभाजी भिडे उर्फ गुरुजी को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी भिडे को गुरुजी कहते हैं और उनके पैर छूते हैं। जहां तक सनातन संस्था की बात है, इस संगठन के कार्यकर्ताओं पर पिछले 4 साल के दौरान डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर, डॉ. एमएम कलबुर्गी, गोविंद पानसरे और गौरी लंकेश जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और लेखकों की हत्या का आरोप है, लेकिन अभी तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है। सनातन संस्था को भाजपा का समर्थक माना जाता है।
बहरहाल, 5 बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारियों के बाद पुलिस की ओर से मीडिया को जो जानकारी दी गई, उसमें भी काफी झोल रहा। यही वजह रही कि महाराष्ट्र और केंद्र सरकार के मंत्रियों तथा भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा इन गिरफ्तारियों को शहरी नक्सली तंत्र और प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश से जोड़ने की कोशिश की गई। इस कोशिश में कॉर्पोरेट नियंत्रित टेलीविजन मीडिया ने भी बढ़-चढ़कर मदद की।
लेकिन अगले दिन सुप्रीम कोर्ट में पुलिस के हलफनामे से साफ हुआ कि मामला भीमा-कोरेगांव की हिंसा से संबंधित है। जहां तक प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश की बात है, पुलिस के हलफनामे में तो उसका कोई जिक्र तक ही नहीं है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के जवाब में अगर महाराष्ट्र और केंद्र सरकार इस तरह की आशंका जताते हुए कोई ठोस सबूत पेश करेगी तो अदालत तय प्रक्रिया के मुताबिक इसकी जांच कराएगी ही।
फिलहाल इतना साफ है कि सरकार के पास अगले चुनाव में लोगों को दिखाने के लिए न तो अपनी कोई ठोस उपलब्धि है और न ही कोई लोक-लुभावन मुद्दा। अरबों रुपए के बहुचर्चित रॉफेल विमान सौदे पर उठ रहे सवाल सरकार की जान के दुश्मन बने हुए हैं। इन सवालों का उसके पास कोई ठोस जवाब नहीं है। नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम पूरी तरह फेल हो चुके हैं जिसकी वजह से छोटे और मझले स्तर के उद्योग-धंधे लगभग चौपट हो गए हैं। अर्थव्यवस्था की हालत बेहद खस्ता है।
पढ़े-लिखे नौजवानों के लिए सरकार रोजगार के अवसर पैदा करने में बुरी तरह नाकाम रही है। निजी संस्थानों में बड़े पैमाने पर छंटनी के चलते बेरोजगारों की फौज में इजाफा हो रहा है। कृषि क्षेत्र की बदहाली के चलते किसानों की आत्महत्या का सिलसिला अभी भी जारी है। दलित, आदिवासी और अन्य वंचित तबकों का युवा वर्ग सरकार से खफा है। वह जमीन पर अपना अधिकार और नौकरियां चाहता है, लेकिन ये मोदी सरकार के एजेंडे में नहीं है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें भी इतनी ज्यादा परवान नहीं चढ़ पा रही है कि जिसके बूते चुनावी नैया पार लग सके।
पाकिस्तान के मुद्दे को भी हवा देना अभी की स्थिति में आसान नहीं है, क्योंकि वहां बनी नई सरकार भारत के साथ रिश्ते सुधारने की इच्छा का संकेत दे रही है और उन संकेतों का वहां की सेना भी समर्थन कर रही है। कश्मीर में राज्यपाल का शासन होने के बावजूद वहां सरकार ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासकर अमेरिका और चीन कश्मीर को लेकर सैन्य कार्रवाई जैसा कदम उठाने नहीं देंगे। अगर भारत ने ऐसा कदम उठा भी लिया तो दोनों महाशक्तियां पाकिस्तान का पलड़ा झुकने नहीं देंगी, क्योंकि दोनों के अपने-अपने हित पाकिस्तान के साथ जुड़े हैं।
इस पूरे सूरत-ए-हाल में सरकार और सत्तारूढ़ दल को अगले चुनाव के लिए किसी ऐसे मुद्दे की तलाश है, जो उसकी विचारधारा का प्रतिनिधित्व भी करे और उसे वोट भी दिलवा सके। सवाल यही है कि क्या यह तलाश 'शहरी नक्सली' और 'प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश' जैसे शगूफों से पूरी हो सकेगी?