तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के और भी कई देशों के लिए चिंता का सबब बनी हुई है, क्योंकि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उसके लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएं और संसाधन जुटाना सरकारों के लिए चुनौती साबित हो रहा है। इसीलिए जब स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जताई तो उसका आमतौर पर स्वागत ही हुआ है।
उन्होंने कहा कि हमारे देश में जो बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, वह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए कई तरह के संकट पैदा करेगा। यह संभवत: पहला मौका रहा जब लंबे समय बाद किसी प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने भाषण में बढ़ती जनसंख्या की समस्या पर चिंता जताई हो।
लेकिन सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी इस चिंता को लेकर क्या वाकई गंभीर हैं? यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में एक बार भी कभी बढ़ती जनसंख्या से जुड़ी चुनौतियों या चिंताओं का जिक्र नहीं किया बल्कि इसके ठीक उलट उन्होंने देश में और देश के बाहर भी कई बार डेमोग्राफिक डिविडेंट यानी देश की विशाल युवा आबादी के फायदे गिनाए। सवाल यही है कि आखिर अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि बढ़ती जनसंख्या राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गई?
दरअसल, मोदी सरकार को अपने पिछले कार्यकाल में तेज गति से आर्थिक विकास की उम्मीद थी। उसे लग रहा था आर्थिक विकास दर तेज होने से रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे और बड़ी संख्या में युवा कामगारों की जरूरत होगी। लेकिन रोजगार के अपेक्षित अवसर न तो मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल पैदा हुए और न इस कार्यकाल में पैदा होने के कोई आसार दूर-दूर तक नजर आ रहे हैं।
यही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था मंदी की गिरफ्त में होने के चलते अब तो रोजगारशुदा लोग भी बेरोजगार हो रहे हैं। बेरोजगार नौजवानों की फौज सरकार को बोझ की तरह महसूस हो रही है। जिस विशाल जनसंख्या को प्रधानमंत्री कल तक डेमोग्राफिक डिविडेंट बता रहे थे, अब उसे वे डेमोग्राफिक डिजास्टर बता रहे हैं। वे देश में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था की बदहाली और बढ़ती बेरोजगारी पर चिंता जताने वालों को दलाल करार दे रहे हैं।
वैसे जनसंख्या विस्फोट की स्थिति को लेकर प्रधानमंत्री का चिंता जताना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े चीख-चीखकर बता रहे हैं कि हमारा देश जल्द ही जनसंख्या स्थिरता के करीब पहुंचने वाला है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 के मुताबिक देश का मौजूदा टोटल फर्टिलिटी रेट 2.3 से नीचे है यानी देश के दंपति औसतन करीब 2.3 बच्चों को जन्म देते हैं और यह दर भी तेजी से कम हो रही है। जनसंख्या को स्थिर करने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए और यह स्थिति कुछ ही वर्षों में खुद-ब-खुद आने वाली है।
एनएफएचएस के मुताबिक देश में हिन्दुओं का फर्टिलिटी रेट जो 2004-05 में 2.8 था, वह अब 2.1 हो गया है। इसी तरह मुस्लिमों का फर्टिलिटी रेट 3.4 से गिरकर 2.6 हो गया है। 1.2 बच्चे प्रति दंपति के हिसाब से सबसे कम फर्टिलिटी रेट जैन समुदाय में है। वहां बच्चों की और महिलाओं की शिक्षा सबसे ज्यादा है। इसके बाद सिख समुदाय में फर्टिलिटी रेट 1.6, बौद्ध समुदाय में 1.7 और ईसाई समुदाय में 2 है। भारत का औसत कुल फर्टिलिटी रेट 2.2 है, जो कि अभी भी 'हम दो, हमारे दो' के आंकड़े से ज्यादा है। लेकिन फिर भी अगर देखा जाए तो 2 धार्मिक समुदायों को छोड़कर बाकी समुदायों में बच्चों की संख्या तेजी से कम हो रही है।
भारत दुनिया में पहला देश है जिसने सबसे पहले अपनी आजादी के चंद वर्षों बाद 1950-52 में ही परिवार नियोजन को लेकर राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू कर दिया था। हालांकि गरीबी और अशिक्षा के चलते शुरुआती दशकों में इसके क्रियान्वयन में जरूर कुछ दिक्कतें पेश आती रहीं और 1975-77 में आपातकाल के दौरान मूर्खतापूर्ण जोर-जबरदस्ती से लागू करने के चलते यह कार्यक्रम बदनाम भी हुआ। लेकिन पिछले 2 दशकों के दौरान लोगों में इस कार्यक्रम को लेकर जागरूकता बढ़ी है जिससे स्थिति में काफी सुधार हुआ है।
हालांकि अलग-अलग माध्यमों से अक्सर इस आशय की रिपोर्ट आती रहती हैं जिनमें यह बताया जाता है कि आबादी के मामले में भारत जल्द ही चीन को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। यह बात कुछ हद सही भी है। चीन की जनसंख्या भारत के मुकाबले काफी धीमी गति से बढ़ रही है।
लेकिन जनसंख्या को लेकर हमारे यहां कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों की ओर से एक निहायत बेतुका प्रचार अभियान सुनियोजित तरीके से पिछले कई वर्षों से चलाया जा रहा है, जो कि हमारे जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के खिलाफ है। मनगढ़ंत आंकड़ों के जरिए वह प्रचार यह है कि 'जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा, जब भारत में मुसलमान और ईसाई समुदाय अपनी आबादी को निर्बाध रूप से बढ़ाते हुए बहुसंख्यक हो जाएंगे और हिन्दू अल्पमत में रह जाएंगे। अत: उस 'भयानक' दिन को आने से रोकने के लिए हिन्दू भी अधिक से अधिक बच्चे पैदा करें।'
एक मजेदार बात यह भी उल्लेखनीय है कि मुसलमानों की कथित रूप से बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित होने वाले ये ही हिन्दू कट्टरपंथी इसराइल के यहूदियों का इस बात के लिए गुणगान करते नहीं थकते हैं कि संख्या में महज चंद लाख लेते हुए भी उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर करोड़ों मुसलमानों पर न सिर्फ धाक जमा रखी है बल्कि 4 लड़ाइयों में उन्हें करारी शिकस्त भी दी है और उनकी जमीन छीनकर अपने राज्य का विस्तार किया है।
यहूदियों के इन आराधकों और हिन्दू कट्टरता के प्रचारकों से पूछा जा सकता है कि अगर मुसलमान संख्या बल में यहूदियों से कई गुना भारी होते हुए भी उनसे शिकस्त खा जाते हैं तो हिन्दुओं को ही भारतीय मुसलमानों की भावी और काल्पनिक बहुसंख्या की चिंता में दुबला होने की क्या जरूरत है? या फिर वे क्या यह जताना चाहते हैं कि यहूदी हिन्दुओं से ज्यादा काबिल हैं?
मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की कथित रूप से बढ़ती आबादी पर चिंतित होने वाले यह भूल जाते हैं कि आबादी बढ़ने या ज्यादा बच्चे पैदा होने का कारण कोई धर्म या विदेशी धन नहीं होता। इसका कारण होता है गरीबी और अशिक्षा। किसी भी अच्छे खाते-पीते और पढ़े-लिखे मुसलमान (अपवादों को छोड़कर) के यहां ज्यादा बच्चे नहीं होते। बच्चे पैदा करने की मशीन तो गरीब और अशिक्षित हिन्दू या मुसलमान ही होता है।
कहने का मतलब यह कि जो समुदाय जितना ज्यादा गरीब और अशिक्षित होगा, उसकी आबादी भी उतनी ही ज्यादा होगी। अफसोस की बात यह है कि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के आबादी संबंधी इन सामान्य नियमों को नफरत के सौदागर समझना चाहे तो भी नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके इरादे तो कुछ और ही हैं। उनके द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार को प्रधानमंत्री के बयान से और हवा मिल गई है।
लेकिन जनसंख्या वृद्धि से संबंधित आंकड़ों और तथ्यों की रोशनी में यही कहा जा सकता है कि जनसंख्या विस्फोट पर प्रधानमंत्री का चिंता जताना सिर्फ अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की नाकामी से ध्यान हटाने का उपक्रम ही कहा जा सकता है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)