आर्थिक आधार पर आरक्षण

सिद्धार्थ झा
आर्थिक आधार पर आरक्षण संसद में पास हो चुका है। अब सामान्य वर्ग के लोग भी 10 प्रतिशत के आरक्षण का लाभ आर्थिक आधार पर उठा सकते हैं। ये एक ऐसी ऐतिहासिक पहल है, जो देश को तोड़ने का नहीं बल्कि जोड़ने का काम करेगी। आरक्षण इससे पहले भी दिए गए लेकिन इससे कहीं-न-कहीं समाज ने खुद को टूटा हुआ महसूस किया, मगर मोदी सरकार की इस पहल ने सबका दिल जीत लिया। लोकसभा में 5 घंटे से अधिक समय तक इस पर बहस हुई और सिर्फ 3 सांसदों ने इसका विरोध किया और अपार बहुमत से यह विधेयक पास हुआ। राज्यसभा में सफर थोड़ा मुश्किल जरूर था लेकिन वहां भी आसानी से ये बिल पास हो गया है और अब वह दिन दूर नहीं, जब सरकारी संस्थानों और शैक्षिक संगठनों को इसका लाभ मिलना शुरू हो जाएगा।
 
सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण का अर्थ यह है कि शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलना शुरू हो जाएगा। यह लाभ केवल हिन्दू धर्मावलंबी व अनारक्षित जातियों के लिए ही नहीं, बल्कि मुस्लिम, ईसाई और अन्य समुदायों को भी मिलेगा।
 
संसद में कैसा रहा सफर?
 
लोकसभा में विपक्ष सहित लगभग सभी दलों ने 'संविधान (124वां संशोधन), 2019 विधेयक' का समर्थन किया, साथ ही सरकार ने दावा किया कि कानून बनने के बाद यह न्यायिक समीक्षा की अग्निपरीक्षा में भी खरा उतरेगा, क्योंकि इसे संविधान संशोधन के जरिए लाया गया है। आरक्षण बिल पर चर्चा के दौरान पीएम नरेन्द्र मोदी भी मौजूद थे। एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि ये संविधान का अपमान है, ये बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के साथ धोखा है। सवर्ण आरक्षण बिल को आईएनएलडी सांसद दुष्यंत चौटाला ने लॉलीपॉप बताया, वहीं केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने बहस में शिरकत करते हुए कहा कि सामान्य वर्ग के गरीब को पहली बार फायदा मिलेगा।
 
कांग्रेस के सांसद दीपेंद्र हुड्डा ने कहा कि उनकी पार्टी बिल का समर्थन करती है, लेकिन सरकार की नीति और नीयत पर भरोसा नहीं है। सत्र के आखिरी दिन बिल लाए जाने का औचित्य समझ के बाहर है। आरएलएसपी के उपेन्द्र कुशवाहा ने कहा कि आरक्षण उन्हें मिलना चाहिए, जो सरकारी स्कूलों में पढ़ें हों तथा बिल में इस प्रावधान को जोड़ा जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी ने केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल उठाए। एसपी सांसद धर्मेंद्र यादव ने कहा कि सरकार को सभी पदों पर असमानता दूर करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि आबादी के हिसाब से समाज के सभी वर्गों को आरक्षण की जरूरत है।
 
केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि अगड़ी जातियों के गरीब लोगों को 10 फीसदी आरक्षण दिए जाने से वे खुश हैं। उन्होंने सरकार के फैसले को सही करार देते हुए कहा कि ये सभी के लिए समान अवसर वाली बात है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि सभी दलों ने अनारक्षित वर्ग के लिए आरक्षण की घोषणा की थी। सवर्ण आरक्षण पर अब तक सही प्रयास नहीं हुए थे। पिछली सरकारों ने सही कोशिशें नहीं की थीं।
 
लोकसभा में केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावरचंद गेहलोत ने विधेयक पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी सरकार बनने के बाद ही गरीबों की सरकार होने की बात कही थी और इसे अपने हर कदम से उन्होंने साबित भी किया। उनके जवाब के बाद सदन ने 3 के मुकाबले 323 मतों से विधेयक को पारित कर दिया।
 
विधेयक के पारित होने पर ट्वीट करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, '124वां संविधान संशोधन बिल, 2019 का लोकसभा से पारित होना देश के इतिहास में मील का पत्थर है। इसे मंजूरी मिलने से समाज के सभी वर्गों को न्याय मिलने की दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जा सकेंगे।' आगरा में हुई जनसभा में उन्होंने इस बिल को नए युग का सूत्रपात बताया। राज्यसभा में भी इस बिल पर लंबी चर्चा हुई। सभी दल पहले ही इस बिल पर समर्थन जता चुके थे इसलिए इसका पास होना लाजमी था।
 
आरक्षण का इतिहास
 
आरक्षण की आग में देश कई बार झुलस चुका है। पहली बार मंडल कमीशन की सिफारिशों को 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने लागू किया तो देश में सवर्ण समुदाय के लोग इसके विरोध में सड़क पर उतर आए। ओबीसी आरक्षण के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन हुआ। इस दौरान दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया था। इसके अलावा कई जगह आगजनी व तोड़फोड़ तक हुई।
 
एक तरफ जहां आरक्षण विरोधी लोग उनके कट्टर दुश्मन बन गए तो दूसरी ओर आरक्षण समर्थकों ने वीपी सिंह को नहीं स्वीकारा, क्योंकि वो उनके 'बीच' से नहीं थे। इतना ही नहीं, जो वीपी सिंह 1987-89 के 'बोफोर्स अभियान' के जमाने में मीडिया के अधिकतर हिस्से के हीरो थे, वे मंडल आरक्षण के बाद खलनायक बन गए। मीडिया के एक बड़े हिस्से के उनके प्रति बदले रुख से वीपी इतने दु:खी हुए थे कि उन्होंने 1996 में प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया। लेकिन आरक्षण की आग यहीं नहीं थमी और शुरुआत हुई एक नई राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग की जिसने देश के विकास के स्वरूप को ही बदल दिया।
 
अनेक आरक्षण आंदोलनों की शुरुआत :
 
गुर्जर आंदोलन
 
इस कड़ी में राजस्थान में गुर्जर समुदाय को शामिल किया जा सकता है जिसने अनेक बार राजस्थान को आरक्षण के मुद्दे पर सुलगाए रखा। ये समुदाय अलग से आरक्षण की मांग को लेकर सड़क पर उतरा और कई दिनों तक रेलवे ट्रैक को जाम कर रखा। गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ीसिंह बैंसला इस आंदोलन का चेहरा बनकर उभरे। साल 2008 में गुर्जर आंदोलनकारियों ने जमकर बवाल काटा था। उन्होंने तोड़फोड़ की व रेलवे की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। पुलिस की गोलीबारी की वजह से हिंसा भड़क गई थी। कई लोगों की मौत भी हुई। साल 2015 में एक बार फिर गुर्जर समुदाय के लोग सड़क पर उतरे और रेलवे ट्रैक पर कब्जा किया, पटरियां उखाड़ीं व आगजनी की जिससे 200 करोड़ का नुकसान हुआ।
 
पटेल आंदोलन
 
साल 2015 में हार्दिक पटेल एक ऐसे ही आंदोलन का चेहरा बनकर उभरे जिनके नेतृत्व में पटेल आंदोलन से पूरा गुजरात हिल गया था। हार्दिक को पुलिस ने हिरासत में लिया तो सूबे का माहौल ही बिगड़ गया। देखते ही देखते पटेल समाज के लोग शहरों में सड़क पर उतर आए। इस दौरान उन्होंने तोड़फोड़ और आगजनी करते हुए करीब 125 गाड़ियों में आग लगा दी, हालांकि कुछ समय बाद ये आंदोलन खुद ही ठंडा पड़ता नजर आया।
 
जाट आंदोलन
 
साल 2014 के आम चुनावों से पहले यूपीए सरकार ने जाट समुदाय को ओबीसी की श्रेणी में शामिल किया था जिसे न्यायालय ने रद्द कर दिया था। हरियाणा सहित कई राज्यों में जाट समुदाय के लोग सड़क पर उतर आए और उनके आंदोलन ने हिंसक रुख अख्तियार कर लिया। आंदोलन के दौरान करीब 30 लोगों की जान गई और राज्य को 34,000 करोड़ रुपए की धनहानि हुई और दिल्ली को कई दिनों तक प्यासा रहना पड़ा था।
 
आंध्रप्रदेश में आंदोलन
 
आंध्रप्रदेश के कापू समुदाय ने 2016 में ओबीसी दर्जे की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन किए। प्रदर्शनकारियों ने रत्नाचल एक्सप्रेस के 4 डिब्बों सहित 2 पुलिस थानों को आग के हवाले कर दिया था। इस दौरान कई लोग व पुलिसकर्मी घायल हुए।
 
मराठा आरक्षण
 
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग काफी लंबे समय से प्रयासरत है। इसके लिए मराठा लोग कई बार सड़क पर उतरे चुके हैं। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा और महाराष्ट्र के विधानसभा में 16 फीसदी मराठा आरक्षण बिल पास कर दिया गया।
 
50 फीसदी आरक्षण की सीमा
 
पहले भी आरक्षण की तय सीमा को बढ़ाने को लेकर प्रयास होते रहे हैं, मगर संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। याद कीजिए साल 1991 में जब नरसिंहराव सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव किया था तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया था और कहा था कि 'संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक गैरबराबरी दूर करने के मकसद से रखा गया है, लिहाजा इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं किया जा सकता।' बाद में सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले की रोशनी में राजस्थान, गुजरात व हरियाणा जैसे राज्यों की सरकारों के इसी तरह के फैसलों को उन राज्यों की हाईकोर्टों ने भी खारिज किया।
 
क्या सोचता है आम नागरिक?
 
आम नागरिक सरकार के इस फैसले से खुश है कि जो काम बहुत पहले किया जा सकता था वह 'देर आए, दुरुस्त आए' की तर्ज पर अब किया गया है। कुछ लोग भले ही बिल की टाइमिंग पर सवाल उठा रहे हैं लेकिन राजनीति से परे इसको समाज की बड़ी जरूरत भी बता रहे हैं, साथ ही ये भी कुछ लोगों का मानना है कि सरकारी नौकरियों की ही कमी है, तो ऐसे में इस बिल से क्या लाभ होने वाला है?
 
निष्कर्ष
 
देश का बड़ा युवा वर्ग आरक्षण को खत्म करना चाहता था और उसके मन में कहीं-न-कहीं समान अवसर न पाने की टीस साफ झलक रही है और वो समान अवसर चाहता था, मगर इस बिल को लेकर उसके मन में ऐसा उत्साह नहीं है। याद कीजिए कि 1990 में जब मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुई थीं तब भाजपा इसके खिलाफ थीं और उसे अपार जनसमुदाय का समर्थन हासिल हुआ था और उसकी राजनीति की जमीन तैयार हुई थी। मगर जब उसे 2014 में इतना बड़ा अवसर मिला भी तो उसने भी आरक्षण को खत्म करने की बजाय इसमें 10 प्रतिशत और जोड़ दिया, वजह चाहे जो भी हो।
 
हाल ही में भारत के छोटे से पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश ने आरक्षण को पूरी तरह से खत्म कर एक नए युग में प्रवेश किया है, जहां सिर्फ मेहनत, हुनर और आपकी काबिलियत ही भविष्य है, न कि आरक्षण।

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