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क्या अयप्पा दरबार में प्रवेश ही समानता का पर्याय है?

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विवेक कुमार पाठक
 
केरल के सबरीमाला मंदिर में दो महिलाएं आखिरकार भगवान अयप्पा के दरबार में पहुंच ही गईं। महिला समानता के पैरोकार इसे बहुत बड़ी जीत बता रहे हैं। राज्य की सत्तारूढ़ माकपा सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है कि आखिरकार उसके शासन में रुल ऑफ लॉ है और उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन कर पुलिस की ताकत से महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करा दिया। स्वतंत्रता और समानता के पैरोकार तमाम बुद्धिजीवी सबरीमाला में 60 साल से कम आयु की महिलाओं के प्रवेश को उत्सव की तरह मना रहे हैं। मगर क्या वाकई भगवान अयप्पा के दरबार की पुरानी परंपरा टूटना परतंत्रता थी? अथवा यह स्वतंत्रता समानता के इस कथित उत्सव की कहानी कुछ और ही है?
 
 
इसे फुरसत से चर्चा कर लेते हैं। 800 वर्ष प्राचीन केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर पर रजस्वला आयु की महिलाओं का प्रवेश निषेध है। ब्रह्मचारी भगवान अयप्पा के दरबार की यह पुरानी मान्यता है और शताब्दियों से इसका पालन अयप्पा के अनुयायी कर रहे हैं। इस शांतिपूर्ण परंपरा निर्वाह के बावजूद पिछले कुछ सालों से स्वतंत्रता और समानता के नाम पर कथित बुद्धिजीवी एक अलग तरह की हठधर्मिता की देश में फसल खड़ी कर रहे हैं। इस फसल की जमीन समानता के तर्क पर लगाई गई है।
 
शनिदेव मंदिर हो या प्राचीन सबरीमाला मंदिर, यहां की परंपराओं और मान्यताओं के प्रति इस वर्ग में कितनी आस्था है, ये अभी तक उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में नहीं दिखी है। मगर पुरानी हिन्दू मान्यताओं और परंपराओं का नागरिक अधिकारों के नाम पर विध्वंस और खंडन उनका पसंदीदा शगल बन चुका है। बड़े ही सुनियोजित ढंग से सदियों से श्रद्धा की केंद्र हिन्दू मान्यताओं, परंपराओं पर प्रहार और कुठाराघात किया जा रहा है।
 
हिन्दुस्तान के करोड़ों मंदिरों में से अनेक मंदिरों में मान्यता अनुसार कहीं पुरुषों को दर्शन की मनाही है, तो कहीं महिलाओं के बाहर से ही दर्शन की मान्यता है। मगर स्वतंत्रता के अधिकार को अहंकार मान चुका एक वर्ग इन धार्मिक व्यवस्थाओं को भंग कराने में जीवन का धन्य समझ रहा है। इसके अपने राजनीतिक निहित और स्वार्थ हैं और इसी कारण आंदोलनस्वरूप में मंदिरों की व्यवस्था भंग कराने देश में प्रायोजित अभियान चलाए जा रहे हैं।
 
तृप्ति देसाई की देश में पहचान क्या है? सिवाय ये कि भू-माता ब्रिगेड का बैनर लगाकर वे पिछले कुछ सालों से सिर्फ मंदिर और धार्मिक स्थानों की पुरानी परंपराओं और मान्यताओं को उलटने-पलटने आंदोलन कर रही हैं। सवाल उठता है कि अगर दर्शन में आस्था है, तो करोड़ों मंदिरों के दरबार खुले हुए हैं तो फिर उनमें दर्शन कर धार्मिक आस्था और श्रद्धा तृप्ति और उनकी अराजक टीम ने कितनी बार कहां-कहां दिखलाई है? कितनी दफा उन्होंने पवित्र हिन्दू मंदिरों में अपनी श्रद्धा का सुमन अर्पित किया है? क्या मंदिरों और मठों की व्यवस्थाओं को अपने अहंकार से उलटना-पलटना ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो गया है?
 
क्या सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले एक्टिविस्ट वास्तव में भगवान अयप्पा और सबरीमाला के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा रखते हैं? अगर श्रद्धा इतनी अधिक है तो फिर अपने जैसे ही केरल के करोड़ों अयप्पा भक्तों के प्रति उनकी कोई संवेदना नहीं है? क्या जो सबरीमाला के साधक और अयप्पा के उपासक मंदिर की शताब्दियों पुरानी परंपराओं और मान्यताओं की रक्षा चाहते हैं, वे उनके लिए दुश्मन हो गए हैं?
 
ईश्वर के सभी साधक आपस में सहोदर हैं। सभी ईश्वर की संतान हैं, तो मंदिर में रजस्वला स्त्रियों को परंपरा अनुसार प्रवेश के लिए मना करने वालों के प्रति एक्टिविस्ट इतने संवेदनाविहीन क्यों हैं? सबरीमाला में अड़कर प्रवेश करने के पक्षधर बुद्धिजीवियों और आंदोलनकारियों से ये सवाल निश्चित रूप से बार-बार लगातार पूछे जाने चाहिए। देश के करोड़ों अयप्पा भक्तों की भावनाओं को छिन्न-भिन्न करके दो आंदोलनकारी महिलाएं आखिरकार भगवान अयप्पा की प्रतिज्ञा तोड़ने पुलिस संरक्षण में सबरीमाला जा पहुंचीं?
 
मीडिया बता रहा है कि ये दोनों महिलाएं माकपा की कम्युनिस्ट विचारधारा की पैरोकार हैं और सरकारी संरक्षण में सुनियोजित रूप से अयप्पा दरबार में पहुंचाई गई हैं। माकपा सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देकर जिस तरह अपनी पीठ ठोंक रही है, इससे उसका छिपा एजेंडा साफ जाहिर होता है। अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला माकपा का मार्गदर्शक था तो फिर क्यों केरल में आए दिन राजनीतिक हत्याओं को संविधान की दुहाई देने वाली सरकार नहीं रोकती?
 
क्या माकपा सरकार ने सिर्फ मान्यताओं का विध्वंस करके आंदोलकारियों को बलपूर्वक हिन्दू मंदिरों में प्रवेश कराने की ही शपथ ली है? जीवन के अधिकार जैसे प्रारंभिक मौलिक अधिकार की रक्षा और सुरक्षा से उसका कोई वास्ता नहीं है? क्या सभी धर्मों के प्रति हर तरह के राग और द्वेष से परे रहने की शपथ केरल में माकपा की सरकार ने नहीं ली है? क्या देश के तमाम कानूनों को सरकार उसी तरह लागू नहीं करा सकती जिस तरह सबरीमाला प्रकरण में सरकार ने अपनी ताकत दिखलाई है? क्या स्वतंत्रता, समानता का अधिकार केरल में राजनीतिक एजेंडे के अनुकुल होने पर ही मिलेगा अन्यथा नहीं?
 
इस तरह के तमाम सवाल सबरीमाला मंदिर प्रकरण में केरल सरकार के रवैए के बाद लगातार खड़े हो रहे हैं। मंदिर में माकपा विचारधारा की महिला आंदोलनकारियों को प्रवेश कराकर माकपा सरकार भले ही अपनी जीत बता रही हो, मगर एक नागरिक की मौत सहित व्यापक हिंसक आंदोलन भड़कना साबित करता है कि इस जिद में सरकार की हार भी छिपी हुई है।

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